दिल्ली अग्निकांडों में झुलसते मजदूर

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पी यू डी आर के निष्कर्ष

फैक्टरियों में लगने वाली आग दिल्ली की  फैक्टरियों में काम करने वाले लाखों मजदूरों के जीवन पर रोशनी डालती है। यह कुछ समय के लिए उनकी कार्यपरिस्थितियों और उनके जीवन को आंशिक तौर पर उजागर कर देती है। ये टिमटिमाती झलकियां उनके रोजमर्रा के जीवन की दुर्दशा को समझने का मौका देती हैं। हमने अपनी जांच के दौरान निशा जैसी मजदूरों के बारे में जाना। निशा की मृत्यु पश्चिमी दिल्ली के मुंडका में 13 मई 2022 को एक फैक्टरी में आग लगने से हुई। निशा का मृत शरीर उन झुलसे हुए ‘अज्ञात’ शरीरों में से एक था। आग लगने के एक महीने चार दिन बाद निशा की पहचान उसकी मां के डीएनए से मिलान के बाद हुई।
    
निशा, जसोदा, रंजू और कई अन्य मजदूर जो आग से मरे या घायल हुए, वे फैक्टरी के पास ही ‘भाग्य विहार’ के एक हिस्से गड्ढा कालोनी में रहते थे। मुख्यतया अनधिकृत यह बस्ती निचले इलाके में है जहां बार-बार जल भराव होता रहता है और जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। निशा का घर छोटी सी झुग्गी थी जिसमें वह अपने 6 भाई बहनों और माता-पिता के साथ रहती थी। निशा ने नौंवी कक्षा तक पढ़ाई की थी और हमें पता चला कि वह और पढ़ना चाहती थी। लेकिन कोविड लॉकडाउन के बाद बढ़ गयी पारिवारिक आर्थिक कठिनाइयों की वजह से उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी और फैक्टरी में काम पकड़ना पड़ा। निशा की मां मीरा देवी निशा की आय पर निर्भर थी। निशा का पिता एक प्लम्बर है। हमें पड़ोसियों और अन्य लोगों से पता चला कि वह गरम मिजाज का और नशेबाज है। वह अक्सर हिंसक हो जाता है और मीरा देवी को पीटता है और घर चलाने में कोई योगदान नहीं करता। मुंडका अग्निकांड के मृतकों के अन्य परिजनों की भांति निशा के परिवार को भी 12 लाख रुपये का मुआवजा मिला। इसमें से 10 लाख रुपये राज्य सरकार से और 2 लाख रुपये केन्द्र सरकर से मिले। मीरा देवी के पास कोई बैंक खाता नहीं था और वह निरक्षर थी। वह कागज पत्तर तैयार करने और अधिकारियों से बात करने में सक्षम नहीं थी। अन्य पीड़ितों के परिजनों से मिली मदद की वजह से ही वह मुआवजा हासिल कर पाई। परिवार में उसका पति ही एकमात्र बैंक खाताधारक था। इसलिए मुआवजे की राशि उसके खाते में आई। 2024 तक उसने मकान के मरम्मत और निर्माण में चार से पांच लाख रुपये खर्च कर दिये थे और शेष राशि का इस्तेमाल मीरा देवी अपने और अपने बच्चों के भरण पोषण पर कर रही है। वह स्वयं फैक्टरी में काम करने में अक्षम है क्योंकि उनकी एक लड़की विकलांग है जिसकी देखभाल उन्हें करनी पड़ती है। इसके अलावा वह खुद बीमार रहती हैं और कुपोषित हैं। इसलिए वह अपनी गली की अन्य महिलाओं की तरह प्लास्टिक से बने फूलों के काम के घर से किए जाने वाले हिस्से को पूरा करती है। इस काम में 144 फूल पर तीन रुपये मिलते हैं और इस तरह वह माह में 1000 से 1500 रुपये कमा पाती है। 
    
कई और नए उम्र की महिलाओं की तरह निशा फैक्टरी में कोन, राउटर आदि के पैकेट को पैक करने और लेबल लगाने का काम करती थी। जब निशा ने काम पकड़ा था तब उसे 6500 रुपये प्रति माह मिलते थे। उसकी मृत्यु के समय उसे 7500 रुपये प्रति माह मिलते थे। वह 1000 रुपये अपने लिए रखती थी और शेष पैसे मां को घर चलाने के लिए देती थी। फैक्टरी में आग से सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी जबकि आग के अन्य खतरों के साथ वहां लेबल और बक्सों के स्क्रीन प्रिंटिंग के लिए खतरनाक रसायन रखे होते थे। वहां एक बार पहले भी आग लग चुकी थी लेकिन कोई घायल नहीं हुआ था। आग लगने से दो माह पहले मालिक ने दो सुपरवाइजर नियुक्त किये थे जो मजदूरों पर काम की रफ्तार बढ़ाने का दबाव बनाते थे। इन्होंने एक महिला गार्ड को फैक्टरी में घुसने से पहले मजदूरों के फोन ले लेने को निर्देशित किया था। यही वजह थी कि आग लगने पर निशा और अन्य मजदूर अपने परिजनों को खबर नहीं कर पाये। 
    
