
नवजात कातर देश!
ओ कविता, ओ दूध-भात,
लौट आओ तुम!
(बीते युग के)
सुन्दर-सुभग-सुकान्त कवियों की तरह
मानव-वसति में तुम
जीवित रहो और
बार-बार पुकारो अच्छे दिनों को
वापस।
तरूणी मां के स्तनों में दूध नहीं है,
अतः प्रियतम गया है
दूर वन में
शिशु के दूध की तलाश में, और
सेमल के फूलों से ओस चुनने!
सूर्य में उषा का आलोक नहीं है,
अतः धनर्धुर चले गये हैं
(अंधेरे में युद्ध नहीं होगा)
रह गय है अकाल,
लकड़हारे-सा,
लकड़ियां काटता है, फल अलग करता है
और खाता है।
नवजात है कातर देश, इसलिए
हे कविता, हे दूध-भात
लौट आओ,
उग आए सूरज
शिशिर की धुली भोर का
मातृस्तन पुनः होवे शिशु का आश्रय।
पितृऋण चुकाना है मुझे अभी,
प्रार्थना में नवजानु
फलवती वृक्ष-सारणी की श्याम शोभा
के भीतर, दिन भर
तुम्हारी गोद में, बालक की तरह
अच्छे दिनों की मीठी बयार लेकर
घर लौटूं।
कविता!
हमारें घरों के करघे
साइकिलों पर सवार हमारे लोग
तालाब का हरा, कांपता जल
आंवाहनदी के वन
सब देखे होंगे तुमने
(तुम्हें क्या नहीं मालूम)
क्यों न निकाल दिया
हमारी आत्माहुति का मुहूर्त?
क्यों न देखा
हमारी छीजती आंखों के कोनों में
सब कुछ खोने का दर्द?
नहीं सुनी प्यार की, कमजोर सही, पर
कोशिश
बोलने की?
तुम अच्छी हो, ओ दुराशा
ओ नील आशा!
(अनुवाद शिवकिशोर तिवारी, साभार : कविता कोश)