10 जनवरी को हजारों मारुति सुजुकी के वर्तमान और पूर्व अस्थायी कर्मचारी कंपनी की अवैध श्रम प्रथाओं को चुनौती देते हुए श्रम विभाग को अपना सामूहिक मांगपत्र सौंपने के लिए गुड़गांव डीसी कार्यालय में एकत्र हुए। कर्मचारियों ने खुद को मारुति सुजुकी अस्थायी मजदूर संघ के तहत संगठित किया है, जिसकी शुरुआत 5 जनवरी, 2025 को गुड़गांव के कृष्णा चौक पर आयोजित एक सामूहिक बैठक में की गई थी। मांगों का मांगपत्र 9 जनवरी, 2025 को कंपनी प्रबंधन को भी सौंपा गया। श्रम विभाग ने 31 जनवरी, 2025 को कंपनी प्रबंधन और संघ के साथ त्रिपक्षीय बैठक निर्धारित की है। प्रदर्शन में हरियाणा के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन भी सौंपा गया और 30 जनवरी को आईएमटी मानेसर में बड़े पैमाने पर लामबंदी और मजदूर मार्च की घोषणा की। विभिन्न राज्यों के अस्थाई मजदूरों और मारुति से निकाले गए मजदूरों के प्रतिनिधियों की एक कार्यसमिति इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही है।
कर्मचारियों ने आटोमोबाइल क्षेत्र की दिग्गज कंपनी के सभी संयंत्रों में नियमित उत्पादन में विभिन्न श्रेणियों के अस्थायी कर्मचारियों के नियोजन की प्रथा के अंत की मांग की है। वे स्थायी प्रकृति के काम के लिए स्थायी रोजगार, समान काम के लिए समान वेतन, कंपनी द्वारा पहले और वर्तमान में कार्यरत अस्थायी कर्मचारियों को खरखौदा, सोनीपत के नए संयंत्र सहित सभी संयंत्रों में स्थायी कर्मचारियों के रूप में काम पर रखने और मारुति छात्र प्रशिक्षुओं और प्रशिक्षुओं के लिए उपयोगी और मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं। आंदोलन के लिए क्षेत्र में आने वाले अस्थायी कर्मचारी कंपनी गेट से सात किलोमीटर दूर आईएमटी मानेसर चौक के पास मानेसर तहसील में बर्खास्त मारुति कर्मचारियों के विरोध स्थल पर डेरा डाले हुए हैं।
‘‘मजदूर कोई फुटबाल नहीं हैं जिन्हें आप अपनी मर्जी से बाहर निकाल दें!’’ बहादुरगढ़ के एक अस्थायी कर्मचारी सुमित ने आंदोलन में आए अस्थायी कर्मचारियों की तुलना एक फुटबाल से की जो एक कंपनी से दूसरी कंपनी में लात मारे जा रहे हैं। यह छवि आटोमोबाइल उद्योग में उनके अपने 12 साल के लंबे अनुभव से आती है, जहां उन्होंने मारुति सुजुकी में विभिन्न पदों के अलावा नोएडा में हीरो कार प्लांट और मानेसर में हीरो बाइक प्लांट में काम किया है। सुजुकी में 34,918 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। इनमें से केवल 18 प्रतिशत स्थायी हैं। अन्य 40.72 प्रतिशत संविदा कर्मचारी हैं, 21.6 प्रतिशत अस्थायी कर्मचारी (TW) हैं, 21 प्रतिशत छात्र प्रशिक्षु (MST) और प्रशिक्षु हैं।
यह कर्मचारी आशा और निराशा के अनंत चक्र में फंसे हुए हैं क्योंकि कंपनी उन्हें सात महीने से लेकर एक-दो साल तक की छोटी अवधि के लिए काम पर रखती है और फिर कुछ महीनों बाद फिर से बुलाने का वादा करके उन्हें छोड़ देती है। अस्थायी कर्मचारियों को पहले TW1 के रूप में काम पर रखा जाता है, जिनमें से लगभग 10 प्रतिशत को एक साल बाद TW2 के रूप में फिर से काम पर रखा जाता है और मुट्ठी भर को TW3 के लिए बुलाया जाता है। यही तर्क ठेका कर्मचारियों के लिए भी लागू होता है जिन्हें CW1, CW2 और CW3 कहा जाता है। इससे कंपनी कुशल श्रमिकों के एक विशाल समूह को खुद से बांधे रखती है, जिन्हें वो अपनी सुविधानुसार कभी बुलाती है तो कभी लतियाती है।
मासिक 1,30,000 रु. वेतन पाने वाले स्थायी कर्मचारियों और रु. 18,000 से 30,000 पाने वाले गैर-स्थायी कर्मचारियों के बीच वेतन का भारी अंतर कर्मचारियों के लिए विवाद का एक और बड़ा कारण है। इस गैर-स्थायी कार्यबल पर उत्पादन का मुख्य भार होने के बावजूद, स्थायी और अस्थायी कर्मचारियों द्वारा प्राप्त सुविधाओं में बहुत असमानता है। वेतन का एक बड़ा हिस्सा प्रोत्साहनों में शामिल होता है, जो छुट्टी लेने या उत्पादन लक्ष्यों में उतार-चढ़ाव के कारण अस्थायी कर्मचारियों के लिए आसानी से काट लिया जाता है।
मानेसर आंदोलन के बारह साल बाद भी मजदूरों को उन्हीं मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है। मारुति सुजुकी प्रबंधन 2011-12 में दुनिया भर में बदनाम हुआ था, जब उसके मानेसर प्लांट के मजदूरों ने अपनी यूनियन बनाने के लिए पूरे एक साल तक आंदोलन करते हुए कंपनी में चल रहे नकारात्मक श्रम अभ्यासों का पर्दाफाश किया था। 18 जुलाई 2012 को बड़े पैमाने पर हिंसा भड़का कर आंदोलन को कुचलने की कोशिश की गई, जिसमें आग में दम घुटने से एक प्रबंधन अधिकारी की मौत हो गई। इस घटना के बाद व्यापक पुलिस दमन हुआ और 147 मजदूरों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से पूरे मूल यूनियन बाडी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। घटना के बाद 23,000 स्थायी और संविदा मजदूरों को बिना किसी जांच के नौकरी से निकाल दिया गया। आंदोलन की जड़ में असहनीय काम का दबाव, अपर्याप्त मजदूरी और उत्पादन में संविदा मजदूरों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की शिकायत थी। वर्ष 2012 में बर्खास्त किए गए स्थायी कर्मचारी अक्टूबर 2024 से आईएमटी मानेसर में अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं और वर्तमान आंदोलन को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। उनका दावा है कि वर्तमान आंदोलन उन मांगों का ही विस्तार है, जिन्होंने उन्हें सबसे पहले यूनियन बनाने के लिए प्रेरित किया था।
(साभार : मारुती सुजुकी अस्थायी मज़दूर संघ के फेसबुक पेज से)
मारुति सुजुकी के अस्थायी कर्मचारियों ने किया आंदोलन तेज
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आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।