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8 मार्च : अंतर्राष्ट्रीय मजदूर महिला दिवस
पिछले दिनों खबर आयी कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक महिलाएं भारत में आत्महत्या करती हैं। यह खबर ऐसी नहीं जान पड़ी कि किसी चैनल के प्रवक्ताओं को इसने उद्वेलित-व्यथित कर दिया हो। और न किसी राजनैतिक पार्टी ने इस खबर को इस लायक समझा कि वह इसे एक मुद्दा बना दे।
भारत महिला आत्महत्या के मामले में ही नहीं बल्कि कई अन्य मामलों में या तो अव्वल है या फिर पहले कुछ, सबसे बुरे देशों की सूची में है। बलात्कार व यौन हिंसा, दहेज हत्यायें, भ्रूण हत्यायें, पारिवारिक प्रतिष्ठा के नाम पर हत्यायें, प्रसव के दौरान मृत्यु, कुपोषण के कारण मृत्यु, साम्प्रदायिक दंगों के दौरान बलात्कार व हत्यायें आदि यानी उपरोक्त के बारे में जैसे ही पूरी दुनिया में कुछ तथ्य खोजे जायेंगे तो भारत को अव्वल पायेंगे। यह सब क्या है?
हमारा देश एक तरह से महिलाओं की कत्लगाह बना हुआ है। यह सब एक तरह से नरसंहार की तरह है। फिर भी हर तरफ चुप्पी है। खामोशी है।
कभी-कभी ये खामोशी टूटती है जब महिलाओं के साथ अत्याचार की वीभत्सता चरम पर पहुंच जाती है। जैसा कुछ वर्ष पूर्व ‘निर्भया काण्ड’ में हुआ था। ऐसे ही कुछ खामोशी कभी शिमला, कभी मंदसौर में टूटती है। पर कभी-कभी ही। अपराधी पकड़े गये, कानून ने अपना काम किया और समाज फिर वहीं जहां वह था।
यह एक सच्चाई है कि आत्महत्या के मसले हों या फिर नृशंस हत्याओं के, इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हिस्से मजदूर, किसान और निम्न मध्यम वर्ग से सम्बन्धित हैं। और हमारे देश के शासक, मीडिया, अदालतें यानी पूरी व्यवस्था इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्या, हत्याओं पर खामोशी ओढ़े रहती है। अधिक से अधिक हत्याओं को ‘लॉ एण्ड ऑर्डर’ की समस्या मान लिया जाता है। कुछ सिरफिरे अपराधियों की करतूत की तरह पेश किया जाता है।
यह क्यों न कहा जाये कि यह व्यवस्था महिला विरोधी है। मजदूर-मेहनतकशों की विरोधी है। दलितों-आदिवासियों-गरीब मुसलमानों व ईसाईयों की विरोधी है। यह क्यों न कहा जाये?
यह व्यवस्था निरन्तर ऐसे अपराधियों को निर्मित करती है जो महिलाओं की हत्यायें करते हैं। उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर कर देते हैं। ये अपराधी समाज का कोई ऐसा वर्ग या तबका नहीं हैं, जहां ये न पैदा होते हों।
अति धनी उच्च वर्ग से लेकर समाज की तलछट तक। शासक वर्ग से लेकर शासित तक। मंत्री से लेकर संतरी तक, संसद-विधानसभा में कानून बनाने वाले, कानून को लागू करने वाले, कानून को आधार बनाकर लड़ने वाले वकीलों और न्याय सुनाने वाले न्यायाधीश यानी आप कहीं भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा, अपराध करने वालों को पा सकते हैं। गणमान्य, सफेदपोश हर जगह आप को ऐसे अपराधी, सामाजिक पशु मिल सकते हैं। यानी पूरा समाज ही इस भयानक रोग से ग्रसित है।
फिर-फिर विचार कीजिये, फिर-फिर सवाल उठेगा कि हमारा समाज ऐसा क्यों हो गया है।
रोंगटे खड़ी करने वाली खबरें आये दिन अखबारों में प्रकाशित होती रहती हैं जिनमें 6 माह के शिशु से लेकर अस्सी-नब्बे साल की वृद्धा को यौन हिंसा का शिकार बनाया जाता है। इस मामले में मनुष्यों ने पशु जगत को भी पीछे छोड़ दिया है। पशुओं में भी ऐसा व्यवहार जीव वैज्ञानिकों ने नहीं पाया है। पशुओं का यौन व्यवहार प्रकृति के नियमों से संचालित है और वहां वैसा कुछ नहीं पाया जाता है जो मानवीय समाज में घट रहा है। किसी भी जीव प्रवर्ग में इस तरह से मादा प्रजाति का संहार न तो कभी किया जाता है और न किया गया है जैसा भारत सहित दुनिया में हो रहा है।
महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, बलात्कार और हत्यायें हों या फिर जीवन से क्षुब्ध, परेशान, हताश महिलाओं की आत्महत्या का मसला हो, पूरी दुनिया में कोई देश नहीं जो इसका अपवाद हो। सं.रा.अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों से लेकर भारत, ब्राजील, द.अफ्रीका हर कहीं महिलायें इन त्रासदियों से गुजर रही हैं। पूरी दुनिया के लिये कुछ बातें सामान्य हों पर इस मामले में भारत सबका सिरमौर है। यह बातें पूरी दुनिया की समाज व्यवस्था के चरित्र पर सवाल खड़ा करती हैं।
