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आठ मार्च दुनिया भर की मजदूर महिलाओं का अंतर्राष्ट्रीय त्योहार है। इस दिन पूरी दुनिया में मेहनतकश महिलायें सड़कों पर उतर कर अपनी गुलामी की जंजीरें तोड़ फेंकने का संकल्प लेती हैं। वे पुरुष मजदूरों के साथ मिलकर गुलामी के हर रूप को मिटाने और इस हेतु पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को इतिहास के अजायबघर में पहुंचाने का संकल्प लेती हैं।<br />
1893 में दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने सभी महिलाओं को मताधिकार की मांग का प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद इस इंटरनेशनल की देखरेख में 1907 में समाजवादी महिलाओं का पहला व 1910 में दूसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इस दूसरे सम्मेलन ने महिलाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने का निर्णय लिया। बाद में न्यूयार्क की गारमेण्ट मजदूर महिलाओं के जुझारू प्रदर्शन की याद में इसे 8 मार्च की तारीख प्रदान की गयी। <br />
पर महिला संघर्षों का इतिहास कहीं अधिक पुराना है। 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में भोजन को लेकर हुए दंगों में महिलायें बढ़ चढ़ कर शामिल हुईं। इन दंगों में मेहनतकश मजदूर आबादी भूख से त्रस्त होकर खाने का सामान दुकानों से लूट लेती रही है। बाद में इसी तरह के दंगे आयरलैण्ड, बेल्जियम, जर्मनी व अमेरिका में भी हुए। जिनमें से कई दंगों का नेतृत्व मेहनतकश महिलाओं ने किया। <br />
विश्वविख्यात 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में भले ही इसके विचारकों ने महिलाओं की बराबरी की मांग पेश नहीं की पर इस क्रांति की अनुगूंज ने महिलाओं की पहलकदमी खोल दी। अक्टूबर 1789 को महिलाओं का वर्साई मार्च फ्रांसीसी क्रांति के शुरूआती दिनों की महत्वपूर्ण घटना बन गया। यह मार्च 5 अक्टूबर 1789 को पेरिस में महिलाओं के महंगाई व रोटी की कमी को लेकर हो रहे दंगे से शुरू हुआ। महिलाओं के इस जमावड़े को रोकने के जब प्रयास हुए तो महिलाओं के समर्थन में हजारों औरतों की भीड़ इकट्ठा हो गयी और उसने वर्साई महल की ओर मार्च शुरू कर दिया। उन्होंने पुलिस से झड़पें झेलते हुए लुई सोलहवें के समक्ष अपनी मांगें जोरदार तरीके से उठायी। इसके अगले ही दिन भीड़ ने राजा, उसके परिवार व संसद सदस्यों को अपने साथ पेरिस आने पर मजबूर कर दिया। इस तरह महिलाओं का यह मार्च राजा की एकछत्र सत्ता को तोड़ने की महत्वपूर्ण घटना बन गया। इस मार्च की शुरूआत महिलाओं ने पुरुषों को कायर करार देते हुए खुद पहल लेने के रूप में की। इसके बाद 1793 में राजशाही के खात्मे के वक्त महिलायें फिर से प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा थीं। <br />
1871 के पेरिस कम्यून में महिला मजदूर पुरुष मजदूरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडीं। महिलाओं के जुझारू प्रदर्शन ने सेना को पेरिस के हथियार गृह पर कब्जा करने से रोक दिया। <br />
19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरूआत में महिलायें अपने लिए सार्विक मताधिकार के एजेण्डे पर लड़ रही थीं। इसी समय फैक्टरियों में काम करने वाली महिला मजदूर एक के बाद एक हड़तालों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थीं। <br />
