
<p style="text-align: justify;">नारी मुक्ति के सवाल को इस सरल तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है- ‘नारी के नारी होने के चलते उसके साथ भेदभाव, उसके उत्पीड़न और शोषण की समाप्ति’। लेकिन इस सरलता में ही इस सवाल की जटिलता भी छिपी है।</p>
<p style="text-align: justify;">उदाहरण के लिए आज मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग दोनों इससे सहमत हो सकते हैं। मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी तो इसकी घोषणा करते ही हैं, आज पूंजीवादी सरकारें तथा संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे उनके अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी इसकी घोषणा करते हैं। आज सारे ही 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">पर पूंजीपति वर्ग के लिए ‘नारी के नारी होने के चलते’ का वह अर्थ नहीं होता जो मजदूर वर्ग के लिए होता है। ठीक इसीलिए नारी मुक्ति का सवाल दोनों के लिए एकदम अलग-अलग हो जाता है।</p>
<p style="text-align: justify;">पूंजीपति वर्ग का ‘नारी’ से क्या मतलब होता है। वह ‘इंसान’ के उसके और भी सामान्य प्रवर्ग से समझा जा सकता है। पूंजीपति वर्ग का इंसान से आशय असल में उसके स्वयं के वर्ग के इंसान से यानी पूंजीपति वर्ग के आम व्यक्ति से होता है। जब वह ‘इंसान’ को परिभाषित करने का प्रयास करता है तो उसका मतलब ऐसे व्यक्ति से होता है जो व्यक्तिवादी है, जो प्रतियोगितारत होता है तथा जो न केवल खरीद-बेच में मशगूल होता है बल्कि वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने में मशगूल होता है। पूंजीपति वर्ग इसी पूंजीवादी व्यक्ति का अमूर्तीकरण करता है और उसे सारे मानव इतिहास पर लागू कर देता है। वह घोषित कर देता है कि इंसान की यही फितरत है कि वह केवल अपने बारे में सोचता है, वह हमेशा प्रतियोगितारत होता है। जब उसे इतिहास के हवाले से बताया जाता है कि कबीलाई समाज में या सामंती समाज में लोग ऐसे नहीं होते थे तो वह कहता है कि ऐसा इसलिए था कि वे समाज व्यवस्थाएं मानव प्रकृति के अनुरूप नहीं थीं। अब आखिर में पूंजीवाद के रूप में मानव समाज ने वह व्यवस्था हासिल कर ली है जो मानव प्रकृति के अनुरूप है। इसीलिए पूंजीवाद चाहे जितना खराब हो, वही आगे भी बना रहेगा क्योंकि वह मानव प्रकृति के अनुकूल है। यदि पूंजीवादी समाज व्यवस्था खराब नजर आती है तो इसीलिए कि स्वयं मानव ही अपनी प्रकृति से खराब है- स्वार्थी और प्रतियोगी। इसे बदलने के सारे प्रयास निरर्थक और हानिकारक होंगे।</p>
<p style="text-align: justify;">यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि पूंजीपति वर्ग ‘इंसान’ के बारे में उसी भ्रम का शिकार है जिसका शिकार हर शासक वर्ग इतिहास में रहा है। हर शासक वर्ग अपने वर्ग के इंसान को ही आदर्श इंसान और अपनी समाज व्यवस्था को आदर्श समाज व्यवस्था मानता रहा है। आदर्श ही नहीं प्रकृति या ईश्वर के अनुरूप। अभी बहुत समय नहीं हुआ जब पूंजीपति वर्ग पैदा हो रहा था और इस उभरते वर्ग को तब का शासक सामंती वर्ग अत्यन्त घृणा और हिकारत से देखता था- पैसे के पीछे पागल कला-संस्कृति से वंचित असभ्य बनिये। ऐन क्रांति से पहले फ्रांसीसी पूंजीपति वर्ग के सुयोग्य प्रतिनिधियों को सामंती तत्व अपने साथ बैठाकर खाना खिलाने लायक नहीं समझते थे।</p>
