मर्ज कुछ, इलाज कुछ

उच्चतम न्यायालय के चुनाव आयुक्त के चयन संबंधी फैसले ने एक हलचल सी पैदा कर दी। 2 मार्च को उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय समिति करेगी जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (या सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता) और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होंगे। इस समिति के द्वारा दिये गये निर्णय के आधार पर राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त सहित अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेंगे।

इस फैसले का विपक्षी पार्टियों सहित कई-कई लोगों ने स्वागत किया परन्तु मोदी सरकार ने रहस्यमय चुप्पी साध ली। कुछेक बुद्धिजीवियों ने ही इस फैसले की यह कहकर आलोचना की कि यह न्यायपालिका का कार्यपालिका (यानी सरकार) और विधायिका (यानी संसद) के कार्यक्षेत्र में दखल है। मोदी सरकार उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के संग क्या व्यवहार करेगी वह उसकी रहस्यमय चुप्पी से ही स्पष्ट हो जाता है। उच्चतम न्यायालय का फैसला लागू होने से रोकने के लिए सरकार को या तो संसद में कानून बनाना पड़ेगा या फिर कोई अध्यादेश इस संबंध में लाना होगा। वैसे मोदी सरकार के इरादे किस तरह के रहे हैं वह अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के साथ ही साफ हो चुके थे।

अरुण गोयल को पिछले साल के नवम्बर माह में बदनीयती के साथ नियुक्त किया गया था। अरुण गोयल को दिसम्बर 2022 में रिटायर होना था। 18 नवम्बर को पहले वे स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेते हैं और फिर 24 घंटे के भीतर चुनाव आयुक्त बन जाते हैं। गोयल की नियुक्ति के पीछे क्या मंसूबे रहे होंगे इसे भांपकर विरोध शुरू हो गया और फिर मामला उच्चतम न्यायालय तक जा पहुंचा। चुनाव आयुक्त नियुक्ति से संबंधित फैसला अरुण गोयल के मामले से ही जुड़ा हुआ है। हालांकि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद भी अरुण गोयल अपनी कुर्सी से चिपके हुए हैं। और मोदी सरकार ऐसे व्यवहार कर रही है मानो कुछ हुआ ही न हो। जब मोदी सरकार को ही उच्चतम न्यायालय के फैसले से फर्क न पड़ा हो तो अरुण गोयल को क्या पड़ेगा। वह तो वैसे भी मोदी सरकार की कठपुतली हैं।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भारत के संविधान ने एक ऐसा रुख अपनाया था जो चुनाव आयुक्त पर सत्तारूढ़ दल को मनचाही स्थिति प्रदान कर देता है। वह अपनी पसंद के चुनाव आयुक्त को कभी भी नियुक्त कर सकती है। मोदी सरकार से पहले भी इसके चयन व नियुक्ति को लेकर विवाद उठते रहते थे परन्तु अब हिन्दू फासीवादी सरकार ने जिस तरह से हर संस्था को प्रदूषित कर दिया है ठीक उसी ढंग से चुनाव आयोग का भी हाल हुआ। मोदी-शाह-योगी सरेआम चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते रहते हैं परन्तु उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। प्रधानमंत्री के व्यवहार की नकल भाजपा के मंत्री-विधायक भी करते रहते हैं। चुनाव के दौरान जमकर धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिए बयानबाजी की जाती है। मुस्लिम व ईसाईयों को आतंकित किया जाता है। चुनाव आयोग में बैठे हिन्दू फासीवादी मूल्यों से लैस लोगों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं होता है। ठीक इसके उलट विपक्षी पार्टियों के लिए चुनाव आयोग का व्यवहार उलटा हो जाता है।

उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को कुछ लोग ऐसे पेश कर रहे हैं मानो अब सब कुछ ठीक हो जायेगा। वे बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाल रहे हैं। और स्वयं उच्चतम न्यायालय ने भी ऐसा ही किया है। उसने अपने फैसले में बड़ी-बड़ी बातें की हैं। स्वतंत्र व स्वच्छ चुनाव (फ्री एण्ड फेयर इलेक्शन) की बातों का तूमार बांधा है। लोकतंत्र की दुहाई दी है और बराबरी, आजादी, भाईचारे के नारे का हवाला दिया है और मौजूदा चुनाव आयुक्त की निर्वाचन प्रणाली पर कई प्रश्न खड़े किये हैं। असल में ये सब हवा-हवाई बातें हैं। पूंजीवादी लोकतंत्र का इतिहास और वर्तमान बतलाता है कि इसका क्या हाल हो गया है। ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस जैसे साम्राज्यवादी देश हों या फिर भारत, बांग्लादेश, कीनिया जैसे देश हों; असल ताकत हमेशा ही अदृश्य हाथों के पास होती है। ये अदृश्य ताकतें ही असल में तय करती हैं कि कौन से दल की सरकार बनेगी और कौन प्रधानमंत्री होगा। यहां तक कि मंत्रियों की नियुक्ति से लेकर नये अधिकारियों का चयन तक ये अदृश्य ताकतें ही करती हैं। ये ही चुनाव के लिए दलों को धन मुहैय्या कराती हैं और ये ही प्रचार तंत्र को नियंत्रित करती हैं। अदृश्य ताकत ही विभिन्न प्रभावशाली नेताओं व पार्टियों का भविष्य तय करती हैं। ये अदृश्य ताकत वित्तीय पूंजी की ताकत है।

भारत जैसे देश में यह अदृश्य ताकत टाटा, अम्बानी, अडाणी, मित्तल, बिड़ला जैसों के हाथों में है। ये ही असल में भारत के भाग्य विधाता हैं। कि जनगण तो मानो महज इनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए चुनावों में मतदाता बनकर हाजिर होते हैं। ये इतने शक्तिशाली हैं कि कभी मतदाता इनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कमाल भी दिखाते हैं तो ये या तो नई सरकार को खरीद लेते हैं या फिर उसे नाकाम कर देते हैं।

कितना ही स्वतंत्र, स्वच्छ, निष्पक्ष चुनाव आयोग हो और कितने ही अच्छे ढंग से चुनाव हों आखिर में होता या होगा वही जो भारत या दुनिया के वित्तीय महाप्रभु चाहते हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश खाम ख्याली में जी सकते हैं परन्तु चतुर, धूर्त पूंजीवादी राजनेता जानते हैं कि उन्हें वास्तव में, आखिर में क्या करना है।

आलेख

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