इटली में फासीवादी हमले के खिलाफ प्रदर्शन

इटली के फ्लोरेंस में शनिवार 4 मार्च को एक जोरदार प्रदर्शन हुआ। यह प्रदर्शन उस फासीवादी हमले के खिलाफ था जो 18 फ़रवरी को फ्लोरेंस के एक हाईस्कूल में हुआ था। इस प्रदर्शन में युवा, अध्यापक और मज़दूर शामिल रहे। इनकी संख्या 50,000 के करीब बताई जा रही है।

दरअसल एक दक्षिणपंथी संगठन अज़ियने स्टूडेंटेस्का के सदस्यों ने यह हमला उस वक्त किया जब उनके विचारों वाले पर्चे से छात्र सहमत नहीं थे और उन्होंने उनसे असहमति व्यक्त की थी। दो छात्रों को अपनी असहमति दर्ज़ कराने के लिए उस संगठन के सदस्यों ने बहुत पीटा। दक्षिणपंथी संगठन के 6 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

इस हमले के बाद उस स्कूल के प्रशासन का रवैया बेहद चिंताजनक था। उन्होंने इस फासीवादी हमले को छात्रों के दो गुटों के बीच झड़प बताया। इतना ही नहीं शिक्षा मंत्री गिसेप्पे वालडिटारा जो कि खुद दक्षिणपंथी संगठन ‘लेगा’ से जुड़े हैं, उन्होंने भी इसे छात्रों के बीच झड़प ही बताया। उन्होंने एक स्कूल के प्रिंसिपल अनालिस सालवीनो की निंदा की जिन्होंने इसे फासीवादी हमले के रूप में चिन्हित किया था।

शिक्षा मंत्री के इस बयान ने लोगों को गुस्से से भर दिया। और वे प्रिंसिपल सालवीनो के समर्थन में उतर आये। और 4 मार्च को फासीवादी हमले के विरोध में एक विशाल जुलूस निकला।

इटली की मेहनतकश जनता ने मुसोलिनी के फासीवादी शासन को देखा है। इस दौरान हजारों जानें फासीवादियों ने लेकर दमन की दास्तां रची। जितना क्रूर फासीवादी शासन था उतना ही जुझारू इसके खिलाफ जनता का संघर्ष भी था जिसमें सैकड़ों लोग शहीद हुए। फासीवाद के खिलाफ लम्बी लड़ाई से यहां फासीवाद विरोधी चेतना पैदा हुई। फासीवाद का कोई भी रूप उन्हें मुसोलिनी के शासन की याद दिला देता है।

लेकिन संकटग्रस्त इटली की अर्थव्यवस्था फासीवाद की ओर झुकती जा रही है। पिछले समयों में इटली में भी फासीवादी संगठनों को शह मिल रही है और भारत की तरह इटली में भी नवफासीवादी ताकतें केन्द्रीय सत्ता तक पहुंच चुकी हैं। मुसोलिनी व उसके शासन की तारीफ करने वाली जियार्जिया मैलोनी वर्तमान में इटली की प्रधानमंत्री हैं, वहीं फासीवाद विरोधी लोग इनका विरोध भी कर रहे हैं। मौजूदा घटना इसी की एक बानगी है।

फासीवादी हमले का निशाना शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं भी बनते हैं। हम भारत में भी देख रहे हैं कि किस तरह उन कॉलेजों को निशाना बनाया जा रहा है जहां थोड़ा जनवादी माहौल है। भारत के कालेजों में भी हमें इसी तरह के दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा छात्रों पर हमले की घटनाएं देखने-सुनने को मिल रही हैं।

निश्चित रूप से समाज के हर व्यक्ति को ऐसे फासीवादी हमलों के खिलाफ खड़ा होना होगा।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।