<p style="text-align: justify;">‘नारी’ के मामले में पूंजीपति वर्ग उसी धारणा का शिकार होता है। उसके लिए ‘नारी’ का आशय पूंजीपति वर्ग की नारी से होता है। इसीलिए ‘नारी समस्या’ का उसके लिए मतलब पूंजीपति वर्ग की नारियों की समस्या से होता है। ज्यादा से ज्यादा पूंजीपति वर्ग ‘नारी समस्या’ को मध्यम वर्ग की नारियों तक विस्तारित करता है। या जब मध्यम वर्ग की ‘नारी समस्या’ को प्रस्तुत करता है तो उसके लिए इसका आशय मध्यम वर्गीय नारियों की समस्या से होता है।</p>
<p style="text-align: justify;">इसके ठीक उलट मजदूर वर्ग की विचारधारा यह मानती है और यही ऐतिहासिक सच्चाई व वैज्ञानिक तथ्य है कि ‘इंसान’ कोई स्थिर या अपरिवर्तनीय इकाई नहीं है। वह केवल प्राकृतिक उत्पाद नहीं है। इंसान जितना प्राकृतिक (जैविक) है उतना ही सामाजिक भी। और समाज तो बदलता रहता है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ समाज बदलता रहा है। वह कबीलाई, गुलामी और सामंती समाज के चरणों से गुजरा है तथा आज पूंजीवादी समाज है जिसमें व्यक्तिवाद और प्रतियोगिता का बोलबाला है। चूंकि इंसान जैविक के साथ सामाजिक उत्पाद भी है इसलिए वह समाज बदलने के साथ बदलता गया है। वह कबीलाई समाज के सामूहिकता वाले इंसान से आज पूंजीवादी समाज के व्यक्तिवादी इंसान में तब्दील हो गया है। वह एक-दूसरे की मदद करते हुए मिल-जुलकर चलने वाले इंसान से एक-दूसरे की टांग खींचने वाले प्रतियोगी एकाकी इंसान में तब्दील हो गया है। इसीलिए अमूर्त तौर पर ‘इंसान’ की बात करने के बदले हमेशा यह सवाल पूछना होगा कि किस समाज का इंसान (और उसके बाद यह कि किस वर्ग, जाति, लिंग या ‘नस्ल’ का इंसान)! केवल यही सही जवाब तक ले जाएगा।</p>
<p style="text-align: justify;">इंसान के तौर पर नारियों के बारे में भी यही सवाल पूछना होगा- किस समाज की नारी और फिर किस वर्ग, जाति, ‘नस्ल’ या धर्म की नारी। यहीं से उनकी समस्या की सही पहचान तथा उसके समाधान तक पहुंचा जा सकता है। ऐसा न करने पर समस्या की गलत पहचान होगी जिससे या तो समस्या हल नहीं होगी या फिर वह नारियों के किसी खास हिस्से के पक्ष में हल होगी। इसे एक ठोस उदाहरण से समझा जा सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">मजदूर वर्ग की विचारधारा यह मानती है कि आदि काल में नारियों की गुलामी जब शुरू हुई तो उसके मूल में दो चीजें प्रमुख थीं- एक श्रम विभाजन तथा दूसरा निजी सम्पत्ति। दूसरी स्वयं पहले की ऐतिहासिक उत्पाद थी। श्रम विभाजन ही बुनियादी था पर एक बार निजी सम्पत्ति पैदा होने के बाद यह बुनियादी हो गई। श्रम विभाजन ने तब तक कबीलाई समाज में पुरुषों के बराबर भूमिका निभाने वाली नारियों को घरेलू काम से बांध दिया। वे सामाजिक श्रम से कट गईं। दूसरे जो निजी सम्पत्ति पैदा हुई वह सामाजिक श्रम का उत्पाद थी और पुरुष ही उसके मालिक बने। नारियां इससे वंचित थीं। इस निजी सम्पत्ति को अपने पुत्रों को उत्तराधिकार में सौंपने के लिए पुरुषों ने नारियों को खास तरह की पारिवारिक व्यवस्था में बांधा जो घरेलू श्रम से गुंथी हुई थी। नारियों की यह गुलामी बदलते रूपों में पूंजीवादी व्यवस्था तक चली आई है जिसकी बुनियाद में वही दो चीजें हैं- घरेलू श्रम और निजी सम्पत्ति का अभाव। यहां यह याद रखना होगा कि निजी सम्पत्ति सभी पुरुषों के पास समान मात्रा में नहीं थी। ज्यादातर सम्पत्ति थोड़े से पुरुषों के पास थी जिन्होंने शासक वर्ग के तौर पर समूची समाज व्यवस्था को अपने हित में ढाला और संचालित किया। नारियों की गुलामी इसका हिस्सा थी।</p>
