यह टकराव किसके हित में और किसके खिलाफ है

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‘यह युद्ध का नहीं बुद्ध का समय है’ कहने वालों ने बुद्ध पूर्णिमा (12 मई) के ठीक पांच दिन पहले भारत और पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में पहुंचा दिया। और फिर दो-तीन दिन के हमले के बाद अंतर्राष्ट्रीय दबाव में युद्धविराम भी कर लिया। शांति और अहिंसा की बातों पर तो रूस और यूक्रेन को चलना चाहिए। भारत के लिए तो ‘‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे....’’ का नियम लागू होता है। इसे ही कहा जाता है ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’। रूस व यूक्रेन ने तब ही अपने व्यवहार से बता दिया कि उपदेश किसी काम के नहीं हैं। 
    
पहलगाम आतंकी हमले की जांच अभी भारतीय जांच एजेन्सी (एन आई ए) कर ही रहा है परन्तु यह निष्कर्ष निकाला जा चुका था कि इसमें सीमा पार स्थित तत्वों का हाथ है। और फिर दो हफ्तों के बाद इन तत्वों को सबक सिखाने के लिए एक देश की सम्प्रभुता को नजरअंदाज करते हुए हमला बोल दिया गया। और फिर देश के रक्षा मंत्री ने मासूमियत से कहा कि ‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे...’’। और फिर पाकिस्तान ने वही किया जो रावण ने हनुमान के साथ किया। फिर हमले, प्रति हमले का सिलसिला शुरू हो गया। और इसकी कीमत दोनों ही देशों के निर्दोष, निहत्थे लोगों को अपनी जानों से चुकानी पड़़ी। सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और इससे अधिक लोग घायल हो चुके हैं। दोनों ही देशों में राष्ट्रीय उन्माद चरम पर पहुंच गया। भारत में हर कोई अपने को परम राष्ट्र भक्त, देश भक्त साबित करने के लिए बुद्ध की नहीं युद्ध की चर्चा कर रहा था। सबसे बुरा हाल अम्बानी-अडाणी पोषित टीवी चैनलों का था जो इस उन्माद को खूब हवा दे रहे थे। 
    
पहलगाम आतंकी हमले के हमलावर कौन थे? वे कहां से आये? और फिर हमला करने के बाद वे कहां चले गये? ये ऐसे सवाल हैं जिसके उत्तर इस घटना के दो हफ्ते बाद भी नहीं मिल पाये हैं। और शायद इसके ठीक-ठाक जवाब कभी न मिल पायें। जैसे इसके पहले के कई इस तरह के आतंकी हमलों के बाद हुआ है। पुलवामा हत्याकाण्ड का सच आज तक ठीक-ठाक उजागर नहीं हो सका। और यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या पहलगाम का जवाब पाकिस्तान के ‘‘असैन्य ठिकानों’’ पर हमला ही था। क्या पहलगाम के निर्दोष नागरिकों की हत्या का जवाब निर्दोष नागरिकों की हत्या से ही दिया जा सकता था। यह सवाल खुलेआम नाच रहा है। 
    
भारत और पाकिस्तान ‘‘चार’’ बड़े युद्ध लड़ चुके हैं। छोटी-मोटी झड़पों और सीमापार से होने वाली गोलीबारी की तो इतनी घटनाएं घट चुकी हैं कि शायद ही दोनों देशों में किसी के पास भी इसका ठीक-ठीक ब्यौरा हो। इन युद्धों और झड़पों में मारे जाने वाले आम लोगों तथा सैनिकों की संख्या तो हजारों हजार में है। क्यों भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी शांति और दोस्ती कायम नहीं होती है। 
    
क्या कश्मीर का सवाल ही एक ऐसा सवाल है जो इन दोनों देशों के बीच संघर्ष का बुनियादी कारण है। हकीकत तो यही है कि दोनों देशों ने कश्मीरियों की इच्छा को एक किनारे रख कर आपस में इसका वास्तविक तौर पर बंटवारा किया हुआ है। अब झगड़ा इस बात को लेकर है कि कैसे दूसरे के कब्जे वाला इलाका अपने कब्जे में लिया जाए। एक कश्मीर को अपने ‘गले की नस’ कहता है तो दूसरा अपने सिर का मुकुट। कोई यह नहीं चाहता है कि कश्मीर के लोग अपने बारे में निर्णय करें। दोनों ही आत्मनिर्णय के उनके अधिकार को किनारे लगा कर, अपना ही निर्णय उनके बारे में सुनाते हैं। 
    
और जो बात कश्मीर के बारे में सच है वही बात किसी दूसरे रूप में बलूच, पख्तून, नगा आदि, आदि के बारे में भी सच है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत और पाकिस्तान के बंटवारे और राष्ट्रीयताओं की समस्या के लिए जितने जिम्मेदार ब्रिटिश साम्राज्यवादी थे तो उतने ही जिम्मेदार यहां के पूंजीपति, भूस्वामी, जमींदार, नवाब, राजे-रजवाड़े और धार्मिक उन्मादी भी थे। और क्या इनमें से किसी को भी भारत-पाकिस्तान के मजदूर-किसान व मेहनतकशों के साथ अन्य उत्पीड़ितों की परवाह थी। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे में जो लाखों लोग मारे गये और लाखों लोगों ने जो विस्थापन का दंश झेला था उसके लिए जो जिम्मेदार थे वे ही भारत और पाकिस्तान के शासक बन गये। और जो खेल आजादी के पहले खेला गया ठीक वही खेल आजादी के बाद खेला गया। चार बड़े युद्ध और अनगिनत झड़पें और सीमा पार आतंकी संगठनों को प्रश्रय और आतंकी घटनाओं में मासूम लोगों की हत्यायें आदि इस सबका नतीजा है। 
    
