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8 मार्च दुनियाभर की कामगार महिलाओं के संघर्षों का प्रतीक दिवस है। आज शासक वर्ग इस दिवस की संघर्षो भरी परंपरा को धूमिल कर इसके स्थान पर इसे ‘फादर्स डे’, ‘मदर्स डे’ सरीखा महिलाओं को ग्रिटिंग कार्ड देने, उन्हें गिफ्ट देने सरीखे उपभोक्तावादी रंग में रंगने को तुला है। कई उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियां तो 8 मार्च के करीब आते-आते अपने विज्ञापनों को उसके इर्द-गिर्द केंद्रित करने लगती हैं तो वह दिन दूर नहीं जब ‘वैलेंटाइन डे’ की तरह ‘वूमंस डे’ के गिफ्ट पैक बाजार में उतर चुके होंगे। संघर्षों की विरासत को धूमिल करने का काम केवल कंपनियां ही नहीं, सरकारें, पूंजीपति, पूंजीवादी पार्टियां, शासक वर्गीय महिलाएं, एन.जी.ओ. व इनके साथ गुंथे हुए बुर्जुआ नारीवादी, सुरधारवादी संगठन भी कर रहे हैं। ऐसे में इस दिवस को, सर्वहारा नारी आंदोलन को संघर्षों की राह पर आगे बढ़ने के लिए अपने इन सभी विरोधियों को पीछे ढकेलना होगा।<br />
अगर महिला संघर्षों के अतीत पर एक दृष्टि डालें तो इसमें कोई शक नहीं है कि बुर्जुआ नारी आंदोलन ही इतिहास के रंगमंच पर पहले अवतरित हुआ। पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की स्थापना व इन्हें स्थापित करने के लिए हुई पूंजीवादी जनवादी क्रांतियों व अन्य राजनैतिक आंदोलनों ने ही महिलाओं को इस ओर धकेला कि वे संगठित हों, पुरूषों के बराबर हकों की आवाज उठा सकें। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के रचनाकारों-सिद्धांतकारों-नेताओं ने भले ही स्वतंत्रता-समानता-भाईचारे का नारा लगाते हुए इसे महिलाओं के जीवन पर भी लागू करने के बारे में नहीं सोचा परंतु इस क्रांति की अनुगूंज ने ढेरों महिलाओं के जेहन में अपने लिए स्वतंत्रता-समानता-भाईचारे की इच्छा जरूर पैदा कर दी। पूंजीवाद के आगमन के साथ सामाजिक उत्पादन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने भी इस बात में मदद की कि महिलाएं घर की चारदिवारी लांघकर अपने लिए बराबर हकों की मांग कर सकें। परिणामतः महिलाएं संगठित होने लगीं और महिलाओं व पुरूषों के जीवन के हर क्षेत्र में कानूनी व सामाजिक बराबरी की आवाज उठाने लगीं।<br />
सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान पूंजीपति वर्ग जिस हद तक प्रगतिशील था उस हद तक बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन भी शुरूआती दौर में प्रगतिशील भूमिका में था। इस आंदोलन की नेतृत्वकर्ताओं को विश्वास था कि पूंजीवाद के भीतर समूचा महिला समुदाय कानूनी व सामाजिक बराबरी हासिल कर सकता है। वे समाज के भीतर वर्ग संघर्ष या वर्ग अंतर्विरोधों से इंकार करती थीं। जाहिर है पूंजीवादी समाज में ऊपरी वर्गो की महिलाएं ही पुरुषों के अनुरूप बराबरी के स्तर तक पहुंच सकती थीं इसलिए इस आंदोलन के नेतृत्व में उच्च मध्यम वर्ग की महिलाएं ही प्रमुखता से थीं। हालांकि उनका आधार किसी हद तक महिलाओं के निचले वर्गों में भी था।<br />