<p style="text-align: justify;">पूंजीवाद में समय के साथ ये दोनों बुनियादी चीजें बदली हैं और इसी के साथ नारियों की गुलामी भी। आज समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा है (विकसित पूंजीवादी समाजों में लगभग नब्बे प्रतिशत) जो निजी सम्पत्ति से वंचित हो गया है और दूसरों के पास जाकर मजदूरी या तनख्वाह पर काम करने को मजबूर है। वह अपनी निजी सम्पत्ति के बल पर यानी उससे होने वाली आय पर जिन्दा नहीं रह सकता। वह मजदूरी या तनख्वाह वाली आय पर ही जिन्दा रह सकता है। इस तरह इन परिवारों में स्त्री-पुरुष दोनों निजी सम्पत्ति से वंचित हो गये हैं। यहां स्त्री-पुरुष दोनों बराबर इसलिए नहीं हो गये कि दोनों के पास निजी सम्पत्ति हो गई बल्कि इसलिए कि दोनों निजी सम्पत्ति से वंचित हो गये। समय के साथ स्त्रियां भी काम करने बाहर निकलीं क्योंकि ‘एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता’। स्त्रियां भी बाहर निकलकर काम करने लगीं और मजदूरी या तनख्वाह पाने लगीं। इस तरह स्त्री-पुरुष के बीच बराबरी का आधार पैदा हुआ- दोनों की सामाजिक श्रम में भागीदारी और दोनों की आय। पर इससे दोनों के बीच पूरी बराबरी नहीं पैदा हो गई। स्त्रियों के जिम्मे ज्यादातर घरेलू काम बना रहा, उनका बाहर का काम या तो निम्न गुणवत्ता वाला रहा या ‘स्त्रियोचित’ तथा उनकी मजदूरी या तनख्वाह पुरुषों से कम रही। यहां से इन नारियों के लिए ‘नारी समस्या’ ने एक खास स्वरूप ग्रहण कर लिया।</p>
<p style="text-align: justify;">दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग और खासतौर पर मध्यम वर्ग की नारियों का क्या हुआ? एक लम्बे समय तक पूंजीवाद में भी सम्पत्तिवान वर्गों की नारियां निजी सम्पत्ति से वंचित रहीं। लेकिन निजी सम्पत्ति को सारे कुछ का- सभ्यता, संस्कृति, स्वतंत्रता, इत्यादि- का आधार मानने वाले पूंजीपति वर्ग के लिए नारियों को हमेशा-हमेशा के लिए निजी सम्पत्ति से वंचित रखना संभव नहीं था। और जब सम्पत्तिवान वर्गों की नारियों ने निजी सम्पत्ति के अधिकार की मांग बुलंद की तो धीमे-धीमे पूंजीपति वर्ग को इस मांग को मानना पड़ा। आज पूंजीपति वर्ग की नारियों को निजी सम्पत्ति का अधिकार है। समय के साथ उन्होंने सामाजिक जीवन में भी प्रवेश किया। घरेलू श्रम की दासता तो उनकी पहले भी नहीं थी, हां वे घर से बंधी जरूर थीं। अब वे इससे मुक्त हो गईं। ऐसे में इन मालिक नारियों के लिए ‘नारी समस्या’ का एकदम ही अलग मतलब निकलता है। वह आज संसद व विधान सभाओं में नारियों के लिए आरक्षण तथा कारपोरेट कंपनियों के निदेशक मण्डल में पुरुषों के बराबर की भागेदारी के रूप में अभिव्यक्त होता है।</p>
<p style="text-align: justify;">मध्यमवर्गीय नारियों की बीच की स्थिति होने के चलते उनकी ‘नारी समस्या’ की भी बीच-बीच की स्थिति है। वे थोड़ी सम्पत्ति की मालिक भी हैं और तनख्वाह पर नौकरी करने वाली भी। उनमें से कुछ अभी भी घरेलू दासता में हैं तो ज्यादातर पूंजीवादी समाज में तरक्की को उद्यत। वे ‘मी टू’ की समस्या की शिकार हैं। निजी सम्पत्ति और सामाजिक श्रम में भागेदारी की समस्या के मध्यम वर्गीय नारी के लिए मजदूर नारी से अलग आयाम हैं। एक इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, अन्य पेशेवर अथवा छोटे मालिक के रूप में नारी की नारी के तौर पर वह समस्या नहीं हो सकती जो एक मजदूर या बाबू नारी की। घरेलू श्रम से वे ‘मेड’ के जरिये काफी कुछ मुक्ति पा सकती हैं।</p>
