राज्य सहकारिताओं पर केन्द्र की गिद्ध दृष्टि

केन्द्र की भाजपा सरकार 2014 के बाद से ही एकाधिकारी पूंजी की निर्लज्ज सेवा में जुटी है। इसके साथ ही वह देश के नाममात्र के संघीय ढांचे को भी लात लगा केन्द्र का सभी क्षेत्रों में वर्चस्व कायम करने की मुहिम भी छेड़े हुए है। देश में मौजूद लाखों की तादाद में सहकारितायें भी बीते दिनों केन्द्र सरकार के निशाने पर आ गयी हैं। इन राज्य स्तर की सहकारिताओं को केन्द्र सरकार पहले अपने अधीन लाना चाहती रही है और फिर इन सहकारिताओं के क्षेत्र में बड़ी पूंजी की घुसपैठ की राह खोलना चाहती है।

इसी मंशा से बीते वक्त में केन्द्र सरकार ने सहकारिता मंत्रालय बना अमित शाह को इसका मंत्री बना दिया। पर संघ-भाजपा अपने कुत्सित इरादों पर आगे बढ़ते उससे पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने उनकी राह रोक दी। 2011 के 97 वें संविधान संशोधन के तहत सहकारी समितियों के लिए राज्यस्तरीय कानूनों हेतु कुछ बातें तय की गयी थीं। मोदी सरकार इसी संशोधन का इस्तेमाल कर राज्यों की लाखों सहकारिताओं में घुसपैठ करना चाहती थी। पर अक्टूबर 22 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि उक्त संविधान संशोधन राज्यों की स्थानीय सहकारी समितियों पर लागू नहीं होगा बल्कि यह केवल बहुराज्य सहकारी समितियों पर लागू होगा। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केन्द्र सरकार को मजबूर कर दिया कि वो राज्यों की सहकारी समितियों में घुसपैठ का दूसरा रास्ता निकाले।

अब मोदी सरकार ने यह रास्ता निकाला कि पहले सभी राज्य सहकारी समितियों को बहुराज्य सहकारी समिति के मातहत लाया जाये और फिर 97 वें संविधान संशोधन का इस्तेमाल कर केन्द्र की उनमें घुसपैठ सुनिश्चित की जाये। इसी उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने एक नया विधेयक बहुराज्य सहकारी समितियां (संशोधन) विधेयक 2022 पेश किया है। यह विधेयक 2002 के बहुराज्य सहकारी समिति कानून में कुछ खतरनाक संशोधन प्रस्तावित करता है।

प्रस्तावित नये विधेयक के तहत प्रावधान किया गया है कि कोई भी सहकारी समिति अपने सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से खुद को किसी बहु राज्य सहकारी समिति में विलय कर सकती है। इसी के साथ एक अन्य प्रावधान के तहत बहु राज्य सहकारी समिति के शेयरों के निष्पादन की किसी कार्यवाही हेतु केन्द्र की मंजूरी अनिवार्य बना दी गयी है। अन्य संशोधनों के तहत बहु राज्य सहकारी समितियों के लिए केन्द्रीय चुनाव प्राधिकरण नियुक्त करने व इन सहकारी समितियों के निदेशक मण्डल को भंग कर प्रशासक नियुक्त करने का अधिकार केन्द्र को मिल गया है।

केन्द्र सरकार की मंशा एकदम स्पष्ट है कि पहले स्थानीय सहकारी समितियों को बहु राज्य सहकारी समितियों से जुड़ने की ओर ढकेलो और फिर नये विधेयक के प्रावधानों के जरिये उन पर येन केन प्रकारेण केन्द्र सरकार का नियंत्रण कायम कर लो।

फिलहाल यह विधेयक लोकसभा में पेश होने के बाद संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है। सरकार इस विधेयक के जरिये सहकारिताओं के काम-काज में पारदर्शिता व सुधार लाने की बातें कर रही है।

वास्तविकता यही है कि बहु राज्य सहकारी समितियों की सेहत खुद कुछ खास अच्छी नहीं है। 44 समितियां तो वित्तीय कुप्रबंधन-अक्षमता के चलते बंद की जा चुकी हैं। कई राज्यों की अपनी सहकारी समितियां बहु राज्य सहकारी समितियों से काफी अच्छी चल रही हैं। इन राज्यों की सहकारी समितियों को बहुराज्य सहकारी समितियों में विलय की ओर ढकेलने के लिए केन्द्र सरकार कई बीमारू बहुराज्य सहकारी समितियों में पैसा झोंक उन्हें फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रही है। यह कुछ सहकारी समितियों को खड़ा कर उसके जरिये समूचे देश की सहकारी समितियों के ताने-बाने को नष्ट करने की मुहिम का हिस्सा है ताकि ये सारे क्षेत्र अम्बानी-अडाणी की लूट के लिए पूरी तरह खोल दिये जायें चाहे वह दुग्ध उत्पादन हो या फिर खाद निर्माण सब जगह अम्बानी-अडाणी काबिज हो जायें। साथ ही साथ राज्य एकदम साधन विहीन हों केन्द्र पर पूरी तरह से निर्भर बन जायें।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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