इस तनाव या टकराहट के वक्त भारत-पाकिस्तान दोनों देशों का शासक वर्ग व उनकी पार्टियां अपनी-अपनी सरकारों के पीछे पूर्णतः एकजुट नजर आयीं। उन्होंने वक्ती तौर पर अपने मतभेदों पर ‘देशभक्ति’ का पर्दा डाल दिया था। यह दीगर बात है कि कोई पहलगाम में पर्यटकों की हिन्दू पहचान पर जोर दे रहा था तो कोई कह रहा था ‘‘तमिलनाडु आतंकवाद के खिलाफ भारतीय सेना के साथ खड़ा है। अपनी सेना के साथ-साथ देश के लिए तमिलनाडु अडिग है।’’ पर अमेरिका द्वारा अपनी मध्यस्थता में युद्ध विराम का दावा करते ही पूंजीवादी पार्टियां फिर सरकार को घेरने-आरोप-प्रत्यारोपों में जुट गयीं। कोई अमेरिकी मध्यस्थता पर सरकार को घेरने में जुट गया तो कोई पहलगाम के आतंकियों को सजा देने के सरकारी वायदे का हिसाब पूछने लगा।  
    
‘क्या कहना है और कैसे कहना है’ यह मोहन भागवत, शरद पवार, एम के स्टालिन आदि सब को पता था पर जो भारत में मजदूर, किसान व मेहनतकशों के प्रतिनिधि बनते हैं उन्हें नहीं पता था कि इस मौके पर उन्हें क्या, कैसे और क्यों बोलना है। वे पूंजीपति वर्ग के इतने दबाव में थे कि यह कहने का साहस ही नहीं कर पा रहे थे, कि कह सकें ‘तुरन्त इस युद्ध को रोको!’ ‘उन्माद पर रोक लगाओ!’ ‘अरे! बुद्ध की बात करने वालो क्यों युद्ध पर उतरे पड़े हो।’ 
    
शुरूआत से ही यह साफ नजर आ रहा था कि यह हमला-प्रति हमला चंद दिनों में रुकेगा या रोका जायेगा। जिन संकीर्ण हितों के कारण यह सिलसिला शुरू किया गया था ठीक वही संकीर्ण हित इसके रुकने का भी कारण बने। अब तक भारतीय शासकों ने जो करना था वह भारत ने कर लिया और जो पाकिस्तानी शासकों को करना था वह उसने कर लिया। लम्बा युद्ध कोई नहीं चाहता था यह दोनों ही देशों के शासकों के तेवर, तौर-तरीकों और तैयारियों से समझ में आ रहा था। और दोनों देशों के सामने खतरा यह भी था कि कोई भी लम्बा युद्ध इनके आंतरिक नाजुक मामलों को ज्यादा बड़ी हवा दे देगा। पाकिस्तान ही नहीं भारत की अर्थव्यवस्था भी लम्बे युद्ध को झेलने की अवस्था में नहीं थी। 
    
भारत, 1971 के युद्ध में विजय का जश्न ज्यादा दिन नहीं मना सका था। और यह बात सोलह आने सच है कि आपातकाल का वास्तविक कारण इंदिरा गांधी की सनक नहीं बल्कि देश की वह बिगड़ती स्थिति थी जिसके दिनों दिन विस्फोटक होने की संभावना बढ़ रही थी। छात्रों-नौजवानों का आक्रोश, रेलवे हड़ताल, पी ए सी विद्रोह आदि, आदि ऐसे तमाम संकेत थे जो बता रहे थे कि देश किस दिशा में जा रहा है। भारत के शासक वर्ग खासकर पूंजीपति वर्ग ने आपातकाल का स्वागत ही किया था। चाहे वह 1971 का युद्ध रहा हो या फिर उसके बाद बढ़ी महंगाई, बेरोजगारी आदि के साथ बिगड़े हालात रहे हों या फिर आपातकाल रहा हो; इस सबकी कीमत भारत के मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों ने ही अपने खून और पसीने से चुकायी थी। उन्हीं के बेटे युद्ध में मारे गये थे, उन्हीं के बेटे-बेटियों को सड़क पर उतर कर आपातकाल का मुखर विरोध करना पड़ा था।
    
अभी भले ही दोनों देशों के बीच युद्ध विराम लागू हो गया हो पर अपनी संकीर्ण राजनीति की खातिर इनके शासक कभी भी फिर से हमले-प्रति हमले से लेकर युद्ध तक बढ़ सकते हैं। ये हमले-प्रति हमले या युद्ध सबसे ज्यादा यदि किसी के खिलाफ है तो वह भारत-पाकिस्तान दोनों देशों के मजदूर, किसान व अन्य मेहनतकश के है। इसलिए वक्त रहते यह आवाज दोनों ही जगह पुरजोर तरीके से उठानी ही चाहिए कि आरोप-प्रत्यारोप के जरिए अंधराष्ट्रवाद युद्धोन्माद पैदा करने के इस सिलसिले को तुरंत रोका जाये। पुराने समझौते बहाल किये जायें। कश्मीर समस्या का हल कश्मीरियों की इच्छानुरूप हो। भारत-पाक में स्थायी शांति कायम हो। साथ ही यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि ये मांगें भारत-पाक के पूंजीवादी शासक नहीं पूरा करने वाले। वे तो टकराहटों-युद्धों-आतंकी हमलों में निर्दोष जनता का कत्लेआम करते रहेंगे। ये मांगें दोनों देशों में समाजवादी क्रांति के जरिए ही पूरी की जा सकती हैं तभी स्थायी शांति कायम होगी।    

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