पटना की छात्राओं का संघर्ष

महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश में बेटियों को प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा से दूर करने की कवायद जारी है। आजादी के अमृत महोत्सव पर देश की महिलाओं/बेटियों के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं व दावों की पोल खुल रही है।

पटना के कदमकुआं स्थित राजकीय कन्या आवासीय विद्यालय की छात्राओं ने फरवरी में स्कूल और हॉस्टल की बदहाली को लेकर करीब डेढ़ घंटे तक सड़क जाम की। ये छात्राएं माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वाली छात्राएं हैं। यानी कक्षा 6-7 से 12 वीं तक की छात्राएं हैं जो अपने शिक्षा के अधिकार के लिए सड़क पर संघर्ष कर रही थीं। इन छात्राओं की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं हैं और न ही इनका कोई छात्र संघ है। इनको न तो संघर्ष करने का अनुभव है और न ही संघर्ष करने के तौर-तरीके मालूम हैं। फिर भी शिक्षा पाने के लिए ये छात्राएं सरकार से संघर्ष कर रही हैं।

सैंकड़ों की तादाद में स्कूल यूनिफार्म में सड़कों पर उतरीं इन छात्राओं का आरोप है कि स्कूल में न तो पढ़ाई ठीक से होती है और न ही कोई मूलभूत सुविधाएं इन्हें मिलती हैं। छात्राओं का यहां तक कहना है कि छात्रावास में करीब 250 लड़कियों के बीच सिर्फ 11 कमरे और दो बाथरूम की सुविधा है जिसके चलते लड़कियों को रोजाना काफी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। इतना ही नहीं स्कूल और हॉस्टल दोनों की बिल्डिंग भी जर्जर अवस्था में है जिससे छात्राओं के घायल होने की भी संभावना बनी रहती है।

कक्षा सात में पढ़ने वाली एक छात्रा के मुताबिक स्कूल में अध्यापकों की संख्या भी कम है। वो समय से कक्षाओं में नहीं आते, और अगर आते भी हैं तो बस फोन पर लगे रहते हैं। पढ़ाई-लिखाई से उन्हें कोई लेना-देना नहीं। कभी कोई सवाल पूछो, तो डांट कर भगा देते हैं।

वहीं कक्षा नौ की छात्रा के मुताबिक लड़कियों को पढ़ाई के साथ-साथ हॉस्टल की सुविधा तो दी गई है लेकिन न पढ़ाई अच्छी है और न ही हॉस्टल की सुविधा अच्छी है। एक कमरे में 20 से अधिक लड़कियां रहती हैं और एक बेड पर चार से पांच लड़कियों को सोना पड़ता है। कई नीचे जमीन पर सोने को मजबूर हैं। बाथरूम कम होने के कारण कई तो बिना नहाये रहने को मजबूर हैं।

250 लड़कियों के बीच केवल दो बाथरूम हैं। वह भी नियमित रूप से साफ तक नहीं होते हैं। पीरियड्स के समय काफी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं।

इसके अलावा छात्रावास में खाने की भी समस्या है। खाना मेन्यू के हिसाब से बनना तो दूर की बात है कई बार खाना ही नहीं बनता है। जिसके कारण कई बार सिर्फ बिस्किट-चाय पर ही रहना पड़ता है।

इन छात्राओं का कहना है कि इससे पहले भी इन्होंने कई बार स्कूल प्रशासन से इस बदहाली को लेकर कई शिकायतें की हैं। लेकिन प्रशासन ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। तब मजबूर होकर इन छात्राओं ने हाथ से हाथ जोड़कर एक चेन बनाते हुए शहर की रोड़ को जाम कर दिया। तब जाकर प्रशासन से लेकर पुलिस सभी एक साथ हरकत में आए।

शहर का शासन-प्रशासन इन छात्राओं को समझाने के लिए प्रदर्शन स्थल पहुंचा। अधिकारियों के आश्वासन के बाद छात्राओं ने धरना तो समाप्त कर दिया लेकिन उन्हें अभी भी बदलाव की कोई खास उम्मीद नहीं है।

इसी तरह बी एच यू की नर्सिंग छात्रायें बीते कई दिनों से अपने लिए हास्टल की सुविधा व अन्य मांगों को लेकर संघर्षरत हैं। छात्राओं ने सुनवाई न होने पर अब अनशन करने की घोषणा की है।

देश भर में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा तो जोर-शोर से गूंज रहा है लेकिन सरकार न तो बेटियों को बचा पा रही है और न ही बेटियों को पढ़ा पा रही है। आज देश में तमाम जगह मजदूरों-मेहनतकशों की छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार/सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस हत्या हो रही है। बड़े पैमाने पर कन्या भ्रूण हत्या हो रही है। तमाम कानूनों के बाद भी इन्हें नहीं रोका जा सका है। दूसरे पितृसत्तात्मक समाज में वैसे ही लड़कियों को पढ़ने के कम मौके हैं। उस पर शिक्षा के निजीकरण के दौर में महंगी फीस व प्रतियोगिता ने मजदूर-मेहनतकशों की लड़कियों को उच्च शिक्षा से पहले ही दूर कर दिया है। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा/विद्यालयों की जर्जर स्थिति के कारण वे उससे भी दूर होती जा रही हैं।

मुनाफे पर टिकी इस व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) में सरकार महिलाओं/बच्चियों को न पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं से बचा सकती है और न ही अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति से बचा सकती है। क्योंकि इन्हें बनाए रखने में ही पूंजीवादी व्यवस्था का हित है।

पटना के कदमकुआं की छात्राओं ने जोरदार संघर्ष किया है। इन समस्याओं के खिलाफ समाज की मजदूर-मेहनतकश महिलाओं-छात्राओं को एकजुट होकर लड़ना होगा। तभी मजदूर-मेहनतकश लड़कियों को इंसान की तरह जीने व पढ़ने का अधिकार मिल सकता है।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।