हिन्दू फासीवादी और भारतीय अर्थव्यवस्था

केन्द्र सरकार के हालिया बजट पर चर्चा के दौरान एक विश्लेषक ने मजेदार टिप्पणी की। उसने कहा कि वर्तमान भाजपा सरकार अर्थव्यवस्था को भाजपा का कार्यकर्ता मानती है और सोचती है कि उसे डांट-फटकार और आदेश से चलाया जा सकता है।
    
यह टिप्पणी टिप्पणीकार की सोच से भी ज्यादा मानीखेज (अर्थपूर्ण) है। यह वर्तमान अर्थव्यवस्था और हिन्दू फासीवादियों के चरित्र के बुनियादी गुणों पर नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता है। 
    
किसी भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था भी अपने बुनियादी चरित्र में अराजक है। इसमें कौन कितना पैदा करेगा और कौन कितना उपभोग करेगा यह बाजार से तय होता है और बाजार में मांग और पूर्ति का राज होता है। कभी मांग पूर्ति से आगे निकलती है तो कभी पूर्ति मांग से। दोनों के बीच संतुलन यानी मांग और पूर्ति का बराबर होना यदा-कदा ही होता है। इस सबमें प्रतियोगिता निर्णायक होती है। कौन कितना बाजार हथिया लेता है, हर कोई इसी में लगा होता है। यहां तक कि मजदूर भी इस प्रतियोगिता में उतर पड़ते हैं- ज्यादा बेहतर मजदूरी और काम की शर्तों के लिए। 
    
पूंजीवादी अर्थशास्त्र में उसूली तौर पर यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था तभी सबसे अच्छे ढंग से चलती है जब उसे अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है यानी बाजार और प्रतियोगिता के हाल पर। सरकार द्वारा इसमें कोई भी हस्तक्षेप केवल समस्या ही पैदा करता है। इसीलिए इनका मानना है कि समाजवादी अर्थव्यवस्था कभी अच्छे ढंग से नहीं चल सकती क्योंकि उसमें सब कुछ सरकार तय करती है। 
    
यह कहने की बात नहीं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कभी भी इन उसूलों पर नहीं चली यानी कि सरकार का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं रहा। पूंजीवाद के समूचे इतिहास में बाजार और प्रतियोगिता के साथ सरकारी हस्तक्षेप भी हमेशा अर्थव्यवस्था को चलाते रहे। बस सरकारी हस्तक्षेप का रूप अलग-अलग रहा और उसकी मात्रा भी। बीसवीं सदी में तो जार्ज मीनार्ड कीन्स के रूप में इस सरकारी हस्तक्षेप का सैद्धान्तीकरण भी किया गया। अब तो रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्री किताब लिख रहे हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कैसे पूंजीपतियों से बचाया जाये। यानी पूंजीवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा पूंजीपति ही बन गये हैं और इस खतरे से सरकार ही बचा सकती है। 
    
पर पूंजीवाद में सारे सरकारी हस्तक्षेप के बावजूद उसका बुनियादी अराजक चरित्र बना रहता है। बाजार और होड़ में सारे सरकारी हस्तक्षेप के बावजूद वे बने रहते हैं। और निजीकरण-उदारीकरण- वैश्वीकरण के इस दौर में तो यह ज्यादा व्यापक हुआ है क्योंकि बाजार और प्रतियोगिता दोनों व्यापक हुए हैं और सरकारों ने अपना नियंत्रण ढीला किया है। अब ज्यादातर सरकारी हस्तक्षेप पूंजीपतियों का मुनाफा और उनकी पूंजी को बचाने के लिए होता है। पूंजीवाद को पूंजीपतियों से बचाया जाता है पर कुछ इस तरह कि उनका मुनाफा और पूंजी और बढ़ती है। स्वभावतः ही यह मजदूर-मेहनतकश जनता को और निचोड़कर किया जाता है। इसे ही दूसरे शब्दों में ‘मुनाफा निजी और घाटा सार्वजनिक’ कहा गया है। 
    
