महिलाओं के खिलाफ हिंसा और सरकारी तंत्र की लफ्फाजी

    महिला अधिकारों तथा महिला सशक्तीकरण की तमाम बहसों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। इसके बरक्स महिलाओं के खिलाफ हिंसा का ग्राफ तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। महिलाओं के प्रति हिंसा व अन्य अपराधों की खबरें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं। <br />
    अभी हाल ही में आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में एक दम्पत्ति ने पुत्र की चाह में अपनी 6 दिन की नवजात पुत्री को अस्पताल की तीसरी मंजिल से नीचे फेंक कर मार डाला तथा आंध्र प्रदेश में ही हैदराबाद में एक नवजात कन्या शिशु को उसके पिता द्वारा कुंए में फेंक दिया गया। भण्डारा में तीन सगी बहनों (जिनकी आयु 6 से 11 वर्ष के बीच थी) के साथ बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई, उनकी लाशें कुंए में मिलीं। आगरा के तीन सितारा होटल में ठहरी विदेशी महिला पर्यटक के साथ होटल के मालिक द्वारा यौन आक्रमण का प्रयास, जिससे बचने के लिए महिला को दूसरी मंजिल से कूदना पड़ा। बिहार के पटना जिले के एक पुलिस अधिकारी ने एक महिला के साथ हुई यौन हिंसा के मामले में पीडि़ता की रिपोर्ट यह कुतर्क देकर नहीं लिखी कि 4 बच्चों की मां के साथ कौन बलात्कार कर सकता है। पीडि़त महिला की उम्र 35-36 वर्ष के लगभग है तथा उसके सबसे बड़े लड़के की उम्र 17 वर्ष है। मध्य प्रदेश के ओरछा में साईकिल से भारत भ्रमण पर निकले दम्पत्ति पर स्थानीय गुण्डों द्वारा हमला कर पति को बेहरहमी से पीटा गया तथा महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। इस दौरान उनका सामान भी लूट लिया गया। राजधानी दिल्ली में ही यौन हिंसा के खिलाफ गत वर्ष दिसम्बर में प्रबल आंदोलन के बावजूद महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा बढ़ती ही जा रही है। आंदोलन के दौरान ही महिलाओं के खिलाफ हिंसा के दर्जन से अधिक मामले प्रकाश में आये थे। 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले सप्ताह में यौन हिंसा की 8 घटनायें सामने आईं, जिनमें सामूहिक बलात्कार की घटना भी शामिल है। इन घटनाओं ने शासक वर्ग के महिला सशक्तीकरण के खोखले दावों की पोल खोल दी है। <br />
    महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के साथ ही पुत्र की चाह में कन्या भ्रूणों को नष्ट करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जो लोग भ्रूणावस्था में बच्चे के लिंग की जानकारी प्राप्त नहीं कर पाते, वहां बेटियों को जन्म लेने के बाद मार डाला जा रहा है। जहां वर्ष 1961 में 1000 पुरुषों पर 976 महिलायें थीं वहीं 2001 में 1000 पुरुषों पर 927 रह गई, जो वर्ष 2011 में और कम हो कर 914 तक पहुंच गई है। यहां यह गौरतलब है कि पिछड़े कहे जाने वाले व विकास की दौड़ में पीछे रह जाने वाले छत्तीसगढ़, उड़ीसा व झारखण्ड में 1000 पुरुषों पर 964 महिलायें हैं। जबकि विकसित तथा आधुनिक कहे जाने वाले राज्यों में लिंगानुपात में तेज गिरावट आई है। मसलन जन्म लेने वाले प्रति हजार लड़कों की तुलना में जन्म लेने वाली लड़कियों की संख्या गोवा में 920, दिल्ली में 866, हरियाणा में 830, महाराष्ट्र में 883 व गुजरात तथा पंजाब में 846 तक पहुंच गई है। <br />
    कन्या भ्रूणों को नष्ट किये जाने के अन्य आर्थिक व सामाजिक कारण भी हैं। पुरुष प्रधान मूल्यों के कारण बेटियों को जन्म से ही पराया धन माना जाता है। इसके अलावा इनके विवाह के समय खूब दान-दहेज जुटाना पड़ता है, जिसके लिए परिवार को अपना धन खर्च करना पड़ता है। जबकि पुत्र को कुलदीपक, घर का वारिस व मोक्ष दिलाने वाला माना जाता है। पुत्र सम्पत्ति को बढ़ाने वाला, कमाऊ पूत व दहेज लाने वाला माना जाता है। यदि लड़कियों ने अपनी पसंद से विवाह कर लिया समाज में परिवार को शर्मिंदा होना पड़ेगा, उनकी बेइज्जती होगी। <br />