यही वह समय था जब बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन से अलग होकर सर्वहारा नारी आंदोलन एक स्वतंत्र शक्ति बनने लगा। बुर्जुआ नारीवादी संघर्ष की महिला नेता पूूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में कुछ सुधारों के जरिये बुर्जुआ महिलाओं को कुछ अधिकारों के लिए लड़ रही थीं। वे पूंजीवाद समर्थक थीं। जबकि सर्वहारा महिला आंदोलन मजदूर महिलाओं की मुक्ति के लिए पूंजीवाद के नाश व समाजवाद की स्थापना के उद्देश्य के इर्द गिर्द लामबंद हो रहा था। 1907 व 1910 के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन इसी धारा के महिला मजदूरों के सम्मेलन थे। यह धारा पुरुष मजदूरों के साथ मिलकर पूंजीवाद विरोधी क्रांति में मजदूर महिलाओं की मुक्ति देखती थी। <br />
इस सबकी शुरूआत मजदूर वर्ग के महान नेता माक्र्स व एंगेल्स द्वारा महिलाओं की गुलामी के कारणों को सामने लाने से हुई। खासकर एंगेल्स की कृति ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ ने महिलाओं की गुलामी व मुक्ति की ऐतिहासिक प्रक्रिया को सामने ला दिया। <br />
इस पुस्तक में एंगेल्स बताते हैं कि निजी सम्पत्ति व एकनिष्ठ परिवार के आगमन के साथ ही महिलाओं की गुलामी की शुरूआत हुई। निजी सम्पत्ति पर पुरुषों के कब्जे व उसकी इस सम्पत्ति को अपनी जायज औलाद को सौंपनेे की इच्छा महिलाओं को ढेरों बंधनों में ढकेलने वाले एकनिष्ठ परिवार के पैदा होने का सबब बनी। इसके साथ ही एंगेल्स इस तथ्य को भी सामने लाते हैं कि महिलाओं की मुक्ति के लिए समस्त नारी जाति का सार्वजनिक उत्पादन प्रक्रिया में प्रवेश व घरेलू काम काजों के भी सार्वजनीकरण करना जरूरी पूर्वशर्त हैं। एंगेल्स आगे बताते हैं कि पूंजीवादी आधुनिक उद्योग मुनाफे के लिए सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में महिलाओं-बच्चों को उत्पादन प्रक्रिया में खींच लाता है और इस तरह महिलाओं की मुक्ति का आर्थिक आधार तैयार करने लगता है। क्योंकि पूंजीवादी उद्योगों में घरेलू कामों को भी सार्वजनिक स्वरूप देने की प्रवृत्ति होती है। <br />
पर एंगेल्स साथ ही इस तथ्य को भी सामने लाते हैं कि महिलाओं के सामाजिक उत्पादन में प्रवेश को पूंजीवाद उनकी मजबूरी बनाकर कुछ इस तरह उत्पन्न करता है कि महिलायें यदि उत्पादन में भागीदारी करती हैं तो परिवार के प्रति कर्तव्यों को पूरा नहीं कर पातीं और यदि परिवार के प्रति कर्तव्यों को पूरा करती हैं तो सामाजिक उत्पादन में भागीदारी नहीं कर पाती हैं। <br />
इसलिए एंगेल्स महिलाओं की पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली द्वारा क्रूरतापूर्वक मुक्ति के बरक्स ऐसी सामाजिक क्रांति की आवश्यकता को सामने लाते हैं जो अधिक तेजी से, व्यापक उपायों के जरिये महिला मुक्ति की राह खोलेगी। यह क्रांति पूूंजीवादी समाज को खत्म कर समाजवादी समाज स्थापित करेगी जिसका नेतृत्व मजदूर वर्ग करेगा। <br />
इस तरह नारी मुक्ति खासकर सर्वहारा नारी मुक्ति का प्रश्न पूंजीवादी विरोधी क्रांति के साथ जुड़ गया। इसी जमीन पर खड़े होकर सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन से अलग हो गया। बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन अपने हित पूंजीवाद में ही देखता है। <br />
प्रथम विश्व युद्ध के वक्त जब साम्राज्यवादी अपनी लूट के बंटवारे के लिए आपस में संघर्षरत हो गये और अपने-अपने देश में अंधराष्ट्रवादी माहौल बनाने लगे तो बड़े पैमाने पर कई देशों में सर्वहारा महिलाओं ने युद्ध का विरोध करते हुए अपने पूंजीपति वर्ग के खिलाफ प्रदर्शन किये। रूस में 1917 के महिला दिवस के प्रदर्शन से फरवरी क्रांति की शुरूआत हो गयी थी। बाद में अक्टूबर क्रांति के जरिये रूस में सत्ता पर मजदूर वर्ग ने कब्जा कर समाजवाद के निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाये। <br />