भारत में कांग्रेसियों के राज में यही होता रहा जिन्होंने 1980 के दशक में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की शुरूआत की और 1991 से इसे नये गुणात्मक स्तर पर पहुंचाया।
    
पर हिन्दू फासीवादी जरा भिन्न किस्म के हैं। उनका बुनियादी चरित्र फासीवादी है और फासीवाद का बुनियादी चरित्र है हर चीज को डंडे से हांकना। वे व्यक्ति, समाज, प्रकृति हर चीज को डंडे से चलाना चाहते हैं। इसीलिए वे यह भूल जाते हैं या समझ नहीं पाते कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप एक हद तक और एक खास तरीके से ही किया जा सकता है। उसे मनमर्जी से डंडे से नहीं हांका जा सकता। दुर्भाग्यवश देश के हिन्दू फासीवादियों ने पिछले दस सालों में अर्थव्यवस्था को इसी तरह संचालित करने की कोशिश की है। अपनी इसी सोच और मानसिकता के तहत ही हिन्दू फासीवादियों ने नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन जैसे फैसले लागू किये जिसने पहले ही संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। 
    
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुद्रा एक तरह से उसकी जीवन रेखा है क्योंकि पूंजीवाद में हर आर्थिक गतिविधि खरीद-बेच के जरिये सम्पन्न होती है और खरीद-बेच में मुद्रा आज अनिवार्य माध्यम है। भारत जैसे देश में जहां आज भी छोटी सम्पत्ति की तथा छोटे लेन-देन की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी है वहां नकदी मुद्रा की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। यह इसी से पता चलता है कि ‘‘कैशलेस इकानामी’ के इतने शोर-शराबे के बावजूद नोटबंदी के बाद नकदी मुद्रा तब के मुकाबले आज लगभग दो गुनी हो चुकी है- करीब अठारह लाख करोड़ रुपये से बढ़कर करीब छत्तीस लाख करोड़ रुपये। ऐसे में नवंबर 2016 में एक झटके में करीब छियासी प्रतिशत नकदी मुद्रा को चलन से बाहर कर देना अर्थव्यवस्था पर एक तरह से प्राणघातक हमला था। इससे छोटे और मध्यम उद्यमों पर चोट पड़ी उससे वे आज भी नहीं उबर पाये हैं। 
    
भारतीय अर्थव्यवस्था के चरित्र को देखते हुए नोटबंदी के फैसले का कोई भी औचित्य नहीं था। इसीलिए पूंजीवादी दायरों में इसकी चौतरफा आलोचना हुई। किसी भी पूंजीवादी अर्थशास्त्री के पास इसे जायज ठहराने का कोई तर्क नहीं था। यह अकारण नहीं है कि आज आठ साल बाद इस फैसले पर हिन्दू फासीवादियों ने पूर्ण चुप्पी साध ली है। 
    
मानो नोटबंदी द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था पर घातक हमला ही काफी न हो, करीब एक साल बाद हिन्दू फासीवादियों ने इस पर एक और हमला जीएसटी के रूप में बोला। पर यह कहना होगा कि नोटबंदी के मुकाबले इस बार कोई औचित्य था। यह औचित्य था देश की एकाधिकारी पूंजी के हित में भारतीय बाजार का जबरिया एकीकरण। यदि नोटबंदी से एकाधिकारी पूंजी ने कुछ नुकसान के साथ कुछ फायदा भी उठाया था- अर्थव्यवस्था की आम दुर्गति से जहां नुकसान हुआ था  वहीं बढ़ते एकाधिकारीकरण से फायदा हुआ- तो जीएसटी उसकी मांग पर ही लागू किया गया था। यह हिन्दू फासीवादियों की ‘एक देश, एक कानून’ की सोच के अनुरूप भी थी। 
    