अपनी वर्गीय सीमाओं के चलते बुर्जुआ नारी आंदोलन इस सच्चाई को नहीं देख सकता था कि पूंजीवाद पूरे समाज को दो विरोधी वर्गों पूंजीपति व मजदूर में बांटता चला जाता है। मजदूर वर्ग अपनी उजरती गुलाम की हैसियत से पूंजीवाद में मुक्ति नहीं पा सकता। इसीलिए मजदूर वर्ग की महिलाएं न तो शासक वर्गीय महिलाओं की तरह कानूनी प्रावधानों का उपभोग कर सकती हैं और न ही पूंजी की दासता से मुक्त हो सकती हैं कि उनकी मुक्ति पूंजीवाद की दासता से मुक्ति के साथ ही संभव है।<br />
बुर्जुआ नारी आंदोलन की उपरोक्त सीमा के चलते इसने प्रारंभ में जिन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया वे कहीं से भी पूंजीवाद पर चोट नहीं करते थे। ये मुद्दे परिवार-समाज-राजनीति में महिलाओं की पुरुषों से बराबरी, बच्चों के पालन-पोषण में स्त्री पुरूष की बराबर भूमिका, सम्पत्ति पर पुरुषों के सदृश अधिकार महिलाओं को भी, विवाह, सेक्स आदि में दोनों के बराबर अधिकार, अपनी मर्जी से कहीं आने-जाने, अपनी सम्पत्ति खर्च करने का अधिकार आदि मुद्दे प्रमुखता से उठते रहे। बाद में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार भी इसमें जुड़ गया।<br />
वर्ग संघर्ष को नजरंदाज करने के बावजूद अपने प्रारंभिक चरण में 19 वीं सदी के अंतिम 2-3 दशकों तक यह आंदोलन मूलतः प्रगतिशील बना रहा। सर्वहारा मजदूर महिलाओं की गुलामी को नजरंदाज करने के बावजूद इस आंदोलन के दबाव में मिले कुछ कानूनी अधिकारों का लाभ किसी हद तक मजदूर महिलाओं को भी मिला।<br />
19 वीं सदी के मध्यान्ह में फ्रांस व जर्मनी की 1848 की क्रांतियों की अनुगूंज के साथ ही इतिहास के रंगमंच पर मजदूर वर्ग की वैज्ञानिक विचारधारा का कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र के साथ आगमन हुआ। इसके बाद के अगले कुछ दशक मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग के संघर्षों में मजदूर वर्ग के संगठित हो जूझारू तेवर प्रदर्शित करने के थे। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप पूंजीपति वर्ग धीरे-धीरे अपनी प्रगतिशीलता को त्यागते हुए प्रतिक्रियावादी होता चला गया। साम्राज्यवाद के युग के आगमन और 1871 के पेरिस कम्यून व बाद में 1917 की रूसी क्रांति के साथ ही पूंजीपति वर्ग अपनी सारी सकारात्मकता खोकर प्रतिक्रियावादी, क्रांति विरोधी वर्ग बन गया।<br />
मजदूर वर्ग की वैज्ञानिक विचारधारा माक्र्सवाद के उदय के साथ ही नारी मुक्ति आंदोलन को भी नया परिप्रेक्ष्य हासिल हुआ। अब कामगार महिलाओं की मुक्ति का सवाल मजदूर वर्ग की मुक्ति के साथ जुड़ गया। 1866 में माक्र्स व एंगेल्स जब पहला इंटरनेशनल गठित कर रहे थे तब भी इस बात का उदघोष किया गया कि महिला मुक्ति संघर्षों को मजदूर वर्ग की क्रांति के साथ जुड़ा होना चाहिए। इस इंटरनेशनल में जब कुछ लोग महिलाओं से फैक्टरियों आदि में काम न कराये जाने की मांग लेकर आये तो माक्र्सवादियों ने इसका तीखा विरोध किया और कहा कि सामाजिक उत्पादन में भागीदारी महिलाओं की मुक्ति की एक जरूरी शर्त है।<br />
