भारतीय शेयर बाजार और अर्थव्यवस्था

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भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार के लिए समृद्धि का प्रतीक शेयर बाजार आजकल गोते लगा रहा है। लेकिन इनके दो मुंहेपन का आलम यह है कि कोई नहीं कह रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है। सभी स्वयं को और दूसरों को दिलासा दे रहे हैं कि शेयर बाजार की यह गिरावट तात्कालिक है। जल्द ही यह फिर उठेगा और पहले की तरह कुलांचे भरने लगेगा। 
    
निकट भविष्य में क्या होगा यह तो समय ही बताएगा, पर अभी से शेयर बाजार के इस हाल के मद्देनजर कुछ बातें कही जा सकती हैं। यह बातें साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के कुछ सामान्य पहलुओं की ओर भी इशारा करती हैं। 
    
पिछले एक-डेढ़ दशक में शेयर बाजार में निवेश करने वाले फुटकर ग्राहकों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। पिछले साल डीमैट खातों की संख्या बीस करोड़ पार कर गई थी (डीमैट खातों के जरिए शेयर की रोजाना ऑनलाइन खरीद-बेच की जा सकती है)। इतनी बड़ी संख्या का मतलब था कि मध्यम वर्ग के विभिन्न हिस्से शेयरों की सट्टेबाजी में लगे हुए थे। इस सट्टेबाजी को आजकल मोबाइल एप ने बहुत आसान बना दिया है। इतना ही नहीं, ये लोग शेयर आधारित अन्य तरीकों की सट्टेबाजी में भी हाथ आजमा रहे थे। स्थिति इस हद तक जा पहुंची थी कि पिछले साल के आर्थिक सर्वेक्षण में इस पर चिंता व्यक्त की गई थी। 
    
लेकिन सरकार के एक हिस्से द्वारा व्यक्त की गई यह चिंता खासी विडम्बनापूर्ण थी क्योंकि उसी सरकार का दूसरा हिस्सा इस सट्टेबाजी को बढ़ावा दे रहा था। मजे की बात यह है कि यह दोनों हिस्से उसी वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं। 
    
पिछले एक-डेढ़ दशक से, खासकर मोदी सरकार के काल में शेयर बाजार में निवेश और सट्टेबाजी को खूब प्रोत्साहित किया गया है। इसे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से किया गया है। बैंकों में जमा पैसे पर ब्याज दरें घटा दी गई हैं और ब्याज दर पर भी कर लगा दिया गया है। इसके ठीक विपरीत शेयर बाजार से होने वाली आय पर कर घटा दिया गया है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री से लेकर अन्य सरकारी लोगों द्वारा यह माहौल बनाया गया है कि शेयर बाजार अर्थव्यवस्था की समृद्धि का प्रतीक है और यह ऊपर उठता ही जाएगा। पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों के द्वारा लोगों को उकसाया गया कि वे शेयर खरीदें क्योंकि मोदी सरकार की पुनर्वापसी से शेयर बाजार छप्पर फाड़ेगा। 
    
निवेश के अन्य लाभप्रद रास्तों के अभाव के साथ तुरत-फुरत लाभ के लालच ने भी मध्य वर्ग को शेयर बाजार की सट्टेबाजी की ओर धकेला। शेयरों में दूरगामी निवेश से ज्यादा रोजाना की सट्टेबाजी से खूब पैसा कमाने की कहानी प्रचारित होने लगीं। हों भी क्यों न? 2009 में 8000 तक पहुंचा शेयर बाजार (जो 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय 21,000 तक पहुंच गया था) 16 साल बाद 87,000 तक पहुंच गया था यानी करीब 11 गुना। 16 सालों में इतनी वृद्धि तो कहीं नहीं हुई थी- सिवाय बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे के। 
    
इन सबका ही परिणाम था कि पिछले साल अत्यन्त छोटी-छोटी कंपनियों के शुरुआती शेयर 20, 50 या 100 गुना मांग तक पहुंचने लगे। उनके शुरूआती दाम भी इसी तरह चढ़ने लगे। ऐसा लग रहा था मानो सोना बरस रहा हो शेयर बाजार में। 
    
