संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर बदायूं में ट्रैक्टर मार्च

बदायूं/ 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के द्वारा बदायूं में ट्रैक्टर मार्च का आयोजन किया गया। बदायूं में ए आर टी ओ आफिस के पास 11 बजे से ही ट्रैक्टर लेकर किसान इकट्ठा होने लगे। 12 बजे तक दर्जनों ट्रैक्टर इकट्ठा हो गए। यहां से शहर में ट्रैक्टर मार्च होना था। लेकिन शुरुआत से ही पुलिस प्रशासन के अधिकारी तमाम पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंच गए। अधिकारी किसान नेताओं पर मार्च ना निकालने का दबाव बना रहे थे। इस दौरान किसान नेताओं व पुलिस-प्रशासन के बीच काफी नोंक-झोंक हुई। नोंक-झोंक के बाद मार्च शुरू हुआ। ट्रैक्टरों पर यूनियन के झंडे व राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लगा था। एक ट्रैक्टर में लाउडस्पीकर भी लगा हुआ था। किसान जोशीले नारों के साथ आगे बढ़ रहे थे। गांव के किसान और महिलाओं के साथ यह रैली शहर में अलग ही माहौल पैदा कर रही थी। इस रैली को रोकने के लिए कई जगह पुलिस तैनात की गई। बड़ी ज्यारत, लाल पुल चौराहा काफी जद्दोजहद के बाद रैली ने पार किया। अंततः पुलिस प्रशासन इस्लामिया इंटर कॉलेज पर रैली को रोकने में सफल हो गया। भारी संख्या में तैनात पुलिस ने रैली को कालेज मैदान में घुसा दिया। प्रस्तावित सभा स्थल पर भी रैली को नहीं जाने दिया। कालेज मैदान में ही किसानों ने सभा की। सभा को किसान नेता राजेश सक्सेना, रमाशंकर, चौधरी सौदान सिंह आदि ने संबोधित किया। वक्ताओं ने कहा कि आज देश गणतंत्र दिवस के आयोजनों में सराबोर है। पूरी राज्य मशीनरी जश्न मना रही है। ऐसे में देश के अन्नदाता किसान अपने तरीके से जश्न नहीं मना सकते। किसानों को गणतंत्र का जश्न मनाने से रोका जा रहा है। आज ही के दिन 26 जनवरी 2021 को देश की राजधानी में किसान परेड को विफल करने के लिए फासीवादी हुकूमत और उसके फासीवादी एजेंटों ने लाल किले पर षड्यंत्र रचा था। ये स्थिति आज भी जारी है। क्या यही स्वतंत्रता और समानता है। ये कैसा गणतंत्र है जिसमें गणतंत्र दिवस पर ही गण पर तंत्र हावी है।

सभा के बाद जब किसान नेताओं के नेतृत्व में किसान ज्ञापन देने आगे बढ़े तो मैदान के गेट पर फिर रोक लिया गया। प्रशासनिक अधिकारियों ने भारी पुलिस बल की मौजूदगी में कालेज मैदान के गेट पर ही ज्ञापन लिया।

गणतंत्र दिवस पर जहां फासीवादी मोदी सरकार विदेशी राष्ट्रध्यक्ष को मुख्य अतिथि बना रही है। कर्तव्य पथ पर सैन्य साजो सामान और सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर रही है। सांस्कृतिक झांकियों के नाम पर फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है। पूरे देश में सरकारी गैर सरकारी संस्थानों में आयोजन कराए जा रहे हैं। इन आयोजनों के माध्यम से सरकार अपनी वाहवाही करवा रही है। शहर शहर, गांव-गांव रैलियां निकाली जा रही हैं। ये रैलियां देश के आम जन मानस को यह एहसास दिलाने को निकाली जा रही हैं कि सब आजाद हैं और एक जनवादी देश में रह रहे हैं।

लेकिन क्या देश के मजदूर किसान सहित तमाम मेहनतकश समुदाय के लोग स्वतंत्र हैं? क्या इन्हें जनवादी अधिकार प्राप्त हैं? क्या देश के छात्र नौजवान स्वतंत्र हैं? क्या देश की महिलाएं आजादी के साथ घूम सकती हैं? क्या इन लोगों को अपने हक अधिकार को पाने का हक है? क्या ये लोग अपने द्वारा ही चुनी सरकारों से सवाल कर सकते हैं? जब देश के नागरिक रोटी, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष करते हैं तो उनके साथ कैसा सुलूक किया जाता है। इसे कौन नहीं जानता। क्या इस देश में सभी वर्गों, समुदायों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

सब जानते हैं कि हमारे देश में आज कैसा फासीवादी माहौल है। लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांट कर पूंजीवादी राज व्यवस्था को चलाया जा रहा है।

ऐसे माहौल में शासक वर्ग जनता के किन्ही भी संघर्षों और मजदूरों-किसानों के आयोजनों से डरते हैं। क्योंकि मेहनतकश लोग जनतंत्र की बात करते हैं। हक अधिकार की बात करते हैं। शासकों द्वारा जनता पर ढाए जा रहे जुल्म के खिलाफ बात करते हैं। वे महिलाओं की आजादी की बात करते हैं। वे महंगाई, बेरोजगारी की बात करते हैं। वे वास्तविक जनतंत्र (मेहनतकशों के जनतंत्र) की बात करते हैं। वे स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे की बात करते हैं। वे धर्मांधता की बात नही करते । वे धर्म और संस्कृति के नाम पर दलितों अल्पसंख्यकों की हत्या और उत्पीड़न के खिलाफ बोलते हैं। वे पूंजीवादी लूट खसोट और फासीवादी तानाशाही के खिलाफ बोलते है, और इस काम को संचालित करने में लगी सरकारों के खिलाफ बोलते हैं। इसीलिए शासकों को किसानों के ऐसे आयोजन और रैलियां रास नहीं आती। बल्कि ऐसे आयोजन चाहे वे किसी भी मौके पर हों, उन्हें खटकते हैं। इसलिए सरकारें और उनकी राज्य मशीनरी इन्हे रोकने के लिए सब कुछ करते हैं।

लेकिन मजदूर किसान जो इस देश के उत्पादक वर्ग हैं, जो सारी धन दौलत पैदा करते हैं, ये जब तक शोषित उत्पीड़ित हैं ये अपनी वास्तविक आजादी और वास्तविक जनतंत्र के लिए संघर्ष करते रहेंगे। -बदायूं संवाददाता

आलेख

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तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।