भारतीय गणतंत्र को पचहत्तर वर्ष हो गये हैं। पचहत्तर वर्ष कम समय नहीं होता है। कम से कम तीन पीढ़ियां इस बीच में जवान हो गयी हैं। गणतंत्र का मतलब होना यह चाहिए कि आम नागरिक इसके भाग्य विधाता होंगे परन्तु हकीकत में हो यह रहा है कि चंद लोग इसके भाग्य विधाता बन गये हैं।
जिस तरह से समय के साथ अर्थनीति में एकाधिकार की प्रवृत्ति बढ़ती गयी है ठीक उसी तरह से भारतीय राजनीति में एकाधिकार की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसका मतलब क्या है। इसका मतलब है, एक देश में एक पार्टी का ही शासन हो। केन्द्र से लेकर नगर निकाय-ग्राम पंचायत तक एक ही पार्टी का शासन हो। कुल मिलाकर वैसा ही शासन जैसा चीन में कम्युनिस्ट नामधारी पूंजीवादी पार्टी का शासन है। भाजपा की चाहत कुछ ऐसी ही है।
‘एक देश-एक चुनाव’ एक ऐसी परियोजना है जिसके लिए मोदी एण्ड कम्पनी ने अपनी कमर कसी हुयी है। इससे सम्बन्धित विधेयक संसद में पेश किया जा चुका है। और उसे चर्चा के बाद संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा जा चुका है। इस संयुक्त संसदीय समिति में 31 सदस्य हैं जिसमें सबसे ज्यादा भाजपा के हैं और 31 में से 20 सदस्य सत्तारूढ़ गठबंधन के हैं। जाहिर है कि यह समिति जो रिपोर्ट देगी वह ‘एक देश-एक चुनाव’ के पक्ष में ही होगी। यह अलग बात है कि इस विधेयक को संसद के दोनों सदन में पास कराने के लिए दो तिहाई बहुमत मोदी सरकार के पास नहीं है। परन्तु इस बात से भी क्या फर्क पड़ता है। अतीत में ऐसे प्रतिक्रियावादी विधेयकों को पास कराने के लिए सरकारों ने एक से बढ़कर एक जुगत बिठायी है।
‘नई आर्थिक नीति’ एक ऐसी सरकार ने लागू करवायी थी जो कई बैसाखियों के सहारे चल रही थी। आधार को अनिवार्य बनाने के लिए उसे वित्त विधेयक का भाग बना दिया गया था। वित्त विधेयक को सिर्फ लोकसभा की मंजूरी चाहिए होती है। उस वक्त मोदी सरकार के पास राज्य सभा में बहुमत नहीं था। इसलिए उसने आधार विधेयक को वित्त विधेयक का हिस्सा बनाकर पास करवा दिया। और अब जब आधार सर्वव्यापी हो गया तो उच्चतम न्यायालय उसे अनिवार्य नहीं मान रहा है। अभी इस वक्त हालात ऐसे हैं कि आधार कार्ड बनवाने अथवा इसमें संशोधन करवाने के लिए लोग दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
‘एक देश-एक चुनाव’ की परियोजना का विरोध कई लोग और खासकर विपक्षी पार्टियां कर रही हैं तो वे ठीक ही कर रही हैं। भारत के आधे-अधूरे संघीय ढांचे पर यह परियोजना भारी पड़ेगी खासकर भाजपा के केन्द्र में सत्तारूढ़ बने रहने पर वह विपक्षी पार्टियों की सरकार का चलना एकदम असम्भव कर देगी। अभी असल हाल ये है कि उसने भारी संख्या में दल बदल करवाया। विपक्षी पार्टियों में विभाजन करवा दिया। किसी भी तरीके से अपनी सरकार विभिन्न राज्यों में बना डाली। विपक्षी पार्टियों के नेताओं को केन्द्रीय संस्थाओं ईडी, सीबीआई, आईटी आदि के जरिये बुरी तरह से घेर डाला। यहां तक कि जेलों में ठूंस भी दिया गया। भाजपा इन कदमों के जरिये क्या चाहती रही है। वह केन्द्र से लेकर राज्य यहां तक कि नगर-ग्राम पंचायतों में भी अपनी ही पार्टी की सत्ता चाहती है। उसे कोई भी हथकण्डा अपनाना पड़े वह उसे सत्ता पर कब्जा करने के लिए अपनाती रही है। इस रूप में ‘एक देश-एक चुनाव’ एक संवैधानिक तरीका है। इस संवैधानिक तरीके के जरिये भाजपा एक देश-एक पार्टी शासन को कायम करना चाहती है।
वह ऐसा क्यों चाहती है? वह ऐसा इसलिए चाहती है ताकि वह अपनी हिन्दू फासीवादी परियोजना के तहत भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में बदल दे। और जो कोई उसके ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का विरोध करे, उसे वह राष्ट्रद्रोही, देशद्रोही घोषित कर दे। अतीत में भाजपा-संघ के राजनीति में तीन बुनियादी मुद्दे (कोर इश्यू) थे। ये ‘राम मंदिर’, ‘धारा-370’ व ‘समान नागरिक संहिता’ थे। इन मुद्दों को एक तरह से हासिल करने के बाद वह अपनी राजनीति के लिए नये बुनियादी मुद्दे चुन रही है। ‘समान नागरिक संहिता’ का एजेण्डा अधूरा है परन्तु उत्तराखण्ड में लागू करके उसने एक तरह से इसकी शुरूआत कर दी है। अब इसका हल्ला वह असम में मचा रही है। वहां मुसलमानों को हैरान-परेशान करने के लिए हिमंत विस्वा सरमा एक से बढ़कर एक नयी-नयी तरकीबें निकालता रहता है।