दूसरे इंटरनेशनल (मजदूर पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन) की 1889 में स्थापना होते-होते कामगार महिलाओं का आंदोलन व बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन दो अलग-अलग धाराओं का रूप ले चुके थे। हालांकि दोनों के कुछ तत्व एक दूसरे को प्रभावित करते रहते थे। जिसके चलते कुछ उच्च वर्ग की महिलाएं जहां मजदूर आंदोलन की ओर आकृष्ट हुई तो वहीं मजदूर महिला आंदोलन में बुर्जुआ सोच भी मौजूद थी। दूसरे इंटरनेशनल ने कामगार महिलाओं के संघर्षों को मजदूर वर्ग के साथ जोड़ते हुए भी अलग से संगठित करने की जरूरत पर बल दिया।<br />
1893 में बुर्जुआ नारी आंदोलन के कुछ सम्पत्तिधारी महिलाओं को मताधिकार के बरक्स सभी महिलाओं का मताधिकार को दूसरे इंटरनेशनल ने पारित किया। इसके बाद 1907 में समाजवादी महिलाओं का पहला व 1910 में दूसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन इंटरनेशनल की देख-रेख में हुआ। 1907 के सम्मेलन ने जहां जर्मनी की सामाजिक जनवादी पत्रिका को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका की मान्यता दी और एक सेक्रेटरी का चयन किया वहीं 1910 में महिलाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने का निर्णय हुआ। बाद में इसे न्यूयार्क की महिलाओं के जुझारू प्रदर्शन की याद में 8 मार्च की तारीख प्रदान की गयी।<br />
मजदूर वर्ग के आंदोलन की बढ़ती के साथ-साथ जैसे-जैसे पूंजीपति वर्ग का चरित्र बदलता चला गया उसी तरह बुर्जुआ नारी आंदोलन का चरित्र भी कामगार महिलाओं के आंदोलन की बढ़ती के साथ बदलने लगा। 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद तो बुर्जुआ नारी आंदोलन ने पूंजीपति वर्ग की तरह सारी प्रगतिशीलता त्याग कर प्रतिक्रियावादी क्रांति विरोधी रुख ग्रहण कर लिया। अब पूंजीवाद की रक्षा ही उसका मुख्य लक्ष्य बन गया। इसके लिए सामंती पितृसत्तात्मक संबंधों की रक्षा भी की जाने लगी।<br />
इस बीच कामगार महिलाओं के संघर्षों में प्रथम विश्व युद्ध के साथ ही एक नई सुधारवादी प्रवृत्ति ने जन्म लिया। प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व दुनिया भर के सामाजिक जनवादियों ने यह तय किया कि आसन्न युद्ध साम्राज्यवादियों के बीच युद्ध है और मजदूर वर्ग इसकी खिलाफत करते हुए अपने-अपने देशों में क्रांति का प्रयत्न करेगा। परंतु प्रथम विश्व युद्ध के 1914 में उदघोष के साथ ही रूस की बोल्शेविक पार्टी को छोड़ अधिकतर देशों के सामाजिक जनवादी मजदूर वर्ग से गद्दारी कर पूंजीपति वर्ग के पक्ष में जा ढुलके। हालांकि इन पार्टियों में एक छोटा हिस्सा क्रांतिकारी नीति का पालन करता रहा।<br />
इसके साथ ही दूसरे इंटरनेशनल की पार्टियां व उनसे निर्देशित महिला संगठनों ने सुधारवादी राह अख्तियार कर क्रांति से मुंह मोड़ लिया।<br />
रूस की बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अक्टूबर समाजवादी क्रांति के साथ ही धरती पर मजदूरों-किसानों ने ऐसा राज्य कायम किया जिसने पहले दिन से ही महिलाओं को वे सारे अधिकार प्रदान कर दिये जो पूंजीवादी समाज आज तक नहीं दे पाया। वस्तुतः सोवियत संघ में मताधिकार से लेकर समान वेतन सरीखे ढेरों अधिकार पूंजीवादी देशों को सोवियत संघ के सहयोग समर्थन से चले संघर्षों के दबाव में ही 20 वीं सदी के अलग-अलग वर्षों में देने पड़े।<br />