    हमारे पुरुष प्रधान समाज में लड़कियों तथा महिलाओं को परिवार की इज्जत के साथ जोड़ कर देखा जाता है। जहां तक लड़कों का सवाल है, उनके किसी भी कृत्य से परिवार की इज्जत पर कोई आंच नहीं आती। स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के कारण लड़कियों के परिवार वाले असुरक्षित महसूस करते हैं। इसके अतिरिक्त एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तथा किसी का मनोबल तोड़ने के लिए परिवार की महिलाओं के साथ यौन हिंसा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जातिवादी व साम्प्रदायिक दंगों के शिकार सबसे अधिक महिला व बच्चे होते हैं, जिसके दौरान बच्चों की हत्या कर दी जाती है जबकि महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार तक किये जाते हैं और अक्सर ही बलात्कार के बाद उनकी भी हत्या कर दी जाती है। <br />
    पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति ने महिलाओं के शरीर को अपना माल बेचने के लिए कच्चे माल के रूप में उपयोग किया है। ऐसा करते हुए पूंजीपतियों ने महिलाओं को इंसान की हैसियत से गिराकर एक यौन वस्तु के रूप में स्थापित किया है। फिल्मों तथा विज्ञापनों में महिला शरीर का नग्न प्रदर्शन कर यौन कुण्ठाओं को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। <br />
    इसके अतिरिक्त महिलाओं को मजदूर, दलित व आदिवासी होने के कारण भी यौन हिंसा की शिकार होना पड़ता है। मजदूर मेहनतकश महिलाओं को कार्यस्थल पर भी पुरुष सहकर्मियों, ठेकेदारों व मालिकों के द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न व यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है। मजदूर वर्ग की होने के साथ-साथ यदि महिला दलित या आदिवासी है तो उसे तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा की जाने वाली दबंगई व यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है। आये दिन इन तथाकथित उच्च व दबंग जातियों द्वारा दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाने व जातिगत पंचायतों द्वारा महिला व उसके परिवार को सजा देने के रूप में महिला के साथ बलात्कार किये जाने की घटनायें अखबार की सुर्खियां बनती हैं। मजदूरों व आदिवासियों के आंदोलनों को कुचलने के लिए व उनके मनोबल को तोड़ने के लिए पुलिस व सेना द्वारा महिलाओं के साथ बलात्कार व सामूहिक बलात्कार की घटनायें भी कोई नई या अनोखी बात नहीं हैं। भारत में इसके लिए सुरक्षा बलों को देश के कई हिस्सों में आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सा) के तहत छूट अथवा सुरक्षा कवच प्राप्त है। इरोम शर्मिला के आफ्सा के खिलाफ अनशन को 12 वर्ष पूरे होने तथा आफ्सा के खिलाफ प्रबल जनमत होने के बावजूद इस कानून को केवल सेना के विरोध के कारण खत्म नहीं किया जा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम्भ भरने वालों को यह बात करते हुए इस बात की जरा भी शर्म नहीं आती कि उनके राजनीतिक निर्णय सेना के समर्थन से प्रभावित हों।    <br />
    पुरुष प्रधान मूल्य मान्यतायें हमारे समाज में तथा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में यह मानसिकता किस कदर हावी हैं इसका एक  नमूना यह है कि जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव लोक सभा में महिलाओं से छेड़छाड़ तथा उनका पीछा करने के संबंध में कानून लाये जाने का विरोध करते हुए उपहास करते हुए फरमाते हैं कि कौन लड़कियों का पीछा नहीं करता या हम में से किसने लड़कियों का पीछा नहीं किया? <br />
    जाहिर है कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के तहत महिलाओं को सुरक्षा और सम्मान नहीं मिल सकता। सरकार एवं इस व्यवस्था के कर्णधारों के द्वारा इस मुद्दे पर केवल लफ्फाजी ही की जा सकती है और वही की जा रही है। 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।