गैर बराबरी से डर नहीं लगता साहब, बराबरी के ढोंग से डर लगता है

हर साल मार्च के पहले हफ्ते से ही टीवी, अखबार से लेकर विज्ञापनों तथा सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर चारों तरफ महिलाओं के विशिष्ट सत्कार की चर्चा होने लगती है। चारों तरफ महिला बराबरी और महिला आदर का ऐसा शोर होता है कि ऐसा लगता है हमारा समाज महिला-पुरुष की बराबरी का परम ज्ञान प्राप्त कर चुका है और लैंगिक असमानता पूरी तरह से खत्म हो चुकी है।

इस शोर की वजह होती है 8 मार्च जिसे पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। आठ मार्च को सरकारी संस्थानों से लेकर प्राइवेट दफ्तरों तक, मध्यम वर्गीय परिवारों से लेकर टीवी सीरियलों तथा विज्ञापनों तक हर जगह महिला श्रेष्ठता की बात होने लगती है। हर जगह समाज महिलाओं को सम्मान देने और बराबरी देने की बात करता है। बराबरी देने के नाम पर केक काटे जाते हैं, फूल दिए जाते हैं। विज्ञापनों में महिलाओं को रसोई से उस दिन छुट्टी देने की बात की जाती है। तमाम तरह के सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर कपड़ों, गहनों पर छूट दी जाती है। अपने आप घूमने जाने देने की बात की जाती है। कुल मिलाकर महिलाओं के जीवन को एक दिन के लिए आसान बनाए जाने की बात की जाती है।

सवाल यह उठता है कि क्या अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के यही मायने हैं? क्या अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस बराबरी के इन्हीं प्रतीकों के लिए मनाया जा रहा है? क्या 113 साल पहले जब क्लारा जेटकिन के नेतृत्व में संघर्षशील महिलाओं ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का फैसला किया था तो उन्होंने यही कल्पना की थी कि महिला दिवस को मात्र प्रतीकों के रूप में मनाया जाएगा तथा हर चीज की तरह यह दिन भी पूंजीवादी बाजार के लिए मुनाफे का एक स्रोत बनकर रह जाएगा। 8 मार्च आने के साथ ही तमाम सौंदर्य प्रसाधनों की कंपनियां तथा गार्मेंट इंडस्ट्रीज महिलाओं के लिए छूट के नाम पर अपने मुनाफे को बढ़ाने की जुगत में लग जाते हैं। 1910 में कोपनहेगन शहर में क्लारा जेटकिन के नेतृत्व में मजदूर महिलाओं ने अपने काम के घंटों, समान मजदूरी तथा बेहतर जीवन स्तर के लिए किए जा रहे संघर्षों के प्रतीक के रूप में इस दिन को मनाने की शुरुआत की थी। 1910 में इस दिन की शुरुआत अंतर्राष्ट्रीय मजदूर महिला दिवस के रूप में की गई थी लेकिन समय बीतते-बीतते यह दिन भी पूंजीवादी मुनाफे के भंवर में फंस कर मात्र मार्केटिंग की एक रणनीति बनकर रह गया।

इस दिन की श्रमिक महिलाओं के लिए अधिकारों के लिए संघर्ष के रूप में शुरुआत की गई थी लेकिन आज यह दिन महिला अधिकारों के नाम पर ढकोसलों तक सीमित रह गया है। साल दर साल इस दिन के मायने को बदल कर पूंजीवादी व्यवस्था के संचालकों ने इस दिन को बहुत ही चालाकी से मजदूर महिला दिवस से बदलकर महिला दिवस के रूप में स्थापित कर महिलाओं को अन्याय और शोषण से मुक्ति दिलाने के उसके उद्देश्य के बजाय उसे मात्र मध्यम वर्गीय महिलाओं के सैर-सपाटे का दिन बना दिया है। महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक बराबरी के लिए शुरू हुए इस संघर्ष को प्रतीकों में बदल कर उस ‘‘बराबरी’’ पर लाकर खड़ा कर दिया गया है जो एक दिन के लिए उन्हें यह समाज खैरात के रूप में देता है।

बराबरी का यह ढोंग जो हर हाल 8 मार्च के दिन किया जाता है उसकी असलियत खुद शासक वर्ग द्वारा जारी आंकड़ों में साफ पता चल जाती है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी 2022 के आंकड़ों के अनुसार भारत वैश्विक लैंगिक सूचकांक में 135वें स्थान पर है। 2018 में हुए मानवीय विकास सूचकांक के आंकड़ों में भी महिलाएं हर श्रेणी में पुरुषों से पीछे हैं। 2019 में जहां पुरुषों की प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय 10,702 डॉलर आंकी गई थी, वहीं महिलाओं की प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 2,331 डॉलर थी।

भारत में पहले से ही सामाजिक उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा कम थी लेकिन कोविड के बाद उत्पादन में लगी महिलाओं की संख्या और भी कम हो गई। 2022 की वैश्विक असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल आय में पुरुषों का हिस्सा 82 प्रतिशत है जबकि महिलाओं का मात्र 18 प्रतिशत हिस्सा है।

विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी लैंगिक असमानता रिपोर्ट, 2022 के अनुसार श्रम शक्ति में बढ़ती लैंगिक असमानता का महिलाओं के ऊपर आर्थिक कुप्रभाव बढ़ने का अंदेशा है। रिपोर्ट के अनुसार जहां लैंगिक असमानता अंतर खत्म होने में 132 साल लगने थे वहीं कोविड के बाद यह अंतर एक पीढ़ी पीछे जा चुका है। यह अंतर न सिर्फ आर्थिक मामलों में है बल्कि स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक में यह अंतर और बड़े स्तर पर दिखता है।

अब सवाल यह उठता है कि जब खुद शासक वर्ग के आंकड़ों में महिलाओं की स्थिति यह दिखती है तो फिर हर साल इस दिन का यह शोर किस बात का है। बहुत स्पष्ट है कि साल के एक दिन यह तमाशा कर न सिर्फ आधी आबादी के साथ हो रहे इस अन्याय तथा शोषण पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है बल्कि महिला बराबरी तथा मुक्ति के लिए चल रहे संघर्षों की धार को भी कुंद करने की कोशिश की जा रही है।

महिला दिवस के दिन किया जा रहा यह आडंबर महिला संघर्षों का प्रतीक नहीं है बल्कि यह उन सभी चीजों के खिलाफ है जिनके लिए वाकई यह संघर्ष शुरू हुआ था। पूंजीवादी व्यवस्था 8 मार्च का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधनों तथा कपड़ों की बिक्री बढ़ाने और महिलाओं को रसोई से आजादी के एक दिन के रूप में स्थापित कर महिलाओं की सामंती गैर-बराबरी को और पुख्ता करने की कोशिश कर रही है। महिलाओं के दोयम दर्जे की स्थिति को और मजबूत कर वह महिलाओं को हमेशा सस्ते श्रम और उपभोग की वस्तु के रूप में उसकी स्थिति को दर्ज कर देना चाहता है।

आज जरूरत है कि महिला अधिकारों के संघर्षों को और तेज कर शोषण उत्पीड़न के खिलाफ न सिर्फ महिला मुक्ति की लड़ाई को आगे बढ़ाया जाए बल्कि इस गैर-बराबरी तथा शोषण उत्पीड़न पर टिकी व्यवस्था का समापन कर एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए जहां हर तरह की गैर-बराबरी खत्म हो और समाज बराबरी तथा न्याय की नींव पर खड़ा हो।

आलेख

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