सोवियत संघ की सफल समाजवादी क्रांति के प्रभाव में कामगार महिलाओं का आंदोलन तीसरे इंटरनेशनल के नेतृत्व में पुनः उठ खड़ा हुआ। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की तो चीनी क्रांति में भी महिलाओं ने गौरवपूर्ण भूमिका निभायी।<br />
इसके उलट सुधारवादी महिला आंदोलन लगातार पतित होते हुए पूंजीपति वर्ग की सुरक्षा पंक्ति में तब्दील होता चला गया। 1915 में समाजवादी महिलाओं की तीसरी कांग्रेस वस्तुतः सुधारवादी कांग्रेस थी। प्रारंभ में ये कामगार महिलाओं के संघर्षों को मजदूर वर्ग से अलग-थलग कर चलाते रहे और बाद में इन्होंने न केवल क्रांति की बातें त्याग दी बल्कि अलग-अलग देशों में मौका मिलने पर पूंजीवादी सरकारों में भागीदारी भी करने लगे।<br />
सोवियत संघ में 1956 व चीन में 1976 में पूंजीवादी पुर्नस्थापना के चलते दुनियाभर की ढेरों कम्युनिस्ट पार्टियों व उनके नेतृत्व में संचालित कामगार महिला आंदोलनों ने भी संशोधनवादी-सुधारवादी राह अख्तियार कर ली। हालांकि इस सबके बावजूद क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन व कामगार महिलाओं का क्रांतिकारी संघर्ष न केवल जिंदा है बल्कि दुनियाभर में क्रांतियों की नई श्रृंखला रचने के लिए अपनी पुरानी ताकत हासिल करने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है। इसके कमजोर होने के चलते ही महिला मुक्ति आंदोलन में बुर्जुआ व सुधारवादी विचारों का प्रभाव पहले की तुलना में आज ज्यादा है। <br />
समूची 20 वीं सदी में बुर्जुआ नारी आंदोलन व सुधारवादी नारी आंदोलन अधिकाधिक पूंजीपति वर्ग की ओर ढुलकते गये हैं। बुर्जुआ नारी आंदोलन की अधिकतर मांगें 20 वीं सदी का छठा-सातवां दशक आते-आते पूंजीवादी सरकारों ने कानूनों के जरिये पूरी कर दीं। ऐसे में अब इस आंदोलन को जीवित रहने के लिए और अधिक प्रतिक्रियावाद की ओर ढुलकना पड़ेगा। इस आंदोलन को आज नारीवादी धारा अधिकाधिक इस सोच की ओर ढकेल रही है कि पुरुष व स्त्री प्रकृति द्वारा अलग-अलग निर्मित हैं अतः उनमें बराबरी संभव नहीं है। ऐसे में महिलाएं पुरुषों का बहिष्कार कर ही अपने अधिकार हासिल कर सकती हैं। वे आज पुरुषों द्वारा किये जाने वाले सभी कामों को खुद के लिए भी करने की छूट की मांग करने, पुरुष वेश्यालयों आदि की स्थापना साम्राज्यवादी मुल्कों में कर रही हैं। तमाम एन.जी.ओ., समलैंगिक संगठन आज के नारीवादी आंदोलन के प्रवक्ता बने हुए हैं। साम्राज्यवादी उपभोक्तावाद के साथ जुड़कर इनके कृत्य आज उपभोक्ता माल की कंपनियों की सेवा कर रहे है। साम्राज्यवादी संस्कृति, सेक्स, फैशन, पहनने, खाने-पीने की आजादी का नारा इन संगठनों से लगवा अपना बाजार विस्तारित कर रही हैं।<br />
सुधारवादी महिला आंदोलन भी आज पूंजीवादी घरानों द्वारा खड़े किये गये एन.जी.ओ. के खासे प्रभाव में हैं। ये महिलाओं को इसी बात की ओर धकेलते हुए कि महिला संघर्ष, मजदूर संघर्ष अलग-अलग हैं। उनकी कुछ तात्कालिक मांगों को उठाते हुए उन्हें पूंजीवाद के दायरे में कैद रखते हैं। क्रांति इनके कहीं से भी एजेंडे में नहीं है।<br />
