ब्रह्म हत्या

‘भिक्षाम देही’ टीवी पर सीरियल चल रहा है। तिवारी जी गांव में बैठकर कोई नाटक देख रहे हैं। कभी किसी ब्राह्मण को भिक्षा मांगकर जीवन यापन करते हुए देखते हैं, तो कभी किसी आश्रम में छात्रों को शिक्षा देते हुए। और कभी किसी सम्राट को कुल पुरोहित के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हुए। सुदूर पूर्व में ब्राह्मणों का जीवन कैसा रहा होगा इसका कयास इन नाटकों को देखकर ही हुआ था। मगर तिवारी जी का वास्तविक जीवन इन सब कयासों से कोसों दूर था। पंडित जी नमस्कार! अतीत का बस यही अवशेष मात्र बचा था, जो वर्ण व्यवस्था के सबसे ऊपरी पायदान पर खड़े होने का कभी-कभी अहसास करा देता था।
    
तिवारी जी के बड़े भाई जजमानी ब्राह्मण थे, अच्छी-खासी सम्पत्ति भी जोड़ ली थी। वैसे तिवारी जी भलमानस थे, मगर खुद की आमदनी इतनी नहीं थी कि कोई सम्पत्ति जोड़ पाते। सम्पत्ति के नाम पर हिस्सेदारी में बंटा हुआ छोटा सा घर था। एक पत्नी और दो बच्चों का भरण-पोषण और न्यूनतम आमदनी कहीं न कहीं बड़े भाई के प्रति द्वेष का कारण बन गई।
    
ब्राह्मण होने के कारण, गांव में शब्दों का सम्मान तो था, परंतु शाब्दिक सम्मान जीवन की वास्तविकता के सामने घुटने टेक देता है। पिताजी की चाय की दुकान ने जीवन के 16 बसंत तो निकाल दिए, परंतु आगे का पारिवारिक जीवन ठोस सच्चाई से टकराने लगा, जो गांव की सीमाओं को तोड़ने की मांग करता था। अब गांव के भरोसे वैवाहिक जीवन की नाव किनारे नहीं लग सकती थी।
    
गांव के बहुत से लोग शहर के कारखानों में काम करते हैं। मालूम चला कि 8 घंटे की ड्यूटी और 4 घंटे का ओवरटाइम मिलाकर 12,000 रुपए मिल जायेंगे। चाय की दुकान से बमुश्किल 4000 रुपए कमाने वाले तिवारी जी के लिए 12000 रुपए की मासिक आमदनी किसी स्वप्न जैसी थी। शहर जाकर फैक्टरी में नौकरी करना तय हुआ। 
    
फैक्टरी समाज की ठोस सच्चाई होती हैं, यहां सब कुछ ठोस सत्य होता है। यहां धर्मग्रंथों के पवित्र शब्द सिर्फ दीवारों पर लिखे होते हैं और लोहे जैसी दीवारों की मजबूती शाश्वत होती है। दीवारों पर लिखी पवित्र इबारतों से ज्यादा शाश्वत वो मशीनें होती हैं जिन पर तिवारी जी जैसे करोड़ों हाथ काम करते हैं। ये मशीनें वर्ण व्यवस्था के किसी भी नियम की धज्जियां उड़ा कर रख देती हैं और वर्ण व्यवस्था से आए किसी भी वर्ण के लोगों में भेद नहीं करतीं। यहां पहर का कोई भेद नहीं। जीवित श्रम ने निर्जीव मशीनों के साथ मिलकर जिस सृष्टि की रचना की है वो किसी भी आलोकित दुनिया से ज्यादा वास्तविक है, ज्यादा शाश्वत है। सुबह 6 बजे से शाम के 6 बजे और शाम के 6 बजे से सुबह के 6 बजे ये अंतहीन धड़ धड़ाहट है जिसमें तिवारी जी के 12 घंटों को शामिल हो जाना था।
    
