नीचे और नीचे

पूंजीवादी राजनीति कितनी सिद्धांतविहीन है और पूंजीवादी नेता कितने सिद्धान्त विहीन होते हैं, इसका आये दिन प्रमाण मिलता रहता है। पर कई बार यह इतनी सीमा लांघ जाता है कि लगता है इन्हें जग हंसाई का भी भय नहीं है। इसका एक प्रमाण इस चुनाव के दौरान मिला। 
    
भाजपा की तरह कांग्रेस पार्टी की भी एक विदेशी शाखा है। सैम पित्रोदा एक लम्बे समय से इसके अध्यक्ष थे। इन्हीं सैम पित्रोदा ने अपने एक साक्षात्कार में भारत की विविधता का जिक्र करते हुए भारत के बाशिंदों की जातीय या नृशास्त्रीय भेद की बात कर दी। उन्होंने कहा कि उत्तर पूर्व के लोग चीनी लोगों से मिलते हैं, पश्चिम के लोग पश्चिमी एशिया के लोगों से मिलते हैं, दक्षिण के लोग अफ्रीकी लोगों से मिलते हैं, इत्यादि। उनकी इस बात को भाजपाईयों ने लपक लिया। और कहा कि कांग्रेस पार्टी भारत को नस्ली आधार पर बांटना चाहती है। भाजपाईयों के इस हमले से कांग्रेस पार्टी दुबक गई और उसने आनन-फानन में सैम पित्रोदा से इस्तीफा ले लिया।
    
यह देखना मुश्किल नहीं है कि इस मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने बेहद अवसरवादी तरीके से व्यवहार किया। एक ने दूसरे पर झूठ का सहारा लेकर हमला किया तो दूसरे ने इसका मुकाबला करने के बदले भाग लेने में ही गनीमत समझी। 
    
यह सामान्य जानकारी की बात है कि भारत के लोग नृजातीय तौर पर बहुत भांति-भांति के लोग हैं। बच्चों की स्कूली किताबों में यह लिखा हुआ है। इतिहास और भूगोल दोनों में बच्चों को पढ़ाया जाता है कि नृजातीय तौर पर भारत में भारोपीय, आस्ट्रेलायड, मंगोलायड इत्यादि लोग पाये जाते हैं। ऊंची कक्षाओं में तो इस संबंध में ज्यादा विस्तार से पढ़ाया जाता है कि इनके पूर्वज कब और किस रास्ते से भारत में आये।
    
इतना ही नहीं स्वयं बच्चों की स्कूली किताबों में भारत की विविधता की बात करते हुए भारत के नक्शे पर विभिन्न शक्ल-सूरत वाले लोगों की तस्वीर छपी होती है जो साफ दिखाती है कि भारत के लोग नृजातीय तौर पर कितने भिन्न हैं। 
    
अब जो बात सामान्य जानकारी की है तथा जो बच्चों को स्कूली किताबों में पढ़ाई जाती है उसी को एक नेता द्वारा कह दिये जाने पर कोई राजनीतिक बवाल क्यों मचना चाहिए? क्यों एक पार्टी को हमलावर तथा दूसरे को रक्षात्मक हो जाना चाहिए?
    
इसका कारण यह है कि भाजपा आश्वस्त है कि वह किसी भी मुद्दे पर झूठ का इस्तेमाल कर अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकती है। वह आश्वस्त है कि उसका समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र उसके झूठ का पर्दाफाश नहीं करेगा। वह इस पर भी आश्वस्त है कि कांग्रेस पार्टी सत्य की खातिर अपना राजनीतिक नुकसान नहीं कराना चाहेगी। 
    
और उसका यह सोचना गलत नहीं था। कांग्रेस पार्टी के व्यवहार ने दिखाया कि कांग्रेस पार्टी सत्य की खातिर अपना राजनीतिक नुकसान नहीं करवाना चाहती। वर्तमान संदर्भ में कांग्रेस ने यह नहीं कहा कि सैम पित्रोदा ने कुछ भी गलत नहीं कहा। कि स्वयं मोदी सरकार की स्कूली किताबों में भी यही बात लिखी हुई है। कि यह सामान्य ऐतिहासिक और सामाजिक सच्चाई है। 
    
कुछ कांग्रेसी समर्थक यह तर्क दे सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी चुनावों के दौरान एक अनावश्यक विवाद को तूल नहीं देना चाहती थी। कि वह चुनाव में अपने मूल मुद्दों से ध्यान नहीं भटकाना चाहती थी। कि विवाद को तुरंत खत्म कर उसने अपने को नुकसान से बचाया। 
    
पर ऐसा तर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि यह व्यवहार कुछ और नहीं बल्कि अवसरवाद कहलाता है। तात्कालिक फायदे की खातिर उसूलों की बलि ही अवसरवाद कहलाती है। जानबूझकर सत्य को सत्य न कहना या सत्य कहने से बचना अवसरवाद है। और अवसरवाद सिद्धांतविहीनता का दूसरा नाम है। 
    
जैसा कि पहले ही कहा गया है कि देश की पूंजीवादी राजनीति में सिद्धान्तविहीनता एक आम बात है। झूठ बोलना, सत्य को नकारना, सत्य पर चुप्पी साध लेना, इत्यादि सब इसमें शामिल है। पर जब यह सब एक सामान्य ऐतिहासिक या वैज्ञानिक सच्चाई के मामले में होने लगता है जो स्थिति एकदम विद्रूप हो जाती है। वर्तमान विद्रूपता में तो पक्ष-विपक्ष दोनों शामिल हैं।  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।