<p style="text-align: justify;">इससे स्पष्ट है कि एक मजदूर नारी, मध्यम वर्गीय नारी तथा पूंजीपति नारी की नारी होने के चलते नारी समस्या एक जैसी नहीं हो सकती। लेकिन पूंजीपति वर्ग चाहता है कि उसे एक माना जाये क्योंकि वही उसके हित में है। मध्यम वर्ग भी अंततः पूंजीवादी विचारधारा की चौहद्दी में ही सोचता है तो वह भी अक्सर इसी का शिकार हो जाता है। बल्कि नारी सवाल पर इसने एक खास और मुकम्मल स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इसे नारीवाद का नाम दिया गया है। नारीवाद नारी मुक्ति की विचारधारा है पर एक खास वर्ग की नारियों के हित में और उनके दृष्टिकोण से। यह वर्ग है मध्यम वर्ग।</p>
<p style="text-align: justify;">नारीवाद घोषित करता है कि सारी नारियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार हैं। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में नारियां पुरुषों के अधीन हैं और पुरुष इसका सैकड़ों तरीकों से फायदा उठाते हैं- घर के भीतर और बाहर दोनों जगह। चाहे लैंगिक संबंधों का मामला हो, बच्चा पैदा करने करने और पालने-पोषने का मामला हो, घरेलू श्रम का मामला हो या फिर समाज में विभिन्न स्तर के श्रम या पद का, सब जगह पुरुष हावी हैं और सारा कुछ उनके फायदे में है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में सारे पुरुषों की सहमति है। शासक वर्ग के पुरुष इस व्यवस्था को बनाते हैं और शासित वर्गों के पुरुष भी अपने फायदे में इसमें उनके साथ हो लेते हैं। ऐसे में नारी मुक्ति की दिशा स्पष्ट है- पुरुषों के खिलाफ हर जगह संघर्ष। इसका अति रूप है लेस्बियन (स्त्री समलैंगिक) नारियों के अलग समाज की मांग।</p>
<p style="text-align: justify;">यह देखना मुश्किल नहीं है कि नारीवाद सारे पितृसत्तात्मक समाजों को एक जैसा मानता है चाहे वह गुलामी समाज हो, सामंती समाज या फिर पूंजीवादी समाज। इनमें यह नारियों की अधीनता को एक जैसा ही देखता है। उसके लिए अलग-अलग समाजों या वर्गों इत्यादि के फर्क का कोई महत्व नहीं है।</p>
<p style="text-align: justify;">नारीवाद अपने से यह सहज सा सवाल नहीं पूछते कि इन अलग-अलग समाजों में परिवर्तन क्यों हुए? सामंती समाज पूंजीवादी समाज में क्यों बदला और सामंती समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्वयं को पूंजीवादी समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कैसे बदला? इस बदलाव की प्रक्रिया क्या रही और इसका पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ा। नारीवादी यह सवाल पूछ ही नहीं सकते क्योंकि पूंजीवादी विचारधारा अपनी प्रकृति से ही अनैतिहासिक होती है। वह इतिहास में किसी मूलभूत बदलाव को नहीं देखती। उसके लिए चीजों का चरित्र सदा-सर्वदा एक जैसा होता है। उसके लिए गुलामी समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था मूलभूत तौर पर वही थी जो आज पूंजीवादी समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। गुलाम मालिक पुरुषों के अपनी स्त्रियों से वही संबंध थे जो आज पूंजीपति पुरुषों के अपनी स्त्रियों से। इसी तरह गुलाम पुरुषों के अपनी स्त्रियों से (जो स्वयं गुलाम थीं) वही संबंध थे जो मजदूर पुरुषों के मजदूर स्त्रियों से। इस तरह नारी मुक्ति का सवाल सदा-सर्वदा से सभी नारियों के लिए एक जैसा ही रहा है और उसका समाधान भी एक ही रहा है- पुरुषों से संघर्ष।</p>
<p style="text-align: justify;">नारीवाद के विपरीत मजदूर वर्ग की विचारधारा यह कहती है कि सारे वर्गीय समाजों (गुलामी, सामंती और पूंजीवादी) में पुरुष प्रधानता वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मौजूदगी तथा नारियों की अधीनता के बावजूद सच्चाई यही है कि ये पितृसत्तात्मक व्यवस्थाएं समाज व्यवस्था में परिवर्तन के अनुरूप बदलती रही हैं और इनका स्वरूप अलग-अलग रहा है। इसीलिए पुरुष प्रधानता और स्त्री अधीनता का स्वरूप भी बदलता रहा है। इतना ही नहीं किसी भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में अलग-अलग वर्ग की नारियों की अधीनता की स्थिति अलग-अलग रही है। इन सबका आधार समाजों की निजी सम्पत्ति की व्यवस्था रही है।</p>
