बहुत सारे व्यवस्थापरस्त लोग इस बात पर हैरानी जता रहे हैं कि पिछले सालों में तेज आर्थिक विकास वाले बांग्लादेश में लोग इस तरह क्यों सड़कों पर उतर आए? क्यों उन्होंने सरकार को अपदस्थ कर दिया और प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया।
बांग्लादेश पिछले सालों में दुनिया भर के पूंजीपति वर्ग का नया चहेता रहा है। उसके तेज विकास के किस्से गढ़े गए और प्रसारित किए गए। यह भी कहा गया कि इस तेज विकास के कारण एक भारी आबादी भुखमरी की रेखा से ऊपर आ गई। बांग्लादेश समृद्धि की नई राह पर चल पड़ा था।
यदि वास्तव में ऐसा था तो बांग्लादेश की मजदूर-मेहनतकश जनता को बहुत खुश होना चाहिए था। उन्हें इस समृद्धि को लाने वाली सरकार और उसकी नेता का शुक्रगुजार होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। उल्टे जनता इतनी नाराज हो गई कि उसने सरकार को उखाड़ फेंका और प्रधानमंत्री को भगा दिया। ऐसा क्यों?
कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ कि समृद्धि के साथ जनता की, खासकर युवा पीढ़ी की जनतांत्रिक आकांक्षाएं बहुत बढ़ गई थीं। चूंकि शेख हसीना की सरकार इसे स्वीकार नहीं कर पाई इसीलिए उसे दंड भुगतना पड़ा।
यह सारी बातें वे लचर तर्क हैं जिसके जरिए शासक पूंजीपति वर्ग जन आक्रोश की असल वजहों को छुपाना चाहता है। वह बाकी दुनिया की जनता के साथ संबंधित देश की जनता को भी धोखा देना चाहता है।
बांग्लादेश में जन आक्रोश की असल वजह वहां भी सारी दुनिया की तरह तेजी से बढ़ती असमानता और इसी कारण तेजी से बढ़ती भुखमरी है। मरता क्या न करता की कहावत के अनुसार यह लोगों को सड़कों पर उतरने को मजबूर कर देती है।
सारी दुनिया में ही असमानता तेजी से बढ़ रही है। इसे आज पूंजीपति वर्ग भी नहीं छुपा पा रहा है। स्वयं उसकी दानदाता संस्था आक्सफैम हर साल इस पर एक रिपोर्ट जारी कर दुनिया भर के पूंजीपतियों और उनकी सरकारों को इस मामले में आगाह करती है। जार्ज सोरोस जैसे सट्टेबाज सरकारों से अपील कर रहे हैं कि वे इस मामले में कुछ करें।
पर ये ही लोग यह कहते हैं कि दुनिया भर में भुखमरी घट रही है। इन लोगों ने भुखमरी का एक निरपेक्ष पैमाना तय कर रखा है और इसी आधार पर भुखमरी के घटने की घोषणा करते रहते हैं। बांग्लादेश के मामले में भी उन्होंने यही किया।
सच्चाई यह है कि भुखमरी कोई निरपेक्ष चीज नहीं है। यह सापेक्ष है। यह समाज के हिसाब से बदलती है। आज ही सारे देशों ने भुखमरी के अलग-अलग मापदंड बना रखे हैं। भारत की भुखमरी की रेखा वह नहीं है जो अमेरिका में है। ठीक इसी कारण जब किसी देश में आर्थिक विकास के कारण समृद्धि बढ़ती है तो भुखमरी की रेखा स्वतः ही ऊपर उठ जानी चाहिए। इसी कारण आर्थिक विकास का लाभ जब उसी अनुपात में नीचे वालों को नहीं मिलता तो वे भुखमरी में चले जाते हैं। यानी बढ़ती असमानता के कारण भुखमरी बढ़ती है।
इस बढ़ती भुखमरी को सबसे ज्यादा युवा आबादी महसूस करती है। वह बूढ़े लोगों की तरह यह नहीं सोचती कि वह पहले से ज्यादा अच्छा खा-पी रही है। बल्कि वह यह सोचती है कि उसे वह नहीं मिल रहा है जो उसे मिलना चाहिए। और जब ठीक आर्थिक विकास के कारण ही बेरोजगारी भयानक गति से बढ़ रही हो तो इस वंचना का अहसास और तीखा हो जाता है। जिन्दगी असहनीय बोझ बनने लगती है। ऐसे में यदि सरकार युवा आबादी के अपने भीतर उमड़-घुमड़ रहे आक्रोश को प्रदर्शित करने के सामान्य से जनतांत्रिक अधिकार से भी उसे वंचित कर दे तब ज्वालामुखी का फूटना लगभग तय हो जाता है। पिछले दो सालों में भारत के दो पड़ोसी देशों- श्रीलंका और बांग्लादेश में यही हुआ।
भारत की हिन्दू फासीवादी सरकार के डंडे से भयभीत कुछ लोग कह रहे हैं कि भारत में श्रीलंका या बांग्लादेश जैसा कुछ नहीं हो सकता। पर वे बता नहीं पाते कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता। वैसे भी राजपक्षे और हसीना के देश छोड़कर भागने से पहले कौन इसकी भविष्यवाणी कर रहा था?
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।