बुर्जुआ नारी आंदोलन के एक हिस्से के बतौर एन.जी.ओ. परिघटना, सरकारी महिला संगठनों, पूंजीवादी पार्टियों के महिला संगठनों ने भी तेजी से महिलाओं के बीच आधार फैलाया है। भारत में जातिवादी-धर्म के आधार पर भी पूंजीवादी पार्टियां महिलाओं को संगठित करने में जुटी हैं। इनमें से कुछ तो महिलाओं को सामंती युग में ले जाना चाहते हैं तो बाकी छिटपुट ‘समाज सेवा’ कर पैसा बटोरने का धंधा बने हैं। पूंजीवादी घराने व सरकार दोनों ही धन वर्षा कर इन्हें अपने पक्ष में खड़ा रखते हैं। इनकी कुल भूमिका महिलाओं को गुमराह कर पूंजीवादी व्यवस्था में उनका भरोसा बनाये रखने की होती है।<br />
दुनियाभर के नारी आंदोलन की तरह भारत में भी नारी आंदोलन की तीनों धाराएं मौजूद हैं। पहली बुर्जुआ नारीवादी धारा में तमाम एन.जी.ओ. से लेकर पूंजीवादी पार्टियों के महिला संगठन, जातिवादी, धार्मिक संगठन, उत्तरआधुनिकतावादी आदि कई किस्में शामिल हैं। यही आज भारत की महिलाओं पर सर्वाधिक प्रभाव रखती हैं।<br />
दूसरी धारा सुधारवादी धारा सी.पी.आई.-सी.पी.आई.(एम.एल.) सरीखे संसदीय वामपंथियों के महिला संगठनों की है। इनका प्रभाव भी पहली धारा से कम परंतु कामगार महिलाओं में अच्छा-खासा है। ढेरों यूनियनें ये संचालित करते हैं। ये महिलाओं को उनके आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखते हुए उन्हें कुछ राहत दिलाने तक खुद को सीमित रखते हैं। पूंजीपति वर्ग व उसकी व्यवस्था को महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों-भेदभावों के लिए मुख्य दोषी ठहराने के बजाय अपने हमले का निशाना चंद अपराधियों की ओर ही रखते हैं। ये पूंजीपति वर्ग की सुरक्षा पंक्ति हैं। वक्त पड़ने पर ये केन्द्र या राज्य में सरकार चला पूंजीपति वर्ग के लायक चाकर बन सकते हैं।<br />
तीसरी धारा क्रांतिकारी धारा है जो पूंजीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग की क्रांति के साथ ही महिला मुक्ति का सवाल जुड़ा मानती है। यह महिला मुक्ति के संघर्षों को मजदूर वर्ग के दिशानिर्देशन में व उससे जोड़कर संचालित करना चाहती है। परंतु देश में इस धारा के विभिन्न संगठनों में बिखरे होने के चलते इसकी साक्षेपिक ताकत पहले दोनों से काफी कम है। परंतु यही धारा महिला संघर्षों को वास्तविक अर्थों में मुक्ति की ओर ले जा सकती है।<br />
इन धाराओं को और समझने के लिए इन धाराओं के हाल के दिल्ली रेप काण्ड व महिला दिवस को मनाने के तौर-तरीकों से और समझ सकते हैं।<br />
दिल्ली रेप काण्ड के बाद मीडिया की व्यापक कवरेज के साथ देश के बड़े शहरों व कस्बों में मध्यम वर्ग खासकर युवा आबादी सड़कों पर उतरी। कमोबेश तीनों धाराओं ने ही अपनी-अपनी राजनीति के अनुरूप इसमें भागीदारी की।<br />