महिलाओं के खिलाफ इतने बड़े पैमाने पर हिंसा या महिलाओं द्वारा आत्महत्या अति आधुनिक परिघटना अधिक है। यद्यपि जब से समाज में वर्गों की उत्पत्ति हुयी तब से स्त्रियों के खिलाफ हिंसा शुरू हो गयी थी। भारत के इतिहास में ऐसी घटनाएं भरी पड़ी हैं। सामंती समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पूर्व से बढ़ चुकी थी। संस्थागत रूप ग्रहण कर चुकी थी; परन्तु इक्कीसवीं सदी आते-आते इसने अभूतपूर्व रूप धारण कर लिया है। इतने बड़े पैमाने पर हत्यायें कभी नहीं हुयीं। और महिलाओं के द्वारा आत्महत्या मुख्य तौर पर सड़ते-गलते पूंजीवादी समाज की विशेषता बन चुकी है।
कोई कह सकता है कि आत्महत्यायें सिर्फ स्त्रियां ही नहीं करतीं, पुरुष भी करते हैं। जवान, किशोर स्त्रियां ही नहीं जवान पुरुष भी करते हैं। ऊपरी तौर पर यह बात ठीक है परन्तु स्त्री-पुरुष में तुलना करने पर यह आंकड़ा और चरित्र में बहुत भिन्नता है। वैसे तो दोनों ही तरह की आत्महत्या के पीछे वर्तमान समाज में बढ़ता अलगाव, निराशा, क्षोभ, भविष्यहीनता, विकल्पहीनता, आस्था का संकट, आदि सामान्य कारण हैं। स्त्रियों के सन्दर्भ में उनका सामन्ती पुरुष प्रधान मानसिकता से उपजने वाले भीषण अत्याचार : पर्याप्त दहेज न ला पाना, पुत्र को जन्म न देना, तलाकशुदा-परित्यक्त होना, पति या परिवार द्वारा धोखा, भीषण किस्म के यौन अपराध, लगातार निकट या परिचितों द्वारा बलात्कार या यौन शोषण, आदि-आदि होते हैं।
हत्या और आत्महत्या दोनों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं होता है। दोनों ही समाज व्यवस्था के चरित्र पर सवाल खड़े करते हैं। दोनों ही साबित करते हैं कि शासन करने वाले लोग जालिम, क्रूर, निकम्मे हैं। और समाज पतन की पराकाष्ठा की ओर बढ़ रहा है।
एक भी हत्या, आत्महत्या का होना समाज के सोचने, व्यथित होने और समाज को बदलने की वजह बन सकता है; परन्तु यहां तो एक तरह से महिलाओं का नरसंहार चल रहा है। गर्भ में आने से लेकर जीवन के किसी भी मोड़ पर उसकी हत्या की जा सकती है। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की जा सकती है कि वह आत्महत्या कर ले। उसे हिंसा का शिकार बनाया जा सकता है, कभी भी, कहीं भी।
ये सब बातें उस वक्त आपकी निगाहों के आगे से गुजरेंगी जब दुनिया के पैमाने पर ‘महिला दिवस’ को मनाने की तैयारियां चल रही होंगी। देश के प्रधानमंत्री, मीडिया, बाजार, शहर-शहर में ‘महिला दिवस’ के समय नकली-झूठी बातों की भरमार होगी। जुमले, नारे उछाले जा रहे होंगे। ‘महिला सशक्तिकरण’ जैसे दिखावटी कार्यक्रम हों, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘आज का दिन महिलाओं के नाम’ जैसी बातें हों, हर जगह ऐसी बातों का तिलिस्म खड़ा किया जायेगा। जिसके पीछे वह सच्चाई छुप जाये जिसकी ऊपर चर्चा की गयी है। सामाजिक अपराधी ही सामाजिक मुक्ति का नारा सबसे जोर से लगाते मिल जायेंगे। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला मुक्ति दिवस’ की 8 मार्च 1910 की मुक्ति के संघर्ष की घोषणा को नकली नारों, कार्यक्रमों से भर दिया है। और महिलाओं को गुलाम बनाने वाली, सामाजिक अपराधी पैदा करने वाली व्यवस्था के चरित्र, प्रकृति को इन झूठी बातों, नारों, कार्यक्रमों से ढंक दिया है। ताकि कोई पूंजीवाद के विनाश की बात न करे। समाजवाद की आवश्यकता को सिद्ध न करे। कोई यह न कह सके कि महिलाओं की मुक्ति के लिये आवश्यक है कि वर्तमान व्यवस्था की ईंट से ईंट बजा दी जाये। क्रांति की ऐसी ज्वाला पैदा की जाये जिसमें वह सब कुछ भस्म हो जाये जो स्त्रियों की गुलामी को तय करता है। उसके खिलाफ संगठित, संरक्षित, संस्थागत हिंसा को जन्म देता है।
क्रांतियां, मुक्ति शासक वर्ग तोहफे में नहीं देता है। इसके लिये तो उन्हें ही आगे आना होगा, जिन्हें मुक्ति की चाह है। क्रांति की दरकार है। क्रांतियों, मुक्ति के निशाने पर तो शासक वर्ग ही होगा।
जाहिर है इतिहास की वर्तमान गति बताती है कि भारत में, पूरी दुनिया में क्रांति की, मुक्ति की ध्वजवाहक समाज की सबसे शोषित-उत्पीड़ित महिलायें मजदूर महिलायें ही होंगी। उनका इतिहास में अवतरण ही अब मानव मुक्ति की, बेहतर नये समाज की शर्त है।
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