तृणमूल कांग्रेस की सांसद मोहुआ मोइत्रा के बारे में एक भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की सूचना और सर्वोच्च न्यायालय के एक वकील जय अनंत देहाद्राई की गवाही के बाद संसद की नैतिकता समिति ने त्वरित कार्यवाही के बाद अपनी रिपोर्ट संसद के स्पीकर को सौंप दी है। इसमें महुआ की संसद से शीघ्र निष्कासन की सिफारिश की गई है। इस पूरे घटनाक्रम से मौजूदा सरकार के नेतृत्व में विपक्षियों को फंसाने की भाजपाई रणनीति और मुख्यधारा के मीडिया का सरकारपरस्त चरित्र स्पष्ट होता है।
2016 में पश्चिम बंगाल की विधायक और 2019 में लोकसभा सांसद बनी मोहुआ अपनी प्रखर भाषण शैली के चलते तेजी से लोकप्रिय हो गयीं। विदेश से शिक्षा प्राप्त मोहुआ तृणमूल कांग्रेस से पहले कांग्रेस से जुड़ी थीं। मौजूदा संसदीय विपक्ष के चुनिंदा प्रभावशाली वक्ताओं में से एक, मोहुआ अपनी धारा प्रवाह अंग्रेजी के साथ-साथ अपने मोदी विरोध, अडाणी विरोध के कारण सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरती रही हैं।
मोहुआ मोइत्रा पूंजीवादी लोकतंत्र के प्रति दृढ़ विश्वास से ओत प्रोत उन तमाम लोगों में से एक रही हैं जो पूंजीवादी लोकतंत्र को आदर्श रूप में व्यवहार में उतरते देखने का ख्वाब पालते हैं। ये इस पूंजीवादी लोकतंत्र के पहले से सीमित जनवाद को लात लगाते हिन्दू फासीवादी ताकतों के व्यवहार से आहत होते हैं और अपने तर्कों से मौजूदा सरकार को घेरने का प्रयास करते हैं। ये लोग इस हकीकत को नहीं देख पाते कि फासीवादी मोदी और हिटलर दोनों पूंजीवादी लोकतंत्र और संविधान का जाप करते हुए ही सत्ता पर पहुंचे और मोदी पूंजीवादी लोकतंत्र और संविधान को लात लगाते हुए भी इसका जाप कर रहे हैं। वे यह सच्चाई नहीं देख पाते कि पूंजीवादी लोकतंत्र और फासीवाद दोनों ही पूंजीपति वर्ग के शासन के ही दो रूप हैं एक अपेक्षाकृत नरम है तो दूसरा क्रूर। वैसे मोहुआ को मोदी में तो फासीवादी लक्षण नजर आते हैं पर ममता बनर्जी के शासन में वे फासीवादी छाप नहीं देख पातीं। जबकि तृणमूल कांग्रेस का बंगाल में शासन भी फासीवादी तौर-तरीके अपनाता रहा है।
पर हालिया घटनाओं ने शायद मोहुआ को भी यह अहसास दिलाया हो कि पूंजीवादी राजनीति स्वयं पूंजीवादी जनवाद के मूल्यों पर नहीं टिकी है। उसका पतन सामान्यतः ही हो चुका है और खासकर मोदी सरकार में उसका स्थान एक भ्रष्ट-अंध-राष्ट्रवाद से ओत प्रोत फासीवाद ने ले लिया है। मोहुआ अभी भी प्रखरता से बोलती हुई दिखाई देती हैं, हालांकि अब वे थोड़ी असंयत अवश्य दीखती हैं।
भारतीय अर्थवव्यस्था की बदहाल स्थिति पर भाजपा के दुष्प्रचार को तथ्यों के साथ बेनकाब करने वाली मोहुआ मोइत्रा सत्तापक्ष की आंखों में तब खटकने लगीं जब उन्होंने मोदी-अडाणी संबंधों पर दमदार तरीके से सवाल खड़े किये। अडाणी के कोयला घोटाले पर सरकार को घेरते हुए उन्होंने विपक्ष की आवाज बनकर ललकारा कि देश को मोदी छोड़ कोई भी चलेगा, पर मोदी और नहीं चाहिए।
पूर्ण बहुमत की मौजूदा सरकार के पास अपनी फासीवादी विचारधारा के अनुरूप इस बात का पूरा अवसर है कि वह संसद की कार्यवाहियों में अति अल्प विपक्ष के साथ अपने मन माफिक व्यवहार करे। विपक्षी सांसदों के निलंबन और पूरे-पूरे सत्र के लिए निष्कासन, राजनीतिक विरोध के बावजूद विपक्षियों द्वारा मोदी विरोध की मर्यादा खींचने का काम यह सरकार करती रही है। इसी कड़ी में मोहुआ अगली विपक्षी सांसद हैं, जो शिकार बन रही हैं।