जीएसटी देश के पैमाने पर भारतीय अर्थव्यवस्था की विविधता तथा अति असमान विकास को तो नजरअंदाज करता ही है, वह साथ ही बड़े पैमाने पर छोटे पैमाने के उद्यमों की मौजूदगी को भी नजरअंदाज करता है। इसीलिए यह समूची अर्थव्यवस्था और छोटे उद्यमों के लिए अत्यन्त कष्टकारी हो जाता है। और जब यह नोटबंदी के घातक हमले से अभी भी कराह रही अर्थव्यवस्था के ऊपर आया हो तो इसके प्रभाव को समझा जा सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि 2019 तक भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे खड्ड में जा चुकी थी। 
    
अर्थव्यवस्था को इस गहरे खड्ड से निकालने के बदले हिन्दू फासीवादियों ने इस पर मिट्टी डाल दी। उन्होंने यह किया लॉकडाउन के रूप में। कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया भर में सरकारों ने इस महामारी की रोकथाम के लिए भांति-भांति के लॉकडाउन किये। लेकिन भारत जैसा कहीं नहीं हुआ। रातों-रात समूचे देश को ठप्प कर देने का काम दुनिया में कहीं नहीं हुआ। और न ही कहीं इतनी कठोरता से लागू किया गया। इससे मजदूर-मेहनतकश जनता को अकथनीय कष्ट हुआ। और अर्थव्यवस्था? वह सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही सात प्रतिशत से ज्यादा गिर गई।
    
हिन्दू फासीवाद के समर्थकों ने इस लॉकडाउन को जायज ठहराने की तमाम कोशिशें की हैं पर समय के साथ वे और ज्यादा कुतर्क साबित होते जाते हैं। यह साबित होता जाता है कि समूचे देश की जनता को अकथनीय कष्ट में ढकेलने और अर्थव्यवस्था पर इस तरह मिट्टी डालने का कोई औचित्य नहीं था। 
    
नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन पर पहले ही काफी लिखा-पढ़ा जा चुका है। तब इस पर एक बार फिर बात करने की क्या आवश्यकता है? इसकी आवश्यकता दो वजहों से है। 
    
पहली वजह तात्कालिक है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति है उसे सकल घरेलू उत्पाद के फर्जी आंकड़ों से नहीं छिपाया जा सकता। ढेरों अन्य सरकारी आंकड़े ही इसकी पोल खोल देते हैं। आम जनत अपनी जिन्दगी के अनुभवों से अर्थव्यवस्था की इस दुर्गति को महसूस कर रही है। ऐसे में इसे स्वीकार किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यदि इस दुर्गति को स्वीकार नहीं किया जाता तो इसको भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यहां तक हालात पहुंचे कैसे। और इसके बिना तात्कालिक समाधान के उपाय नहीं किये जा सकते।
    
उदाहरण के लिए नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन ने सबसे ज्यादा नुकसान छोटे-मझोले उद्यमों का किया। खेती के बाद ये ही सबसे ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराते हैं। स्वयं सकल घरेलू उत्पाद में भी इनका बड़ा योगदान है। ऐसे में भयंकर बेरोजगारी की समस्या का समाधान इस क्षेत्र को नजरअंदाज कर नहीं किया जा सकता। यह इसलिए भी कि बड़े एकाधिकारी उद्यम पूंजी सघन हैं और उनमें रोजगार की संभावनाएं अत्यन्त सीमित हैं।
    
हिन्दू फासीवादी सरकार का इस मामले में रुख अत्यन्त दिक्कततलब है। वह बस जुबानी खर्च में लगी हुई है। छोटे-मझोले उद्यमों को खड़ा करने के कोई भी वास्तविक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
    
शायद इसका एक कारण हिन्दू फासीवादियों की अर्थव्यवस्था की दूरगामी नियति के बारे में आम सोच में है। यहीं से उनकी दूसरी वजह पर आया जा सकता है। 
    
