विद्यार्थी परिषद और नतमस्तक शासन-प्रशासन

बीते दिनों उत्तराखण्ड के विभिन्न शहरों में भाजपा से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अपने सम्मेलन आयोजित किये। खुद को देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन कहने वाला यह साम्प्रदायिक छात्र संगठन जगह-जगह स्थानीय शासन-प्रशासन तक पहुंच के जरिये अपने सम्मेलन सफल बनाने में जुटा रहा।

सबसे बड़ा मामला अल्मोड़ा जिले में सामने आया जहां वहां के पूर्व छात्र महासंघ अध्यक्ष विद्यार्थी परिषद के दीपक उप्रेती ने स्थानीय उच्च शिक्षा अधिकारी से इण्टर कॉलेजों के 9वीं व 11वीं के छात्र-छात्राओं को सम्मेलन में भेजने का आग्रह किया। इस आग्रह पर स्थानीय उच्च शिक्षा अधिकारी सत्य नारायण ने एक आदेश जारी कर शहर के 7 इण्टर कॉलेजों के प्रधानाचार्यों को निर्देश दिया कि कक्षा 9 व 11वीं के छात्र 2-2 शिक्षकों के साथ विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में ले जाये जायें।

जब विद्यालय की ड्रेस में ये छात्र विद्यार्थी परिषद का झण्डा हाथ में लिये जुलूस निकालते नजर आये तो कुछ लोगों ने मामले की तहकीकात की और पाया कि इसके निर्देश उच्च शिक्षा अधिकारी ने दिये हैं। जब शिक्षा अधिकारी से इस मामले में पूछा गया तो वे आदेश को सही ठहराते हुए विद्यार्थी परिषद का गुणगान करने लगे। स्पष्ट है कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि एक सरकारी पद पर रहते हुए उनका एक राजनैतिक संगठन के कार्यक्रम में छात्रों को भेजने का आदेश गलत है।

बाद में जब स्थानीय विपक्षी दलों-संगठनों ने सत्यनारायण की बर्खास्तगी की मांग उठायी तब आनन-फानन में उच्च शिक्षा मंत्री ने उक्त शिक्षा अधिकारी को पद से हटा देहरादून में अटैच कर दिया।

इसी तरह के मामले अन्य जगह भी सामने आये। हल्द्वानी में विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन हेतु स्थानीय डिग्री कालेज में जगह का इंतजाम किया गया। जबकि दूसरे छात्र संगठनों को ऐसे किसी आयोजन हेतु कालेज में स्थान नहीं दिया जाता।

ऐसे ही विभिन्न जगहों पर विद्यार्थी परिषद ने सरकारी मशीनरी का उपयोग कर, सरकारी कालेजों में जगह हासिल कर अपने कार्यक्रम आयोजित किये।

विपक्षी दलों, छात्र संगठनों ने विद्यार्थी परिषद के आगे नतमस्तक शासन-प्रशासन का विरोध किया पर सरकार की शह पर शासन-प्रशासन के रुख पर कोई फर्क नहीं पड़ा। विद्यार्थी परिषद के लम्पट छात्र नेता आजकल ‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’ की तर्ज पर नाच रहे हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य को फैलाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।