‘एक देश-एक चुनाव’ हिन्दू फासीवादियों के अलावा इनके आका अडाणी-अम्बानी-टाटा जैसी एकाधिकारी घरानों की भी चाहत है। समय-समय पर होने वाले चुनाव इन्हें अपनी लूट में बाधा दिखाई देते हैं। अगर सरकार गिरती, बनती-बिगड़ती है तो इनका गणित गड़बड़ा जाता है। इन्हें नयी सौदेबाजियां करनी पड़ती हैं। जिस ‘‘विकास’’ का हवाला मोदी एण्ड कम्पनी तथा एकाधिकारी घरानों का पालतू मीडिया रात-दिन देता है। वह क्या है? वह भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के साथ भारत के मजदूरों-किसानों का निर्मम शोषण है। समय-समय पर होने वाले चुनावों के समय पार्टियों को चुनाव जीतने के लिए लोक-लुभावन घोषणाएं करनी पड़ती हैं। इससे और बहुत कुछ होता हो या न होता हो पर कुछ राहत तो आम जनता को मिल ही जाती है। ‘एक देश-एक चुनाव’ पार्टियों की आपसी होड़ पर ही कुछ रोक लगा देगा। लोक लुभावन योजनाएं पार्टियों की चाहत नहीं चुनाव जीतने की मजबूरियां रही हैं।
और जहां तक चुनाव में होने वाले खर्च का सवाल है वह एक झूठा मामला है। चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा भाजपा ही खर्च करती है। पिछले तीन लोकसभा चुनाव में भाजपा का खर्च अविश्वसनीय स्तर तक जा पहुंचा है। 2024 में आम चुनाव में भाजपा का खर्च करीब-करीब एक लाख करोड़ रुपये के बराबर था। मोदी एण्ड कम्पनी को यदि चुनाव में खर्च की इतनी ही चिंता है तो अपने खर्चों में उन्हें लगाम लगानी चाहिए। और इनके पास इतना पैसा कहां से आता है। वहीं से आता है जो इनके आका हैं। एकाधिकारी घराने ही हैं जो इन्हें चुनाव लड़ने के लिए बेहिसाब पैसा देते हैं। कौन रोकता है इन पार्टियों को चुनाव में पैसा कम खर्च करने से?
‘एक देश-एक चुनाव’ के सबसे बड़े पैरोकार बने एकाधिकारी घरानों और उनके पालतू मीडिया को लोकतंत्र-गणतंत्र की एक रत्ती भी चिंता नहीं है। उन्हें एक ऐसी शासन व्यवस्था चाहिए जिसमें उनके हितों के अनुरूप तेजी से नीतियां बनें और उतनी ही तेजी से लागू हो जायें। और शासन का असली मतलब इनके लिए तब है जब इनके हितों में बाधा एक तो पड़ने न दी जाए और बाधा आये तो बाधा डालने वालों को ‘गुड गवर्नेंस’ के नाम पर तुरन्त निपटा दिया जाए। समय-समय पर होने वाले चुनाव और चुनाव के नाम पर आचार संहिता इन्हें अपनी लूट-खसोट में बाधा दिखाई देते हैं। इन्हें लगता है कि चुनाव में सरकारी पैसा खर्च होता है। ये पैसा ‘विकास’ में लगाया जाना चाहिए। और ये देश का कैसा विकास कर रहे हैं इसके नजारे आये दिन मजदूरों की दुर्घटनाओं में मौत तथा किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आते रहते हैं। अभी ही असम में कोयला खदान में, छत्तीसगढ़ में एक फैक्टरी में विस्फोट और उत्तर प्रदेश के कन्नौज में ‘प्लेटफार्म’ निर्माण के दौरान मजदूर मारे गये हैं। ऐसा क्यों होता है कि मजदूर इस तरह से मारे जाते हैं। सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों की ‘कास्ट’ (लागत) कम करने के लालच की वजह से ऐसा होता है। मजदूरों को सुरक्षा उपकरण तक नहीं दिये जाते हैं।
सच्चाई यह है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ की पैरोकारी भारतीय समाज में लोकंतत्र के विकास या गणतंत्र को मजबूत करने की मंशा से नहीं बल्कि अधिनायकवादी तंत्र बनाने की मंशा से की जा रही है। एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों और हिन्दू फासीवादियों की जुगलबंदी अपने घृणित हितों को साधने के लिए इसकी पैरोकारी कर रही है। संघीय ढांचे को अतीत में पहले ही काफी नुकसान पहुंचाया जा चुका है अब उसको एक साजिश के तहत केन्द्रीकृत ढांचे में बदलने की कोशिश है।
हिन्दू फासीवादी जो कर रहे हैं उसका भविष्य में क्या नतीजा निकलेगा। इसका नतीजा यह निकलेगा कि भारतीय समाज के बुनियादी अंतरविरोध तीखे से तीखे होते जायेंगे। और इस तरह से ये अपनी चिता खुद ही सजा रहे हैं। और यदि भारत के मजदूर-मेहनतकश जाग गये और उन्होंने अपनी एकजुटता कायम कर ली और फिर सही वक्त पर सही कदम उठा लिये तो भारतीय समाज के इन दो बड़े दुश्मनों से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा भी मिल जायेगा।