मुंडका फैक्टरी की कोमल (बदला हुआ नाम) जैसी मजदूर अग्निकांड में अपने साथियों को खोने के दंश के बारे में बात करती हैं। स्वीटी, मृतक मजदूरों में से एक, कोमल की गली में ही रहती थी। दोनों साथ में काम पर जाती थीं और स्वीटी कोमल का ध्यान रखती थी। कोमल आग लगने के सदमे से उबर नहीं पाई है और वह अब भी काम पर नहीं जाती है। बवाना में आग लगने के एक साल बाद भी राजू (बदला हुआ नाम) जो कि फैक्टरी में हुए विस्फोट से बुरी तरह घायल हो गया था, काफी आतंकित है। कोमल इस वजह से भी काम पर नहीं जा पाई क्योंकि चोट का लेबर कोर्ट से मुआवजा हासिल करने में उसको काफी संघर्ष करना पड़ा। घटना के कई महीनों के बाद उससे जज ने जलने का सबूत मांगा, तब तक जख्म के निशान धुंधले पड़ चुके थे। 
    
फैक्टरी अग्निकांडों की जांच से यह बात उभरती है कि दिल्ली के जिन औद्योगिक क्षेत्रों को अधिकृत भी माना जाता है वहां भी आपस में जुड़ी कुछ विशेषताएं हैं जिसकी चर्चा जरूरी है। पहली, ज्यादातर प्लॉट जहां औद्योगिक इकाईयां स्थित हैं, वह छोटी हैं और उनका क्षेत्रफल 250 वर्गमीटर से कम है। इससे इन्हें फायर डिपार्टमेंट से मंजूरी या एनओसी लेने की जरूरत नहीं पड़ती। इसका मतलब यह है कि बचाव के उपायों को सुनिश्चित कराने का कोई साधन नहीं है। दूसरी, फैक्टरियों की बड़ी संख्या 10 से कम मजदूरों को नियोजित करती हैं और फैक्टरी एक्ट के दायरे में ‘फैक्टरी’ नहीं मानी जाती। इस तरह अधिकृत औद्योगिक इलाकों तक में काम करने वाले दिल्ली के बहुसंख्या मजदूर फैक्टरी मजदूरों को हासिल होने वाले श्रम कानूनों की सुरक्षा और अग्नि सुरक्षा कानूनों से बाहर हैं। तीसरी, ज्यादातर इकाईयां ऐसे मालिकों द्वारा संचालित होती हैं जो स्वयं किराएदार हैं। अधिकृत औद्योगिक इलाकों में जहां हर वर्ष बड़ी संख्या में आग लगती है, किराएदारी गैर कानूनी है क्योंकि यहां प्लांट मूल रूप से लीज पर आवंटित की गयी थी और इन्हें किराए पर नहीं उठाया जा सकता। ज्यादातर इकाईयां जहां आग लगती है, उनके पास लाइसेंस या संचालन की अनुमति नहीं होती- चाहे यह दिल्ली नगर निगम, फैक्टरियों के मुख्य निरीक्षक, श्रम विभाग, विद्युत प्राधिकरण, या दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति हो। चौथी, चूंकि इन तरीकों से ये इकाईयां स्वयं गैरकानूनी हैं, इनके औद्योगिक और श्रम प्रक्रियाएं उचित मजदूरी और कार्य परिस्थितियों के प्रावधानों का पालन नहीं करते। सम्मान के साथ काम करने और जीने लायक न्यूनतम मजदूरी न देना, बुनियादी अग्नि सुरक्षा का पालन न करना, काम के घंटे- छुट्टी- ईएसआई/पीएफ के संबंध में उल्लंघन करना -इन तमाम तरह के श्रम और संबंधित कानूनों के खुलेआम उल्लंघन के दोषी इन अधिकृत औद्योगिक क्षेत्रों के फैक्टरियों के मालिक हैं। पांचवीं, यह सब इसलिए संभव है क्योंकि श्रम, सुरक्षा और अन्य कानूनी परिस्थितियों के परिपालन के लिए जिम्मेदार अधिकारी कोई वास्तविक भौतिक जांच नहीं करते। दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में अपनी स्वगति पर कोई निरीक्षण नहीं होता। जब औद्योगिक दुर्घटना हो जाती है और मजदूरों या अन्य लोगों द्वारा श्रम कानूनों के या अग्नि सुरक्षा के उल्लंघन संबंधी लिखित शिकायतें दी जाती हैं तभी निरीक्षण होता है। छठी, जैसा कि लेबर फोर्स और लेबर कंट्रोल की प्रकृति और इतिहास है, मजदूर यूनियनों के लिए इन औद्योगिक इलाकों में आगे बढ़ने या स्थायी समर्थन हासिल करने और मजदूरों को गोलबंद करना कठिन रहा है। सक्रिय यूनियनों की अनुपस्थिति महत्वपूर्ण है क्योंकि यूनियनें ही वे संभावित निकाय हो सकती हैं जो यह सुनिश्चित करें कि मजदूरों को अधिकार और सुरक्षा हासिल हो। मजदूरों को यूनियन बनाने में होने वाली कठिनाईयां, खास तौर पर हाल के वर्षों में, मजदूरों की असुरक्षा को बढ़ाने वाला निर्णायक कारक है।

(पीयूडीआर की रिपोर्ट ‘‘Factory Fires And Workers - A Capital Story’’ के अंश का अनुवाद)

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