रामायण के रचयिता माने जाने वाले वाल्मीकि के बारे में एक कहावत प्रचलित है। कहा जाता है कि वे पहले एक डाकू थे जो लूटमार कर अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। इसी क्रम में एक दिन उनका सामना साधुओं के दल से हुआ। उनमें से एक ने उनसे पूछा कि वे यह लूटमार क्यों करते हैं। इस पर वाल्मीकि ने जवाब दिया कि वे अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए यह करते हैं। तब उस साधु ने उनसे कहा कि वे अपने परिवार से पूछ कर आयें कि क्या वे लोग बदले में वाल्मीकि द्वारा किये जा रहे पाप में भागीदार होंगे। वाल्मीकि ने जब यह सवाल अपने परिवार से पूछा तो वे लोग साफ मुकर गये। उन्होंने छूटते ही कहा कि वे क्यों उनके पाप में भागीदार होंगे? पाप वे कर रहे हैं तो पाप की सजा वे ही भुगतें। इतना सुनते ही वाल्मीकि को ज्ञान हो गया और डाकू का पेशा छोड़कर सन्यासी हो गये। बाद में उन्होंने रामायण की रचना की।
आधुनिक वाल्मीकि और उसके परिवार की कथा भी कम रोचक नहीं है। यह वाल्मीकि भी भयंकर लूटमार करने में व्यस्त है। पर वह लूटमार जितना अपने परिवार के लिए कर रहा है, उससे ज्यादा स्वयं के लिए कर रहा है। वाल्मीकि तो एक समय डाकू का पेशा छोड़ सन्यासी हो गये थे पर यह 74 साल की उम्र में भी सन्यास की ओर जाने का कोई संकेत नहीं देता। वैसे उसने बड़ी चालाकी से पहले ही खुद को फकीर घोषित कर रखा है और कहता है कि कभी भी झोला उठा कर चल देगा।
इस वाल्मीकि ने पिछले दस सालों में जो लूटमार की है उससे उसके परिवार को बहुत फायदा हुआ है। उसके परिवार के लोग समाज के पोर-पोर में पैठ कर रहे हैं। परिवार के अभिजन सब जगह हावी हो रहे हैं जबकि लंपट समाज में तांडव कर रहे हैं। पूरा समाज इनसे त्राहि-त्राहि कर रहा है।
अब त्राहि-त्राहि की गुहार लगा रही जनता ने प्रतिक्रिया शुरू कर दी है। डाकू की लूटमार के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट रहा है। डाकू ने जो फकीर का भेष धारण कर रखा था वह तार-तार हो रहा है और उसका डाकू वाला असली चेहरा सामने आ रहा है।
ऐसे में डाकू का परिवार पहले वाले वाल्मीकि के परिवार की तरह व्यवहार कर रहा है। वह डाकू के पाप में भागीदार होने से इंकार कर रहा है। वह कुछ इस तरह की बात कर रहा है मानो उसकी इस लूटमार से सहमति नहीं थी। वह इसे डाकू की अपनी कारस्तानी बताने का प्रयास कर रहा है।
अपने ही परिवार के इस रुख से डाकू को कुछ परेशानी होना स्वाभाविक है। वैसे यह कहना होगा कि इस डाकू ने जो लूटमार की थी वह उतना परिवार के लिए नहीं थी, जितना अपने लिए। हां, परिवार को भी खूब फायदा हो रहा था तो परिवार उसके साथ था। अब जब परिवार सारे पाप का ठीकरा डाकू के सिर फोड़ अपने को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रहा है तो डाकू का कुछ परेशान होना स्वाभाविक है।
अब डाकू ने अपने परिवार को थोड़ा खुश करने के लिए यह ऐलान किया है कि सरकारी अफसर चड्डीधारी गिरोह में शामिल हो सकते हैं। वे खाकी निक्कर पहन कर शाखा में जा सकते हैं। इस मामले में लगभग छः दशक से लगा प्रतिबंध हटा लिया गया है।
भविष्य में कितने सरकारी अफसर और कर्मचारी चड्डीधारी गिरोह का हिस्सा बनते हैं, यह देखना होगा। पर यह स्पष्ट है कि डाकू और उसके परिवार के बीच इस समय चल रही खींच-तान जारी रहेगी। हां, यह याद रखना होगा कि यह सारा मसला एक परिवार के भीतर का है, दुश्मनों के बीच का नहीं।
आधुनिक वाल्मीकि का परिवार
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।