पहली धारा बुर्जुआ धारा के लोगों में मुद्दे पर भिन्नताएं कही अधिक थीं। शासक वर्गीय पार्टी कांग्रेस जहां मौन थी वहीं प्रमुख विपक्षी भाजपा भी संसद सत्र बुलाने की जुबानी मांग से ज्यादा कुछ नहीं करने की स्थिति में थी। मूलतः इस धारा के एन.जी.ओ., नारीवादी संगठनों व इन पार्टियों से जुड़े छात्र व महिला संगठनों ने ही सड़कों पर लोगों का नेतृत्व किया। केजरीवाल की कंपनी भी इसमें शामिल थी। इनकी मांग शुरूआत से ही इस तरह की थी कि विपक्षी दलों व उनके संगठन सत्ताधारी कांग्रेस को कोसने में जुटे थे। वही एन.जी.ओ., नारीवादी अपराधियों को फांसी, कड़े कानूनों की मांग उछालने में जुटे थे। मध्यम वर्ग के युवाओं-युवतियों ने अपने वर्ग के अनुरूप फांसी, कड़े कानून पर ज्यादा जोर दिया व एक रूप में ये आंदोलन की मुख्य मांगों के रूप में दिल्ली से शहरों-कस्बों में फैल गयी। यहां तक कि फिल्मी हीरो-हीरोइन से लेकर पूंजीपति भी इसी मांग को अलापने लगे। ढेरों निजी कालेजों के प्रदर्शनों में छात्र, शिक्षक, प्राचार्य, मालिक सब शामिल थे।<br />
फांसी, कड़े कानून की मांग से ही आज के बुर्जुआ नारीवादी संगठनों के चरित्र को समझा जा सकता है। ये लोग उसी धारा के प्रतिनिधि हैं जो 200 वर्ष पूर्व सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष में सामंती कानूनों की खिलाफत करते हुए, किसी अपराध-समस्या का कारण सामंती समाज व्यवस्था में तलाशते थे। बुर्जुआ दार्शनिक, सिद्धांतकार अपराधियों के बनने की वजह को अपने हमले का निशाना बनाते थे। अपराधियों को सामंती कडे़ कानूनों के बजाय जेल में डाल सुधारने की सोच पेश करते थे। तब बुर्जुआ बड़ा प्रगतिशील था। वह इस तरह की बातें कर सकता था। आज वह पूर्णतया प्रतिक्रियावादी हो चुका है। ऐसे में उसके लिए समस्या से निपटने का एक ही रास्ता है अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा। कड़ा कानून यही उसका मूल मंत्र है।<br />
बलात्कार के लिए कड़ा कानून, आतंकवाद के लिए कड़ा कानून, भ्रष्टाचार के लिए कड़ा कानून- कुल जमा कड़ा कानून ही उसका मुक्तिदाता है। जबकि वास्तविकता यही है कि कड़े कानून से अपराध के होने न होने का कोई रिश्ता नहीं है। अपराध की जड़ें तो उस समाज व्यवस्था में हैं जो अपराधी पैदा कर रही है। शायद कड़े कानून की बुर्जुआ मांग के पीछे यह भी हकीकत छिपी है कि खुद पूंजीपति वर्ग तो इस कड़े कानून को खरीद कर बच ही जायेगा बाकी जनता इसकी लपेट में आती है तो आती रहे। आखिर कितना ही कड़ा कानून हो वो इस सच्चाई को तो नहीं बदल सकता कि पूंजीवाद में कानून राजसत्ता का एक अंग है और राजसत्ता एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का उपकरण है।<br />
कुल मिलाकर बुर्जुआ संगठनों के कुछेक सामंती सोच वाले तत्वों को छोड़ दें (आसाराम बाबू, आर.एस.एस. नेता आदि) तो कड़े कानून सबका रामबाण रहा। सामंती तत्वों से गठजोड़ करना दुनियाभर के प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग की आज एक आम नीति है। झटपट वर्मा कमेटी बनी। महीने भर में उसने कुछ सुझाव दिये ओर केन्द्र सरकार ने झटपट अध्यादेश जारी कर कड़ा कानून बना दिया। इस दौरान दिल्ली से लेकर पूरे देश में, थाने से लेकर खेतों में बलात्कार जस के तस होते रहे।<br />
इस तरह बुर्जुआ संगठनों ने अपराधियों को कड़ी सजा की मांग कर लोगों का भरोसा इस पूंजीवादी व्यवस्था पर बचा लिया। बावजूद इसके कि बलात्कारों में कोई कमी नहीं आयी।<br />