सर्वहारा महिलाओं के उलट बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन अपने-अपने बुर्जुआ वर्ग के पीछे लामबंद हो गया व अंधराष्ट्रवाद का प्रचार करने लगा। द्वितीय इण्टरनेशनल की तमाम सामाजिक जनवादी पार्टियां भी बुर्जुआ वर्ग के झांसे में आ पतित हो गयीं। इन पार्टियों का बड़ा हिस्सा अपने बुर्जुआ वर्ग व युद्ध के समर्थन में खड़ा हो गया या तटस्थ हो गया। पर इन पार्टियों का एक छोटा हिस्सा सही सर्वहारा नीति पर चला और उसने नई पार्टियों का गठन कर युद्ध का विरोध जारी रखा। इस युद्ध के वक्त सही सर्वहारा नीति का परिचय रूस की बोल्शेविक पार्टी ने दिया जिसने युद्ध का क्रांति के जरिये अंत करने की राह दिखाई। <br />
सोवियत समाजवादी समाज ने महिलाओं को न केवल पुरुषों से बराबरी के अधिकार कानूनी रूप में दिये बल्कि उनको व्यवहार में भी उतारा। जीवन के हर क्षेत्र में महिला-पुरुष बराबरी सुनिश्चित की गयी। सोवियत संघ में मजदूरों व मेहनतकश महिलाओं की बेहतर स्थिति ने इसे दुनिया भर के स्त्री-पुरुष मजदूरों के संघर्ष का लक्ष्य बना दिया। सोवियत संघ ने दुनिया भर में न्यायपूर्ण साम्राज्यवाद विरोधी पूंजीवाद विरोधी संघर्षों को हर तरह से मदद की। <br />
साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में भी महिलाओं ने यादगार भूमिका अदा की। अफ्रीका-एशिया-लैटिन अमेरिका में संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर भागीदारी की। <br />
महिलाओं के इन संघर्षों के साथ-साथ सोवियत रूस में महिलाओं की बेहतर स्थिति के दबाव में पूंजीवादी राज्यों को भी धीरे-धीरे महिलाओं को सार्विक मताधिकार से लेकर कानूनी तौर पर स्त्री पुरुष बराबरी की तमाम घोषणायेें करनी पड़ीं। <br />
आज साम्राज्यवादी मुल्कों के साथ तीसरी दुनिया के भी कुछ देशों में महिलाओं को कानूनन बराबरी के अधिकार हासिल हो चुके हैं पर कानूनी बराबरी के उलट वास्तविक बराबरी से महिलायें इन पूंजीवादी समाजों में कोसों दूर हैं। इस कानूनी बराबरी का उपयोग केवल सम्पत्तिवान महिलायें ही कर पा रही हैं और मजदूर महिलायें कम या ज्यादा जीवन के हर क्षेत्र में दोहरे शोषण-उत्पीड़न को झेलने को मजबूर हैं। <br />
साम्राज्यवादी मुल्कों में कानूनन बराबरी को हासिल करने के पश्चात बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रवक्ता बन गया है। वह स्त्री व पुरुषों के बीच प्राकृतिक तौर पर बराबरी न होने और इसीलिए कभी वास्तविक बराबरी न होने की बकवास करने लगा। वह स्त्रियों को पुरुषों के बहिष्कार की शिक्षा देने लगा। इस तरह इन देशों में यह धारा बहुसंख्यक महिलाओं के हितों से दूर बुर्जुआ महिलाओं में सिमटती गयी।<br />
परन्तु तीसरी दुनिया के ढेरों मुल्कों में अभी स्त्री-पुरुषों की बराबरी सभी कानूनी क्षेत्रों में हासिल नहीं हो पाई है। इन मुल्कों में तमाम तरह के सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों का बोलबाला महिलाओं के जीवन को दूभर बनाये हुए है। <br />
हमारे देश भारत में भी महिलाओं के संघर्षों का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सावित्री बाई फुले के रूप में महिला शिक्षिका से लेकर आजादी की लड़ाई में अनगिनत महिलायें शहीद हुईं। क्रांतिकारी धारा के भगत सिंह के हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना में दुर्गा भाभी सरीखी महिलायें शामिल थीं तो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में फांसी पाने वालों में महिलाओं की संख्या अच्छी खासी थी। <br />
