कुवैत में मजदूरों की मौत : ये अग्निकांड नहीं, हत्याकांड है !

12 जून को कुवैत की एक इमारत में आग लगने से 50 से अधिक मजदूर मारे गये। मारे जाने वाले मजदूरों में से 41 भारतीय बताये जा रहे हैं। इस छोटी सी इमारत में 196 मजदूर ठूंस-ठूंस कर रखे गये थे। आग तड़के उस वक्त लगी जब मजदूर रात की ड्यूटी के बाद सो रहे थे। ज्यादातर मजदूर दम घुटने से ही मर गये। इमारत में एक ही निकास होने और छत का दरवाजा बंद होने से मजदूरों को भाग कर जान बचाने का भी मौका नहीं मिला। 50 से अधिक मजदूर घायल हैं। 
    
दक्षिण कुवैत में मंगाफ स्थित इस इमारत को एन बी टी सी ग्रुप ने किराये पर लेकर क्षमता से काफी अधिक मजदूरों को यहां रखा हुआ था। मजदूरों को काम पर भी इसी ग्रुप ने रखा था। जिस इमारत में आग लगी उसका मालिक एक मलयाली के जी अब्राहम बताया जा रहा है। कुवैत सरकार ने बिल्डिंग मालिक को गिरफ्तार करने का आदेश दिया है। 
    
कुवैत में 10 लाख से अधिक भारतीय रहते हैं। इनमें से ज्यादातर निर्माण, घरेलू नौकर, ड्राइवर, मजदूर, नर्सिंग आदि का काम करते हैं। दक्षिण भारतीय राज्यों में से एक बड़़ी संख्या में भारतीय युवा कुवैत, सऊदी अरब बेहतर कमाई की आस में जाते हैं। कुवैत की अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर विदेशी कामगारों पर निर्भर है। ज्यादातर मजदूर कुवैत में बेहद बुरी जीवन परिस्थितियों में जीने को मजबूर हैं। उन्हें वहां की मुद्रा में नाम मात्र की तनख्वाह (100 से 200 कुवैती दीनार या 27 से 54 हजार रु.) मिलती है। इन्हें दड़बानुमा कमरों में दर्जनों की संख्या में एक साथ रहना पड़ता है। अक्सर 2-3 साल में एक चक्कर ही ये अपने घर का लगा पाते हैं। ढेरों मजदूर तो स्थानीय कड़े कानूनों के शिकंजे में फंस जेल तक पहुंच जाते हैं। अक्सर मजदूर मामूली सी तनख्वाह में भी नाम मात्र का खर्च कर बाकी रकम भारत अपने परिजनों को भेज देते हैं। ज्यादातर मजदूर कुछ वर्ष काम कर भारत में किसी धंधे लायक रकम जुटा भारत लौटना चाहते हैं। भारत में बेकारी व तंगहाली मजदूरों को इन देशों में जा नारकीय स्थितियों में काम को मजबूर कर रही है। इसी तंगी के चलते अच्छे वेतन की आस में भारतीय मजदूर इजरायल के युद्ध क्षेत्रों में जाकर भी काम करने को तैयार हैं। 
    
जाहिर है कि ऐसे हादसे कुवैत-सऊदी अरब जैसे देशों में भारतीय मजदूरों के साथ अक्सर होते रहते हैं। हर हादसे के वक्त सुरक्षा उपायों का रोना रोया जाता है पर फिर मालिकों को मनमानी के लिए छोड़ अगले हादसे का इंतजाम कर दिया जाता है। इसीलिए दरअसल ये हादसा या अग्निकांड नहीं हत्याकांड है। कुवैत में मजदूरों की बेरहमी से हत्या की गयी है। 
    
जाहिर है इस हत्याकांड के दोषी एन बी टी सी ग्रुप व इमारत की मालिक कम्पनी तो है ही पर दोषियों की फेहरिस्त में कुवैती सरकार व कुवैत का पूंजीपति वर्ग भी है जो मुनाफे की खातिर प्रवासी मजदूरों को इन बुरी परिस्थितियों में रखता है। पर हत्यारों की फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। दोषियों में भारत सरकार एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अगर देश में ही नागरिकों को बेहतर रोजगार व जीवन मिल रहा होता तो उन्हें विदेश जाकर जान खतरे में डालने की जरूरत नहीं पड़ती। पर भारत में मोदी सरकार की नीतियों के चलते बेरोजगारी घटने के बजाय लगातार बढ़ रही है। इसीलिए मोदी सरकार इन हत्याओं के गुनाह से खुद को बरी नहीं कर सकती। 
    
मोदी सरकार ने मजदूरों का हमदर्द होने की नौटंकी कर कुछ मुआवजा व घड़ियाली आंसू बहाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। चाटुकार मीडिया ‘मोदी सरकार एक्शन में’ चला मोदी सरकार की वाहवाही में जुट गया है। हत्यारों का गिरोह जिसमें भारत व कुवैत दोनों की सरकारें शामिल हैं अपने रचे हर हत्याकाण्ड पर ऐसे ही व्यवहार करते हैं और अगले हत्याकांड की तैयारी करते हैं। उनकी इस नौटंकी के बीच बेगुनाह मजदूर कभी देश में तो कभी विदेश में लगातार शिकार बनते रहते हैं।   

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।