बहुत सारे तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि हिन्दू फासीवादी भारतीय अर्थव्यवस्था की जो दूरगामी तस्वीर देखते हैं उसमें हर क्षेत्र में बड़े खिलाड़ियों की मौजूदगी होगी। यानी हर क्षेत्र में एक या दो बड़े खिलाड़ी होंगे जो एकाधिकारी ढंग से उस क्षेत्र को संचालित कर रहे होंगे। यह अंततः समूची भारतीय अर्थव्यवस्था को दो एकाधिकारी घरानों को सौंपने की नीति है। वर्तमान समय में ये दो घराने अंबानी और अडाणी हैं। 
    
हिन्दू फासीवादियों ने यह माडल शायद दक्षिण कोरिया से लिया है जहां सरकारी हस्तक्षेप से हर क्षेत्र में एक या दो एकाधिकारी कंपनियों को विकसित किया गया। इस दक्षिण कोरियाई माडल की और चाहे जो विशेषता हो, पर यह सच्चाई है कि भू-राजनीतिक वजहों से वहां अमरीकी साम्राज्यवादियों की मौजूदगी और दक्षिण कोरिया को बड़े पैमाने के आर्थिक सहयोग के बिना दक्षिण कोरिया का वह विकास नहीं हो सकता था। 
    
पर हिन्दू फासीवादियों को इतिहास की इन छोटी-मोटी सच्चाईयों से क्या लेना-देना। वे तो इतिहास को भी डंडे से संचालित करने के हामी हैं इसीलिए उन्हें लगता है कि वे डंडे के बल पर समूची भारतीय अर्थव्यवस्था को नये सिरे से ढाल देंगे। इसमें छोटी सम्पत्ति खत्म हो जायेगी। छोटे-मोटे उद्यम खत्म हो जायेंगे। समूची अर्थव्यवस्था पर मुट्ठी भर एकाधिकारी पूंजीपतियों का अधिकार होगा और हिन्दू फासीवादी उनके साथ तालमेल बैठाते हुए पूरे समाज को संचालित करेंगे। 
    
ऐसे में यदि नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन जैसे फैसले समाज में भयानक तबाही ढाते हुए भी अर्थव्यवस्था को उपरोक्त एकाधिकारीकरण की ओर ढकेलते हैं तो यह हिन्दू फासीवादियों की दूरगामी योजना में योगदान ही होगा। हिटलर कहा करता था कि इतिहास सिकन्दर, चंगेज खां या नैपोलियन द्वारा ढाई गयी तबाही को याद नहीं करता बल्कि उनकी तबाही द्वारा लाये गये ऐतिहासिक परिवर्तनों को ही याद रखता है। अचरज नहीं होगा, यदि हिटलर के ये वारिस ऐसा ही सोचते हों। वे इसी तरह 2047 तक भारत को विकसित भारत बनाने का सपना देखते हों।
    
हिन्दू फासीवादियों की इन प्रवृत्तियों को यदि ध्यान में रखें तो यह समझना आसान हो जायेगा कि वे क्यों मजदूर-मेहनतकश जनता की भयानक दुर्दशा के प्रति इतने असंवेदनशील हैं? क्यों वे बेरोजगारी और महंगाई को समस्या नहीं मानते? क्यों वे इन सबके बावजूद ‘विकसित भारत’ की बात करते हैं? क्यों पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के आम नियमों को हिकारत से नजरअंदाज कर देते हैं? क्यों अर्थव्यवस्था के मामले में भी डंडे को इतनी प्रधानता देते हैं?
    
पर जैसा कि कहा जाता है, चीजें अपने विपरीत में बदल जाती हैं। हिन्दू फासीवादी एक दिन पायेंगे कि उनका डंडा उनके ही सिर पर पड़ रहा है। बल्कि अभी से पड़ने भी लगा है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।