आजकल चुनाव आयोग पर बहुत उंगली उठायी जा रही है। मतदान के निशान वाली उंगली आज चुनाव आयोग पर उठ रही है कि वह चुनाव का डाटा नहीं दे रहा है। कितने वोट पड़े और टोटल वोट कितने थे इसकी बजाय वह गणना करके बता दे रहा है कि कितने प्रतिशत वोट पड़े। इसके लिए एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को निर्देश देने से मना कर दिया।
चुनाव आयोग पर यह सवाल उठ रहे हैं कि चुनाव दिन की प्रतिशत और उसके 7-8 दिन बाद जारी प्रतिशत में लगभग दो से छः प्रतिशत की वृद्वि कैसे हो जा रही है। यह चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर रहा है। इससे पहले सीबीआई, ईडी और न्यायपालिका पर सवाल खड़े हो रहे थे। सीबीआई और ईडी बहुत सारी छापेमारी के बाद थोड़ा सुस्ता रहे हैं और कोर्ट में गर्मियों की छुट्टियां पड़ गयी हैं। अब चुनाव आयोग पर सवाल उठ रहे हैं।
लेकिन असली सवाल चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का नहीं है। असल सवाल तो जनता की विश्वसनीयता का है। जनता को खुद पता नहीं रहता कि किस पार्टी को चुना जाय। उसको खुद नहीं पता कि मोदी सरकार से पहले जो सरकारें बनीं उसको चुनकर जनता ने सही किया कि गलत। या जनता अब पिछले दो चुनाव से गलत चुनाव कर रही है। जनता खुद भ्रम में है। जनता को खुद नहीं पता कि चीन उसका दुश्मन है, या पाकिस्तान या बांग्लादेश। जब सरकार बताती है तो पता चलता है। जनता कभी कांग्रेस का साथ छोड़ देती है तो कभी भाजपा का साथ छोड़कर आम आदमी पार्टी की तरफ जाने लगती है। चुनावों से पहले इलेक्ट्रोल बान्ड पर बहुत छीछालीदार हुई जनता को खूब मजा आया अब उसका स्वाद कम हुआ तो फॉर्म 17सी को चुनाव आयोग की वेबसाइट पर लोड करवाना चाह रही थी लेकिन हो नहीं पाया। जनता बहुत लापरवाह भी हो गयी है। नेता रैलियां और रोड शो कर करके, कभी एक्टिंग और भाषण से थके-मरे जा रहे हैं लेकिन जनता मीम्स देख रही है, ये कैसा कलुयग है भाई।
जनता की गद्दारी का आलम ये है कि पांच किलो राशन लेकर भी किसी और को वोट कर सकती है। बीजेपी सरकार की योजना ‘अग्निवीर’ में भर्ती होकर लाभ उठाने वाला नौजवान भी उस पार्टी के खिलाफ वोट कर सकता है। राम मन्दिर पर खुशी जाहिर करने वाली जनता उनको भूल सकती है जो खुद भगवान को लेकर आये हैं। दिल्ली में जनता कभी सातों सीटें भाजपा को जितवा देती है तो असेम्बली इलेक्शन में केजरीवाल को जितवा देती है। जनता कभी चाहती है कि हमें शी जिनपिंग से बढ़िया तानाशाह चाहिए कभी कहती है कि लोकतंत्र होना चाहिए और सरकार बदलते रहना चाहिए। तो ऐसे में सवाल चुनाव आयोग की बजाय जनता की विश्वसनीयता पर उठना चाहिए। रही बात वोटिंग में गड़बडी की तो उसका जवाब एक ईमानदार आदमी ही दे सकता है लेकिन ऐसा आदमी मोदी भक्त होना चाहिए। जिस सवाल का जवाब बुद्धिजीवी नहीं दे सकता लेकिन एक ईमानदार मोदी या बीजेपी भक्त दे सकता है।
मोदी या बीजेपी भक्त से जब यह सवाल पूछा गया कि वोटिंग में गड़बड़ी में हो रही है। तो उसका जवाब था कि ग्यारह घंटे तो वोट तुम्हारे हिसाब से पड़ रहे हैं बस शाम को एक घंटे के वोट ही तो बीजेपी को पड़ रहे हैं। तुम ग्यारह घंटे की वोटिंग में जीत नहीं पा रहे और वह एक घंटे की वोटिंग से सरकार बना लेगा। रही बात बेइमानी की तो इस बार बीजेपी कर रही है तो तुम बोलो कि अगली बार दूसरी पार्टी कर लेगी हिसाब बराबर, हल्ला मचाने या कोर्ट से कुछ नहीं होगा।
अब वापस चुनाव पर आयें तो इस चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति चुनावों को मैनेज करने के लिए की गयी है। चुनाव आयोग पूरी ईमानदारी से चुनाव को मैनेज कर रहा है। चुनाव के बाद इस चुनाव आयोग को इस्तीफा दे देना चाहिए जिससे कि दूसरे लोगों को भी अपनी ईमानदारी दिखाने का मौका मिले। कुछ लोगों को बहुत छोटी बात लग सकती है इतने बड़े चुनाव को मैनेज करना। बहुत ही प्लानिंग से काम करना पड़ता है। हर एक की बस की बात नहीं है इस तरीके से चुनाव को मैनेज करना। -एक पाठक, फरीदाबाद
चुनाव आयोग नहीं जनता भरोसमंद नहीं है
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।