फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष से दूरी, इजरायल-अमेरिका से नजदीकी

भारतीय शासकों का बदलता रुख

जबसे इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी अवाम का कत्लेआम शुरू हुआ है तब से भारत सरकार के बयानों में यह ढूंढ पाना मुश्किल रहा है कि उसका पक्ष क्या है। पर वक्त बीतने के साथ यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भारत सरकार ने फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के समर्थन की पुरानी नीति को न केवल त्याग दिया है बल्कि वह अधिकाधिक खुले रूप में इजरायली नरसंहारकों के साथ खड़ी हो गयी है। हां, कूटनीतिक तौर पर अभी भी भारत सरकार दो राष्ट्र समाधान की लफ्फाजी कर रही है। स्पष्ट है कि गाजा में बच्चों-नागरिकों के नृशंस कत्लेआम में इजरायल-अमेरिका के साथ भारतीय शासक भी अप्रत्यक्ष भागीदार बनने जा रहे हैं। 
    
जब 7 अक्टूबर को हमास ने इजरायल पर हमला किया तो तुरंत ही प्रधानमंत्री मोदी ने हमले को आतंकी हमला करार देते हुए न केवल उसकी निंदा की बल्कि इजरायल को आतंक का शिकार देश बता उसके प्रति एकजुटता भी दर्शायी। अपने बयान में उन्होंने फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष का जिक्र तक नहीं किया। ढेरों लोगों को तभी भारत सरकार का रुख बदलता नजर आया पर जब चंद रोज बाद विदेश मंत्रालय की प्रेस वार्ता में दो राष्ट्र हल के प्रति व स्वतंत्र फिलिस्तीन के प्रति समर्थन की पुरानी बात दोहरायी गयी तो लगा कि भारत सरकार पुरानी नीति पर ही है प्रधानमंत्री मोदी जज्बात में कुछ भिन्न बोल गये होंगे। 
    
लेकिन भारत सरकार का रुख बदल चुका था। अरब देशों के तमाम शासकों की तरह भारतीय शासकों के लिए फिलिस्तीन केवल जुबानी जमाखर्च का मसला बन चुका था। इजरायल से सम्बन्ध उनकी प्राथमिकता बन चुके थे। इसका प्रमाण तब मिला जब भारत ने 28 अक्टूबर को जार्डन के तत्काल संघर्ष विराम के प्रस्ताव पर तटस्थ रुख अपनाया और यह कहकर मतदान में हिस्सा नहीं लिया कि इसमें हमास के कृत्य का जिक्र नहीं है। हालांकि 9 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र में इजरायल द्वारा फिलिस्तीन के कब्जाये क्षेत्र व सीरियाई गोलान में बस्तियां बसाने के विरोध में पेश प्रस्ताव का समर्थन कर भारत ने फिलिस्तीन के प्रति कुछ सहानुभूति दिखाने का काम किया। 
    
रूस-यूक्रेन युद्ध पर ‘यह दौर युद्ध का नहीं है’ का बयान देने वाले प्रधानमंत्री मोदी संयुक्त राष्ट्र में इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध (या कहें इजरायल द्वारा नरसंहार) पर युद्ध विराम का समर्थन करने को तैयार नहीं हुए। जाहिर है कि भारतीय शासक कहीं से शांति के पुजारी नहीं हैं। युद्ध या शांति उनके लिए वक्त के साथ बदलने वाली जरूरतें हैं। इजरायल को युद्ध रोकने की बात कर वे इजरायली-अमेरिकी शासकों को नाराज नहीं कर सकते। 
    
भारत सरकार के बदलते रुख की एक झलक भारत-अमेरिका टू प्लस टू वार्ता में भी दिखी। वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि भारत और अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ इजरायल के साथ खड़े हैं। वक्तव्य में बंधकों की रिहाई का आह्वान किया गया। फिलिस्तीन के नाम पर नागरिकों की जरूरतों की पूर्ति हेतु मानवीय सहायता जारी रखने व इस सप्लाई हेतु मानवीय विरामों के प्रति समर्थन व्यक्त किया गया। 
    
स्पष्ट है कि भारत सरकार अमेरिकी शासकों की तरह इजरायल से केवल कुछ घण्टों के लिए हमले बंद करने (मानवीय विराम) की मांग कर रही है ताकि पीड़ित फिलिस्तीनी नागरिकों को कुछ राहत पहुंचायी जा सके। और फिर उन पर इजरायल नये सिरे से बमबारी कर सके। 
    
इस वार्ता में भारत-अमेरिका रक्षा साझेदारी बढ़़ाने के तहत अंतरिक्ष, कृत्रिम बुद्धिमता, समुद्र में सहयोग बढ़ाने की बातें हुईं। अमेरिका F-414 जेट इंजन के भारत में निर्माण, भारत में हवाई विमानों, अमेरिकी नौसैनिक जहाजों की मरम्मत, रख-रखाव पर सहमत हुआ है। यह प्रकारांतर से भारतीय धरती पर अमेरिकी सैन्य अड्डा कायम करने का शुरूआती कदम साबित हो सकता है। इसके अलावा विज्ञान-प्रौद्योगिकी-स्वास्थ्य-व्यापार- कनेक्टिविटी-आतंकवाद आदि मसलों पर दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने की बातें हुईं। 
    
भारत सरकार से चार कदम आगे भारतीय पूंजीवादी मीडिया चल रहा है। सभी प्रमुख टीवी चैनल इजरायल के पक्ष में और फिलिस्तीन के विरोध में खबरें प्रसारित कर रहे हैं। यहां तक कि इस प्रसारण में भारत के सीधे इजरायल के सैन्य सहयोग तक की मांग की जा रही है। संघ-भाजपा के मुस्लिम बराबर आतंकवाद के समीकरण को सारे चैनल दोहरा रहे हैं। जाहिर है संघ-भाजपा इस युद्ध का राजनैतिक इस्तेमाल कर मुस्लिम विरोध को हवा दे अपना साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का एजेण्डा आगे बढ़ा रहे हैं। कोई अचरज नहीं कि इजरायल के समर्थन में भारत में संघी संगठन सड़कों पर उतरे। इसके उलट फिलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों को किसी न किसी तरीके से रोकने-दमन करने के प्रयास हुए। उ.प्र. में तो योगी सरकार ने मस्जिदों पर पहरा बैठा फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शनों को रोकने का काम किया। यह सब भारत सरकार के बदलते रुख को ही दर्शाता है। 
    
कभी साम्राज्यवाद से संघर्ष कर आजाद हुए भारतीय शासकों ने फिलिस्तीन को खुद सरीखा पीड़ित मान उसके प्रति समर्थन व्यक्त करने की नीति अपनायी थी। पर तबसे दुनिया बहुत बदल चुकी है और भारतीय शासक अब अमेरिकी साम्राज्यवाद से गलबहियां करने में अपने हित देखने लगे हैं। ऐसे में उन्हें इजरायल के करीब व फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष से दूर जाना ही था। बीते 2-3 दशकों में इस दिशा में बढ़ते हुए भारतीय शासक अब उस मुकाम पर पहुंच गये हैं कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया भर में फिलिस्तीनी अवाम पर अत्याचार करने वालों की फेहरिस्त में इजरायल-अमेरिका के साथ भारतीय शासकों का भी नाम लिया जाने लगेगा। यह सब बेहद शर्मनाक है पर यही हकीकत है। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।