और यह सब तब हो रहा था जब अर्थव्यवस्था में वास्तव में कोई तेजी नहीं थी। यदि सरकारी दावों को सही माना जाए तब भी 2019 से अभी तक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर औसतन चार-पांच प्रतिशत ही रही है। वास्तव में यह ढाई-तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। और यह बात पूरे तथ्य और तर्क के साथ मोदी सरकार के भूतपूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम कह रहे हैं। 
    
यह कहना सही नहीं होगा कि अर्थव्यवस्था की वास्तविक गति से स्वतंत्र शेयर बाजार में यह उछाल भीड़ की उन्मादी मानसिकता का परिणाम मात्र है। असल बात यह है कि सरकार से लेकर शेयर बाजार के असल खिलाड़ी वास्तविकता से अच्छी तरह परिचित हैं और उन्होंने ही यह उछाल पैदा किया हुआ था। कहा जाता है कि भारत का शेयर बाजार बहुत छिछला बाजार है। यानी इसमें शेयर बाजार में खरीदे-बेचे जाने वाले शेयरों की मात्रा काफी कम होती है और इसलिए बहुत कम पूंजी से इनके दामों में भारी उतार-चढ़ाव पैदा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अडाणी की कंपनियों में घपले की चर्चा में पता चला कि इन कंपनियों के पांच-सात प्रतिशत शेयर बाजार में खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध होते हैं। 75 प्रतिशत शेयर तो कानूनी तौर पर ही ‘प्रमोटेडो’ यानी कंपनी खड़ी करने वालों के पास थे (अडाणी घराने के पास) तथा 15-17 प्रतिशत और गैर-कानूनी तरीके से। सारा घपला इस गैर-कानूनी कार्यवाही से संबंधित था।
    
बाजार के छिछला होने के चलते थोड़े से देशी-विदेशी बड़े खिलाड़ी मनमर्जी से इसे उठाते-गिराते हैं। यह बड़े खिलाड़ी शायद ही घाटा उठाते हों। यह शेयर के दामों को चढ़ा कर और फिर गिरा कर दोनों तरीकों से मुनाफा कमाते हैं। इसका सारा खामियाजा छोटे निवेशकों को भुगतना पड़ता है यानी मध्यमवर्गीय लोगों को। बड़े निवेशकों यानी बड़े सट्टेबाजों का मुनाफा छोटे निवेशकों के घाटे यानी मध्यमवर्गीय लोगों के घाटे के बराबर होता है। शेयर बाजार के चढ़ने और उतरने से जो सभी कंपनियों के शेयरों के दामों में बढ़ोत्तरी या घटोत्तरी होती है वह भले ही काल्पनिक हो पर बड़े निवेशकों का फायदा तथा छोटे निवेशकों का घाटा वास्तविक होता है। आज भी शेयर बाजार के गिरने से जो छोटे निवेशक रो रहे हैं वह काल्पनिक नहीं है। वे हजारों या लाखों रुपए गंवा रहे हैं। 
    
वैसे शेयर बाजार की यह गति अनोखी नहीं है। जब से शेयर बाजार में छोटे निवेशकों ने पैसा लगाना शुरू किया तब से यही हो रहा है।  पूंजीवाद में शेयर बाजार छोटी संपत्ति वालों की छोटी संपत्ति तथा कमाई को लूटने का एक और तरीका बन गया है।
    
सीमित जिम्मेदारी (लिमिटेड लायबिलिटी) की संयुक्त शेयर वाली कंपनियां पूंजीवाद का अद्भुत आविष्कार हैं। इसके जरिए पूंजीपति अपनी बहुत छोटी सी पूंजी लगाकर बहुत बड़ी पूंजी (दस या बीस गुना) के मालिक बन जाते हैं जबकि उनकी जिम्मेदारी महज उनके द्वारा लगाई पूंजी तक सीमित रहती है। पूरी जिम्मेदारी उस कंपनी नामक संस्था की होती है जिसे पूंजीवाद में अंततः व्यक्ति का दर्जा दिया जाता है (कानूनी तौर पर)। यदि कंपनी दिवालिया होती है तो उसके लिए शेयरधारक जिम्मेदार नहीं होते। ज्यादा से ज्यादा उनका शेयर खरीदने में लगा पैसा डूबता है।         
    