<p style="text-align: justify;">गुलाम समाज में गुलाम स्त्री-पुरुष दोनों निजी सम्पत्ति से वंचित थे। इतना ही नहीं, वे स्वयं किसी की निजी सम्पत्ति थे। ऐसे में गुलाम पुरुष और गुलाम स्त्री के बीच जो भी संबंध थे वे ऐसे नहीं हो सकते थे जो मजदूर स्त्री-पुरुष के बीच होते हैं। इसको इस बात से समझा जा सकता है कि गुलाम मालिक दोनों में से किसी एक को अलग कर बेच सकता था। दूसरी ओर थोड़ी ज्यादा तनख्वाह पाने वाला मजदूर अपनी पत्नी को घरेलू स्त्री बनने के लिए प्रेरित या मजबूर कर सकता है। ऐसे में गुलाम स्त्री और मजदूर स्त्री की व्यक्तिगत (घरेलू) और सामाजिक दासता को एक ही श्रेणी में रखना बेहद गलत नतीजों तक ले जाता है। गुलाम स्त्री-पुरुष वह नहीं होते जो मजदूर स्त्री-पुरुष। इसीलिए गुलाम स्त्री की पराधीनता वह नहीं थी जो आज मजदूर स्त्री की है। इस फर्क में मानव सभ्यता का पूरा इतिहास छिपा है। मानव सभ्यता के पूरे इतिहास को, इसमें हुई प्रगति को झुठलाकर ही इस फर्क से इंकार किया जा सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">आज नारी मुक्ति का सवाल मूलतः मजदूर नारियों की मुक्ति का सवाल है (पिछड़े पूंजीवादी समाजों में अन्य मेहनतकश नारियों की मुक्ति का सवाल भी इससे जुड़ा है)। और मजदूर नारियों की मुक्ति का सवाल वह नहीं है जो मध्यम वर्गीय नारियों का या पूंजीपति वर्ग की नारियों का। पूंजीपति वर्ग की नारियों के लिए उनकी मुक्ति का सवाल उनके समग्र जीवन में गौण महत्व रखता है। नारी होने के चलते उनके साथ भेदभाव काफी कम है। उनका नारी होने के चलते उत्पीड़न भी यदा-कदा ही होता है। जहां तक शोषण का सवाल है, वे स्वयं शोषक होती हैं- चाहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।</p>
<p style="text-align: justify;">जहां तक मध्यम वर्गीय नारियों का सवाल है उन्हें नारी होने के चलते भेदभाव, उत्पीड़न और शोषण झेलना पड़ता है। इसमें भी घरेलू नारियों की स्थिति अलग है। नारीवाद ने ज्यादातर इन्हीं नारियों की समस्याओं को स्वर दिया है वह भी अपेक्षाकृत विकसित समाजों की मध्यम वर्गीय नारियों की।</p>
<p style="text-align: justify;">मजदूर नारियों की स्थिति एकदम भिन्न है। उनकी समग्र स्थिति उनके मजदूर होने से तय होती है जिसका मतलब है पूंजी की गुलामी। इसी के साथ और किसी हद तक इसके तहत उनके नारी होने के चलते उन्हें विशेष भेदभाव, उत्पीड़न और शोषण का शिकार होना पड़ता है। यह घर के भीतर भी होता है और घर के बाहर भी। लेकिन इस भेदभाव, उत्पीड़न और शोषण का स्वरूप मजदूर पुरुष तय नहीं करते। इतना ही नहीं, इसे पूंजीपति पुरुष भी तय नहीं करते। बल्कि इसका स्वरूप पूंजीवादी समाज की आम गति तय करती है जो अपनी बारी में पूंजी की आम गति से तय होती है। इसीलिए पूंजीवाद के पिछले पांच सौ साल के इतिहास में यह बदलता गया है। (इस बदलाव में इस भेदभाव, उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की भी भूमिका रही है जो स्वयं इसी गति का परिणाम थे)।</p>
