कश्मीर चुनाव : भाजपा और अलगाववादियों की दोस्ती

जम्मू-कश्मीर में चुनाव के ऐलान के बाद से राजनैतिक तीन तिकड़में पूरा जोर पकड़ चुकी हैं। कांग्रेस व नेशनल कांफ्रेंस पहले ही मिलकर चुनाव लड़़ने की घोषणा कर चुकी हैं। पीडीपी स्वतंत्र रूप से अकेले चुनाव लड़ रही हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस से जुड़े कुछ नेता भी इस चुनाव में कश्मीर घाटी से चुनाव लड़ रहे हैं। सबसे हास्यास्पद स्थिति भाजपा की है जो हिन्दू बहुल जम्मू में तो सभी सीटों पर लड़ रही है पर उम्मीद के मुताबिक संभावना यही है कि लोकसभा चुनाव की तरह ही वह विधानसभा चुनाव में कश्मीर घाटी की ज्यादातर सीटों पर चुनाव नहीं लड़े। 
    
कश्मीर घाटी में धारा 370 हटाने के चलते भाजपा ही आम जनमानस की सर्वाधिक नफरत का शिकार है। ऐसे में यहां ज्यादातर सीटों पर चुनाव जीतना तो दूर जमानत तक बचा पाना भाजपा के लिए मुश्किल है। ऐसे में भाजपा यहां प्रत्याशी खड़े कर अपनी भद्द पिटते नहीं देखना चाहती।
    
इन हालातों में जम्मू कश्मीर में अपनी सरकार बनाने का सपना संजोए भाजपा मण्डली के पास केवल एक ही रास्ता बचता है कि जम्मू की ज्यादातर सीटों पर वह जीतने का प्रयास करे। पर भाजपा-संघ की मण्डली जानती है कि जम्मू-कश्मीर की आज की बदहाली भरी स्थिति में जम्मू में भी सारी सीटें जीतना उसके लिए मुश्किल है। ऐसे में भाजपा अलग तरीके से षड्यंत्र रचने में जुट गयी है। इसका एक नमूना उसने लोकसभा चुनाव में भी दिखाया था। अब वह यह व्यापक तौर पर करना चाहती है। यह है पर्दे के पीछे से हुर्रियत के नेताओं को जिन्हें वह अलगाववादी कहती है, से सांठ-गांठ करना और उन्हें कश्मीर घाटी में समर्थन दे पीडीपी व नेशनल कांफ्रेंस की कश्मीर घाटी में सीटें कम करने की कोशिश करना। 
    
खासकर अल्ताफ बुखारी की ‘अपनी पार्टी’, सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस, इंजीनियर राशिद की अवामी इत्तेहाद पार्टी और गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी के साथ तो भाजपा नेता जोड़तोड़ बनाने की कोशिश कर ही रहे हैं। इसके साथ ही वे हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं के साथ भी यहां तक कि जमात-ए-इस्लामी सरीखे कट्टरपंथी संगठनों के साथ भी जोड़तोड़ की कोशिशों में हैं। लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला को हराने में इंजीनियर राशिद को गुप्त रूप से समर्थन का लाभ भाजपा देख चुकी है। तब जेल में बंद राशिद चुनाव जीत गये थे। भाजपा की चाहत यह है कि ये हुर्रियत नेता कुछ सीटें जीत जायें ताकि सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस या पीडीपी न बन पायें। एक बार अगर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है तो फिर या तो भाजपा खुद सरकार बनायेगी या केन्द्र की ताकत का इस्तेमाल कर किसी की सरकार नहीं बनने देगी। इस तरह जम्मू-कश्मीर में दोनों सूरतों में उसका ही शासन चलता रहेगा। 
    
भाजपा का यह षड्यंत्रकारी गणित बेहद रोचक है। कौन सोच सकता है कि देश भर में कश्मीर को अपना अभिन्न अंग बताने वाले, दिन रात पाकिस्तान को कोसने वाले, अंधराष्ट्रवाद का जहर फैलाने वाले कश्मीर चुनाव में कश्मीर की आजादी की बात करने वालों, धारा 370 की बहाली की मांग करने वालों से हाथ मिला लेंगे। लेकिन यही हकीकत है। भाजपा दिखा रही है कि सत्ता पर नियंत्रण के लिए वो कुछ भी कर सकती हैं।
    
जहां भाजपा ये सब षड्यंत्र करने में जुटी है वहीं कांग्रेस पार्टी भी जीत के लिए पूरा जोर लगा रही है। कठुआ बलात्कार काण्ड के वक्त बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकालने वाले भाजपाई नेता लाल सिंह अब कांग्रेस के पाले में आ चुके हैं और कांग्रेस ने उन्हें चुनाव में प्रत्याशी बना दिखा दिया है कि महिला हिंसा के मामले में वह भी सिर्फ घड़ियाली आंसू ही बहाती है। वक्त आने पर वह भी किसी बलात्कारी को अपनाने में कोई गुरेज नहीं करने वाली। इस मामले में उसमें व भाजपा में कोई  फर्क नहीं है। 
    
कश्मीरी अवाम इन सारे षड्यंत्रों के बीच हैरान-परेशान है। एक ओर कट्टरपंथी अलगाववादी साम्प्रदायिक संगठन हैं तो दूसरी ओर भारत परस्त पीडीपी-नेशनल कांफ्रेंस। कश्मीरी अवाम की कश्मीरियत की मांग उठाने वाला कोई नहीं है। ऐसे में जनता के लिए संतोष की बात इतनी ही है कि चलो चुनाव तो हो रहे हैं। वह किसी तरह केन्द्र के शासन से मुक्ति की खातिर किसी को भी चुनने को तैयार है। पर भाजपाई षड्यंत्र हर कीमत पर केन्द्र का शासन बनाये रखने पर उतारू है।
    
आने वाला वक्त बतायेगा कि भाजपाई अपने षड््यंत्रों में कामयाब होते हैं या जम्मू-कश्मीर में गैर भाजपा सरकार गठित हो उसके मंसूबों में पलीता लगता है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।