होल्डिंग कंपनियों के जरिए पूंजीपति असीमित पूंजी के मालिक बन सकते हैं। किसी पूंजीपति की यदि किसी कंपनी में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी है तो वह उस कंपनी द्वारा किसी अन्य कंपनी में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी के जरिए 100 गुना पूंजी पर नियंत्रण कर सकता है। उदाहरण के लिए टाटा घराना टाटा एंड सन्स में 8-10 प्रतिशत पूंजी का निवेशक है। फिर भी टाटा एंड संस ने टाटा समूह की अन्य कंपनियों में निवेश किया है। फिर इन कम्पनियों ने अन्य कंपनियों में निवेश किया है। आज बड़े पूंजीवादी घरानों ने ही नहीं बल्कि मध्यम स्तर के पूंजीपतियों ने भी इस तरह की कंपनियों का मकड़जाल बना रखा है। अक्सर पता चलता है कि हजारों करोड़ की किसी पब्लिक लिमिटेड कंपनी का मूल मालिक किसी छोटी सी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के जरिए काम कर रहा है जिसके शेयर खरीदे-बेचे नहीं जाते। 
    
शुरुआत में संयुक्त शेयर वाली कंपनियों के बहुत थोड़े से ऊंची कीमत वाले शेयर होते थे जिन्हें बड़े पूंजीपति ही खरीदते थे। उदाहरण के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी एक ऐसी ही कम्पनी थी। पर समय के साथ पूंजीपति वर्ग ने पाया कि बहुत कम कीमत वाले ढ़ेर सारे शेयर बहुत फायदे की चीज हैं। इससे छोटी-छोटी पूंजी को इकट्ठा करना तथा बड़े पूंजीपतियों के नियंत्रण में लाना बहुत आसान हो गया। अब छोटी पूंजी बैंकों में जमा के जरिए ही नहीं बल्कि सीधे शेयर बाजार के जरिए बड़ी पूंजी को उपलब्ध हो गई। यह पूंजी का ज्यादा बड़े पैमाने का समाजीकरण था। यह पूंजी का जनतांत्रीकरण नहीं था, जैसा कि पूंजीपति वर्ग के चाटुकारों ने प्रचारित किया। इसके ठीक उलट यह पूंजी का केन्द्रीयकरण था- छोटी पूंजी का बड़ी पूंजी के अधीन होना।
    
कम कीमत वाले भारी संख्या में शेयरों ने शेयर बाजार को भी नई दिशा दी। अब शेयर बाजार में सट्टेबाजी से यह संभावना पैदा हुई कि छोटे निवेशकों की पूंजी को बड़े निवेशक निगल जायें। यह पूंजी के केन्द्रीकरण का एक और तरीका है। शेयर बाजार के ‘जनतांत्रीकरण’ के समय से ही बड़े सट्टेबाजों द्वारा छोटे निवेशकों की पूंजी पर हाथ साफ करना आम चलन हो गया है। 
    
उदारीकरण-वैश्वीकरण के पिछले तीन-चार दशकों में यह सब एक नयी ऊंचाई तक पहुंचा है। 1980 के दशक में जापान में शेयरों का आसमान पर पहुंचना, फिर 1990 के दशक में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में शेयर बाजार का उछाल (‘एशियाई टाइगर’ समेत), 1990 के दशक के अंत में सं.रा. अमेरिका में डाट.काम उछाल और अंत में 2008-09 का अभूतपूर्व वित्तीय संकट। ये सब अलग-थलग नहीं थे। इसके विपरीत इन सबमें एक श्रृंखला के तहत कार्य-कारण संबंध था। वैश्विक वित्त पूंजी एक बाजार से दूसरे बाजार में उछाल पैदा करते हुए और फिर गिरावट के जरिये उनकी अर्थव्यवस्थाओं को तबाह करते हुए विचरण कर रही थी। वैश्विक पूंजीवाद के चाकर एक के बाद दूसरी जगह उछाल की शान में सुर में सुर मिला रहे थे और फिर गिरावट के समय चुप्पी साध रहे थे। इन सब जगहों पर छोटे निवेशक तबाह हो रहे थे। उनकी छोटी-छोटी बचतों को शेयर बाजार के बड़े खिलाड़ी हड़प रहे थे। 
    