<p style="text-align: justify;">अमूर्त तौर पर पूंजी को और पूंजीवादी व्यवस्था को नारी के साथ भेदभाव व उसके विशिष्ट शोषण-उत्पीड़न की अनिवार्य जरूरत नहीं है। यदि नारियां हर मामले में पुरुषों के बराबर हो जायें तथा नारी होने के चलते उनके साथ भेदभाव और उनका शोषण-उत्पीड़न समाप्त हो जाये तो इससे पूंजीवाद का बाल बांका नहीं होगा, उसके समाप्त होने की बात ही क्या! पर वास्तविक जीवन में पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था को इससे काफी फायदे होते रहे हैं। कम मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों की उपलब्धता, मजदूरों के बीच विभाजन, इत्यादि इनमें से कुछ हैं। इसी के साथ पूंजीपति वर्ग के अपने राजनीतिक-सांस्कृतिक हित और सोच भी इसमें अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। समय के साथ खुली और छिपी वेश्यावृत्ति ने संकटग्रस्त पूंजीवाद के लिए एक अलग ही आयाम ग्रहण कर लिया है।</p>
<p style="text-align: justify;">इन्हीं वजहों से वास्तविक जीवन में पूंजीवाद जहां एक ओर नारी मुक्ति का आधार तैयार करता रहा है (नारियों को सामाजिक जीवन में खींचने के जरिये) वहीं दूसरी ओर इसे खंडित भी करता रहा है तथा पूंजीपति वर्ग सचेत तौर पर इसके रास्ते में बाधा बनता रहा है। नारी मुक्ति आंदोलन को अनवरत पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करना पड़ा है। बीसवीं सदी में जब पूंजीपति वर्ग ने नारियों की बराबरी को औपचारिक तौर पर स्वीकार कर लिया तथा शताब्दी के अंत में इसे दिखाने के लिए अपने एजेण्डे पर ले लिया तब भी वास्तव में उसका व्यवहार अनिच्छा से पीछे हटने का ही रहा है। वह अपनी पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था को नारी अधीनता से होने वाले फायदे को खोना नहीं चाहता।</p>
<p style="text-align: justify;">लेकिन पूंजीपति वर्ग का यह रुख केवल नारी समस्या के मामले में नहीं है। धर्म, ‘नस्ल’, जाति, राष्ट्र, इत्यादि के मामलों में भी पूंजीपति वर्ग का यही रुख रहा है। इन सारे मामलों में पूंजीपति वर्ग ने एक लम्बे समय और भीषण संघर्षों के बाद ही औपचारिक (कानूनी) तौर पर बराबरी को स्वीकार किया। बात-बात पर जनतंत्र की डींग हांकने वाले अमेरिकी साम्राज्यवादियों के इतिहास में इसे बखूबी देखा जा सकता है। लेकिन औपचारिक तौर पर बराबरी का अधिकार हासिल कर लेने के बाद भी उत्पीड़ित लोगों को वास्तव में बराबरी हासिल करने के लिए फिर भीषण संघर्ष करना पड़ा और इसमें सफलताएं सीमित ही मिलीं- किसी में बहुत कम तो किसी में बहुत ज्यादा। किन्हीं मामलों में तो आज पीछे की गति को भी देखा जा सकता।</p>
<p style="text-align: justify;">इसका सीधा निष्कर्ष निकलता है कि लिंग, धर्म, ‘नस्ल’, जाति, राष्ट्र, इत्यादि के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न का खात्मा करने के लिए स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था से संघर्ष जरूरी हैं। इस संघर्ष के बल पर ही कुछ प्रगति की जा सकती है। पूर्ण सफलता के लिए जरूरी है कि इस व्यवस्था का खात्मा कर दिया जाये। जब तक निजी सम्पत्ति वाली लूटपाट की व्यवस्था रहेगी तब तक इस तरह के भेदभाव और उत्पीड़न उसके काम आते रहेंगे। इसीलिए वह इन्हें खत्म करने के लिए उत्सुक नहीं होगा। बल्कि किन्हीं मामलों में वह इन्हें बढ़ा भी सकता है।</p>
<p style="text-align: justify;">नारी मुक्ति के सवाल का समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे में है। स्वभावतः ही पूंजीवादी नारियां इससे सहमत नहीं होंगी। लेकिन मजदूर वर्ग की नारियां और समूचा मजदूर वर्ग इसकी परवाह नहीं करेगा। वह पूंजीवाद के खात्मे के जरिये नारी मुक्ति की दिशा पर ही आगे बढ़ेगा।</p>