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गिद्ध
उन दिनों
जब सभ्यता हमारे चेहरों पर लात मार रही थी
जब पवित्र जल हमारी सिकुड़ी हुई भौहों पर
तमाचे जड़ रहा था
गिद्ध अपने पंजों के साये में
बना रहे थे निगरानी के रक्तरंजित स्मारक
उस दौर में सड़कों के धातुई नरक में
एक तकलीफदेह हंसी थी
और ईसा मसीह के एकरस मंत्र-जाप में
डूब गयी थी बागानों से उठती चीख-पुकार
और कड़वी स्मृतियां जबरन लिये गये चुंबनों की
बंदूक की नोक पर तोड़े गये आश्वासनों/वायदों की
विदेशियों की, जो मनुष्य नहीं लगते थे
जिनके पास सारा किताबी ज्ञान था
लेकिन प्रेम न था
लेकिन हम जिनके हाथ धरती की कोख को उर्वर करते हैं
तुम्हारे अहंकार के गीतों के बावजूद
हमारे लिए उम्मीद
जैसे किसी किले के भीतर सुरक्षित थी
और स्वाजीलैण्ड की खदानों से
यूरोप के कारखानों तक
बसंत फिर से जन्म लेगा हमारे प्रसन्न कदमों के नीचे।
यकीन
जो हत्याएं करके मुटाते जाते हैं
और लाशों से मापते हैं अपने शासन के विभिन्न चरण
मैं उनसे कहता हूं कि दिन और लोग
कि सूर्य और तारे
गढ़ रहे हैं तमाम लोगों की लयबद्ध बिरादरी
मैं कहता हूं दिल और दिमाग
एक साथ तैनात है युद्ध के मोर्चे पर
और एक दिन ऐसा नहीं होता
जब कहीं न कहीं ग्रीष्म नहीं फूटता हो
मैं कहता हूं कि दिलेर तूफान/झंझावात
कुचल देंगे दूसरों की सहनशीलता के सौदेबाजों को
और लोगों के समूहों से जुड़ा हुआ समय देखेगा
विजयी कारनामों का साकार होना।
(अनुवाद : मंगलेश डबराल
साभार : ‘अफ्रीकी कविताए’ गार्गी प्रकाशन)