1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से। अब मजदूर-मेहनतकश जनता की आय में कटौती से यह संभावना और कम हो जाती थी। ऐसे में पूंजी के क्रमशः सट्टेबाजी के क्षेत्र में अधिकाधिक लगते जाने की प्रवृत्ति पैदा हुई। उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में वित्तीय क्षेत्र का हिस्सा अर्थव्यवस्था में लगातार बढ़ता गया। इसी तरह इस क्षेत्र से होने वाला मुनाफा भी सकल मुनाफे के अनुपात में बढ़ता गया। वास्तविक उत्पादन-वितरण के मुकाबले वित्तीय क्षेत्र के फैलाव का केवल एक ही मतलब था- भांति-भांति की सट्टेबाजी का बढ़ते जाना। शेयर बाजार की सट्टेबाजी इनमें से एक थी। 
    
इस तरह दुनिया भर में शेयर बाजारों में लगातार उठान अर्थव्यवस्था में वृद्धि का सूचक हरगिज नहीं है। इसके ठीक उलट यह अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन संकट का सूचक है। यह तब भी है जब पूंजीवादी चाटुकारों के हिसाब से शेयरों के दाम और आय का अनुपात ठीक हो- पन्द्रह से अठारह गुने तक। आज भारत में कंपनियां किस तरह मुनाफा कमा रही हैं यह किसी से छिपा नहीं है। कोविड काल में जब भारतीय अर्थव्यवस्था सिकुड़ गयी थी तब बड़े पूंजीपतियों की कंपनियों ने रिकार्ड मुनाफा कमाया था। यही हाल दुनिया भर का है। सारी दुनिया को 2008-09 के भयानक वित्तीय संकट में डालने वाले अमरीकी वित्तीय संस्थानों ने 2009 में रिकार्ड मुनाफा कमाया था। सब जगह यह सरकारों की कृपा से संभव हुआ जिन्होंने यह मुनाफा सुनिश्चित किया और उसका सारा बोझ मजदूर-मेहनतकश जनता पर डाल दिया। यह यूं ही नहीं है कि पिछले सालों में सरकारों पर कर्ज लगातार बढ़ता गया है। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है, अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार की इस हालत से पूंजीपति वर्ग तथा उनकी सरकारें अनजान नहीं हैं। इसके विपरीत वे इससे अच्छी तरह से वाकिफ हैं। इसीलिए वे अपने चाटुकारों के जरिये इस मामले में लगातार झूठे प्रचार करवा कर एक भ्रम का वातावरण तैयार करवाते रहते हैं। आसानी से प्रचार के झांसे में आ जाने वाला मध्यम वर्ग इसका शिकार हो जाता है और लुट जाता है। 
    
जैसे-जैसे छोटी सम्पत्ति वालों के हालत खराब होते जा रहे हैं वैसे-वैसे उनकी अपनी हैसियत को बचाने की छटपटाहट भी बढ़ती जा रही है। इस छटपटाहट में वे हताशा भरी कार्रवाई के तौर पर सट्टेबाजी की भी शरण ले रहे हैं। आजकल आनलाइन जुओं की भरमार है। इसी तरह शेयर बाजार की सट्टेबाजी का भी जलवा है। लेकिन इस सबका कुल परिणाम उनकी और ज्यादा तबाही के तौर पर सामने आता है। 
    
भारत में इस तबाही ने हिन्दू फासीवादियों के साम्प्रदायिक प्रचार की धार को किसी हद तक भोंथरा किया है। समय आ गया है कि छोटी सम्पत्ति वाले अपनी तबाही और हिन्दू फासीवादियों के खेल के बीच के वास्तविक संबंध को समझें। वे अपनी तबाही के तात्कालिक और दूरगामी कारकों को समझें। 
 

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