मोहुआ पर असंसदीय आचरण की जांच के लिए एक नैतिकता समिति का गठन हुआ, जिसमें 15 सदस्य थे। इसमें भाजपा और सहयोगी दलों के अलावा विपक्ष के सांसदों को भी लगभग आधे का स्थान दिया गया।
मोहुआ पर आरोप है कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत मित्र दुबई निवासी उद्योगपति हीरानंदानी को लोकसभा पोर्टल पर सवाल अपलोड करने के लिए अपना लॉगिन आईडी पासवर्ड उपलब्ध कराया और अपने उद्योगपति मित्र के व्यवसायिक हितों के मद्देनजर उनके प्रतिद्वंद्वी उद्योगपति गौतम अडाणी के खिलाफ संसद में सवाल पूछे या भाषण दिए। आरोपों को और गंभीर शक्ल तब मिल जाती है जब इन सवालों के बदले मोहुआ पर हीरानंदानी से महंगे गिफ्ट और धन समेत अन्य भौतिक लाभ लेने के आरोप कथित तौर पर जोड़ दिए जाते हैं। इनके आधार में वकील देहाद्राई और हीरानंदानी के द्वारा दिये गए शपथ पत्र हैं। हीरानंदानी के शपथ पत्र में मोहुआ पर तेजी से नाम कमाने के लिए अपने मित्रों की सलाह पर मोदी पर हमला करते हुए भाषण देने के आरोप हैं, स्वयं हीरानंदानी के समझने में फेर (एरर आफ जजमेंट) की स्वीकारोक्ति है। मोहुआ द्वारा कुछ महंगे गिफ्ट्स/फेवर्स मांगने/लेने का जिक्र भी है।
मोहुआ जहां एक तरफ लॉगिन डिटेल्स देना और इक्का-दुक्का फेवर्स लेना स्वीकार करती हैं, वहीं उनका कहना है कि न तो सांसदों के लिए ऐसा कोई नियम है और न ही इसका राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई लेना-देना है। उनके अनुसार तमाम सांसद प्रश्न टाइप करने में सहायकों का उपयोग करते हैं और सवाल अपलोड तभी होते हैं जब सांसद के फोन पर आया ओटीपी बताया जाता है। उनका विश्वास है कि हीरानंदानी से यह एफिडेविट दबाव में दिलवाया गया है। उनका यह भी कहना है कि हीरानंदानी से किसी भी संस्था ने पूछताछ नहीं की। उनके खिलाफ पैसे लेकर सवाल पूछने के कोई सबूत नहीं हैं, तो भी उनका वाहयात सवालों से चीरहरण करने का प्रयास करने वाली नैतिकता समिति निष्कासन प्रस्तावित करने को बेचैन है। यह रोचक है कि कार्यवाही के बाद कोई सरकारी संस्था आरोपों की जांच करेगी, ऐसा समिति ने संस्तुत किया है। (सरकारी गवाहों के बयान के आधार पर सजा पहले और जांच बाद में- यह तरीका हाल में अक्सर देखने में आ रहा है।)
मोहुआ की जांच के लिए गठित समिति ने जो व्यवहार किया और जिस तरीके से निष्कासन की संस्तुति की उससे स्पष्ट है कि सरकार व समिति का बड़ा हिस्सा बगैर जांच ही पहले से मोहुआ को दोषी मान कर चल रहा था। हो सकता है कि मोहुआ ने मोदी-अडाणी पर तीखे सवाल कर कुछ लोकप्रियता व कुछ फेवर की चाह रखी हो पर मोदी सरकार सवाल का जवाब देने के बजाय सवाल उठाने वाले से निपटने की हरकत कर खुद ही साबित कर रही है कि मोदी-अडाणी संबंधों की दाल जरूर काली है। इसीलिए इससे जुड़े प्रश्नों पर समूची सरकार बौखला जाती रही है।
इस तरह संघी सरकार अपनी एक प्रखर विरोधी को ठिकाने लगाने में कामयाब होती दिख रही है पर ठिकाने लगाने के उतावलेपन में फासीवादी हुकूमत किस कदर गिर सकती है यह भी चहुंओर उजागर हो रहा है।
मोहुआ मोइत्रा : हंगामा क्यूं है बरपा?
राष्ट्रीय
आलेख
इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।