ठेकेदारी के तहत काम करते हुए तिवारी जी को कई महीने बीत गए थे। गांव के कष्टकारी जीवन की त्रासदी भरी बातों का स्थान अब पीएफ, ई इस आई, रेस्ट, ओवर टाइम, बोनस, बहुत से नए शब्द तिवारी जी की शब्दावली में शामिल हो उनके जीवन का कब हिस्सा बन गए ये मालूम भी न चला। कुछ महीनों बाद जब पंडित जी घर पहुंचे धर्मपत्नी, बूढ़े पिता और बच्चे जिन्हें तिवारी जी अपने नए जीवन के बारे में बताने लगे। अपनी तमाम तकलीफों के बावजूद तिवारी जी गर्व से बताते कि कैसे साप्ताहिक अवकाश के दिन पूजा-पाठ पूरे मन से किया जाता है। प्रतिमाह 7000 रुपए की बचत से तिवारी जी के मन में बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने की बात पति-पत्नी के बीच होने लगी। नया जीवन बहुत से नए सपने देखने लगा।
    
तिवारी जी अभी ठेके के मजदूर ही थे, और अभी छुट्टी का कोई पैसा नहीं मिलता था। आज पांचवा दिन है छुट्टी का, 2000 रुपए कम आयेंगे इस महीने। कल तो ड्यूटी पर जाना ही होगा, विचार मस्तिष्क में चल रहे हैं। बड़ी मिन्नत करने पर सुपरवाइजर ने 5 दिन की छुट्टी दी है। कल नहीं जाऊंगा तो काम से निकाल देगा। विदा होते समय पति-पत्नी की आंखें नम हैं, आंसुओं की पवित्रता में गहरे प्रेम का मर्म है। अपना खयाल रखना, बोलते-बोलते दो कंठ भर आते हैं। कहीं कोई रोता हुआ देख न ले, जाते हुए बच्चों और पत्नी को पलटकर देख पाना अब संभव नहीं है।
    
मंगल के दिन तिवारी जी माथे पर सिंदूरी टीका लगाते हैं। फैक्टरी गेट को नित्य ही फैक्टरी में दाखिल होने से पहले ईश्वर की मानिंद नमन करते हैं। रोज की भांति मशीनों पर माल देने का काम चल  रहा है। शाम के 5 बजे का समय है। अरे तिवारी ये काम छोड़ और मशीन चला, तिवारी जी के कान अब इस नई शब्दावली को सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं, मन में एक घुटन तो है जिन्हें हमेशा गांव में पंडित जी का संबोधन मिला इस फैक्टरी में वो सिर्फ हेल्पर हैं, एक ठेके के मजदूर और ये उतना ही बड़ा सत्य है जितना इस फैक्टरी का होना, और उतना ही बड़ा सच है सुपरवाइजर और एक ठेके के मजदूर के बीच के संबंध का होना। मैंने कभी मशीन नही चलाई। एक बालक की मासूमियत भरी सच्चाई इस शब्द में थी। कुछ और काम बता दो। अगर मशीन नहीं चलानी तो घर जा, कल से काम पर मत आना।
    
प्रोडक्शन पूरा न होने के कारण अभी कुछ देर पहले सुपरवाइजर मालिक की दुत्कार सुन कर आया था। किसी भी तरह से माल पूरा करना है। नौकरी खोने का भय, मशीन चलाने से होने वाले भय पर हावी हो जाता है। सुपरवाइजर की धमकी तुरंत असर लाती है। तिवारी जी मशीन चलाने लगते हैं। सी एन सी मशीन के भीतर जब लोहा काटा जाता है तो लोहे की छीलन मशीन में पटरे और पटरे के रास्ते के बीच फंस जाती है। पटरा जहां से चलता है फिर वापस अपनी जगह आता है। उसे अपनी प्रक्रिया पूरी करनी होती है। जिस रास्ते से पटरा चलना शुरू होता है उस शुरूआत और पटरे के बीच महज 3 इंच का गैप होता है। इस दौरान उस रास्ते के बीच जो कुछ भी आता है पटरा उसे इस 3 इंच के गैप की तरफ धकेल देता है। तिवारी जी देखते हैं कि छीलन फंसी हुई है। सोचते हैं कि हाथ से छीलन निकाल दूं। एक तरफ का रास्ता पूरा करने के बाद पटरा अपनी जगह पर वापस आता है।
    
शिफ्ट समाप्त होने वाली है। सब जाने की तैयारी कर रहे हैं। मगर तिवारी जी की सिर्फ झुकी हुई कमर दिखाई देती है। शरीर कोई हलचल नहीं करता। महज 3 इंच के गैप में पटरे के बीच तिवारी जी की गर्दन दबी है। मशीन में लोहे की छीलन अब भी वैसी ही है।           -पथिक
 

आलेख

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रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।