अब अगर सुधारवादियों की बात करें। तो सी.पी.आई., सी.पी.एम., सी.पी.आई.(एम.एल.) के ठीक-ठाक हैसियत वाले महिला संगठन हैं। लेकिन दिल्ली में जे.एन.यू. छात्र संघ को छोड़ बाकी सब रस्मी विरोध करके शांत हो गये। इनकी बातों में कड़े कानूनों की मांग बुर्जुआ संगठनों सरीखी नहीं थी। पर इसका विरोध कर पूंजीवादी व्यवस्था व उसकी संस्कृति को कठघरे में खड़े करने का इन्होंने कोई विशेष प्रयास नहीं किया। अब संसद में भी कानून के पास होते वक्त इनका ढुलमुल रवैय्या दिखाई देगा।<br />
इन संगठनों की नीति स्पष्ट है। ये क्रांति को सीधे नकारने के बजाय दूर की कोड़ी घोषित कर तात्कालिक मुद्दों पर सोचने की बात करते हैं। यह सुधारवाद ही उन्हें वहां ले जाता है जहां इनके कृत्य इनकी क्रांति की रणनीति से नंदीग्राम-सिंगूर की तरह दूर छिटक जाते हैं और ये खुद शासक वर्ग के लायक चाकर नजर आने लगते हैं।<br />
तीसरी धारा क्रांतिकारियों की धारा ने ही अपनी क्षमता भर बलात्कारों के लिए पूंजीवादी व्यवस्था उसकी साम्राज्यवादी उपभोक्तावादी संस्कृति को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। परंतु इस धारा की हैसियत व प्रभाव कम होने के चलते यह निर्णायक सुर नहीं बन सका।<br />
अब हम 8 मार्च के प्रति इन संगठनों के नजरिये को देखें। पूंजीपति वर्ग इसे पूरी तरह वैलेंटाइन डे बनाने में तुला है। अपने उत्पाद के विज्ञापन में वो महिला सशक्तिकरण से लेकर गिफ्ट देने की बात करेगा परंतु प्रदर्शन में शामिल होने को अपने यहां काम करने वाली मजदूर महिलाओं को 2 घंटे की छुट्टी देने से मुकर जायेगा।<br />
वैसे जब से 1977 में संयुक्त राष्ट्र में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मान्यता मिला तब से पूंजीपति वर्ग इसे श्रमिक महिलाओं से छीनने में जुटा है। विभिन्न पार्टियां, एन.जी.ओ. इसे बर्थ-डे पार्टी की तरह मनायेंगे, सरकारी कार्यक्रम भी कुछ इसी तरह के होंगे। वहां महिला सशक्तिकरण के नाम पर कल्पना चावला, सोनिया गांधी, इंदिरा गांधी के गुण गाये जायेंगे। यहां तक कि कुछ धनी मानी लोग गरीब महिलाओं को कपड़े-लत्ते बांटते नजर आयेंगे। इन सबमें 8 मार्च के इतिहास व संघर्षों की विरासत की भूल से भी चर्चा नहीं की जायेगी।<br />
सुधारवादी संगठन भी लाल झंडों के साथ प्रदर्शन करेंगे, क्रांतिकारी गीत गायेंगे। पर महिलाओं को वो यही समझाने का प्रयास करेंगे कि चुनाव में जीतकर ही महिलाओं के अधिकारों को वो संसद तक पहुंचा सकते हैं, कि क्रांति का रास्ता संसद के भीतर से जाता है आदि-आदि। वे महिलाओं को उनकी मुक्ति के दर्शन, उनके संघर्ष भरे इतिहास के बजाय अपने संघर्षों के गुणगान की गाथाएं सुनायेंगे।<br />
इसके उलट 8 मार्च के संघर्षों की परंपरा और उसके आज महिला मुक्ति आंदोलन के महत्व, क्रांति के साथ महिलाओं को खड़े करने का काम क्रांतिकारी धारा के संगठन ही कर सकते हैं। इस धारा की ताकत आज कमजोर व बिखरी है पर संघर्षों भरे रास्ते से गुजरकर यही समाज को क्रांति तक ले जायेंगे। इसके लिए अनथक श्रम करना होगा। बुर्जुआ व सुधारवादी धारा को चुनौती देनी होगी। संघर्ष, 8 मार्च को, फिर से संघर्षशील कामगार महिलाओं के दिवस के बतौर स्थापित करेगा तब पूंजीपति 8 मार्च से डरेगा, उसे मनाने की जुर्रत नहीं करेगा।