तेलंगाना व तेभागा जनसंघर्षों में महिलायें, पुरुषों के साथ बढ़ चढ़ कर भागीदारी कर रही थीं। आजादी के बाद भी महिलायें आपातकाल विरोधी संघर्ष, दहेज व सती प्रथा विरोधी संघर्ष, भाषाई राज्यों के संघर्ष, कश्मीर-उत्तर पूर्व की उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं के संघर्ष, उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के संघर्ष के साथ-साथ ट्रेड यूनियन संघर्षों में हिस्सेदारी करती रही हैं। आज हमारे देश में नारी आंदोलन की शासक वर्गीय, संशोधनवादी, एनजीओ वादी व क्रांतिकारी कई धारायें हैं। इसमें क्रांतिकारी धारा ही मजदूर महिलाओं की मुक्ति की वास्तविक धारा है। <br />
शासक वर्गीय धारा के सबसे प्रतिक्रियावादी तत्व भाजपा के रूप में सत्ताशीन हो चुके हैं। मोदी के नेतृत्व में कायम सरकार ने नारी मुक्ति संघर्ष के सामने नई चुनौतियां पेश कर दी हैं। <br />
संघ हिन्दू ब्राह्मणवादी मूल्यों पर आधारित एक ऐसा संगठन है जो फासीवादी हिन्दू राष्ट्र कायम करना चाहता है। यह संविधान को बदनाम मनुस्मृति से प्रतिस्थापित करने के मंसूबे पालता है। इनकी नजर में महिलायें बच्चा पैदा करने वाली, परिवार की सेविका से अधिक कुछ नहीं है। वे महिलाओं से हर तरह की स्वतंत्रता छीन उन्हें घरों में कैद कर देना चाहते हैं। उनकी नजर में घरेलू हिंसा महिलाओं को ठीक करने का एक उपाय है और इसलिए जायज है। भाजपा इन्हीं घृणित विचारों के वाहक संघ से जुड़ी पार्टी है। <br />
संघ हिटलर-मुसोलिनी की तर्ज पर सारे जनवादी अधिकार छीन फासीवादी राज्य कायम करना चाहता है। हिटलर-मुसोलिनी के राज्य में जर्मनी-इटली की महिलाओं को न केवल रोजगार से वंचित किया गया बल्कि बच्चे पैदा करने के लिए घरों में ढकेल दिया गया। यही सब भारत के संघी भारत में दोहराना चाहते हैं। वे नारी मुक्ति की प्रक्रिया को उलट 400 वर्ष पूर्व की सामंती गुलामी में महिलाओं को पहुंचाना चाहते हैं। देश का पूंजीपति वर्ग आज उनके साथ खड़ा है। <br />
इस तरह सर्वहारा नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष वैसी ही चुनौती आ खड़ी हुयी हैं जैसी चुनौती इटली-जर्मनी की महिलाओं ने फासीवादी शासन में झेली थी। इन दोनों देशों में फासीवाद विरोधी संघर्षों में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भागीदारी कर और फासीवाद को धूल चटाने में भूमिका अदा कर साबित कर दिया कि नारी मुक्ति की प्रक्रिया को उल्टा नहीं जा सकता। <br />
हमारे देश में भी सर्वहारा नारी मुक्ति संघर्ष को समय रहते इस फासीवादी उभार से टकराना होगा। उसे अपनी स्वतंत्रता छीनने से रोकना होगा। <br />
इसी के साथ आज कन्या भू्रण हत्या से लेकर बलात्कार तक ढेरों अपराध पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रभाव में बढ़ रहे हैं। इसलिए पितृसत्तात्मक सामंती संस्कृति के साथ साम्राज्यवादी पतित संस्कृति को भी नारी मुक्ति संघर्ष को अपने एजेण्डे में लेना होगा। <br />
मेहनतकश महिलाओं के साथ हर हिंसा-जुल्म को अपना एजेण्डा बनाते हुए शासक वर्गीय महिला संगठनों-संशोधनवादियों व एनजीओ के झण्डे तले लामबंद ढेरों गरीब मेहनतकश महिलाओं को क्रांतिकारी सर्वहारा महिला मुक्ति की धारा को अपने झण्डे तले लाना होगा। उन्हें मेहनतकश महिलाओं को बारम्बार यह लक्ष्य याद दिलाना होगा। कि मेहनतकश महिलाओं की मुक्ति पूंजीवाद साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति के बगैर असम्भव है। कि समाजवाद में ही मेहनतकश महिलायें वास्तविक मुक्ति हासिल करेंगी। <br />
निश्चय ही भारत में क्रांतिकारी सर्वहारा मुक्ति संघर्ष इसी दिशा में आगे बढ़ेगा और सभी चुनौतियों को निर्णायक ढंग से जवाब देगा। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस इसी संकल्प को लेने का दिन है।