एनिमल फिल्म : एक उग्र, हिंसक, मर्दवादी नायक की रचना

हाल में ही ‘एनिमल’ फिल्म रिलीज हुई। 12 दिनों में ही फिल्म देश में 450 करोड़ रुपये और दुनिया भर में 750 करोड रुपये का कारोबार कर चुकी है। संदीप रेड्डी द्वारा निदेर्शित फिल्म की कहानी संक्षेप में इस प्रकार है- एक बेहद अमीर परिवार का लड़का (रणवीर कपूर) अपने पिता (अनिल कपूर) का अटेंशन पाना चाहता है। वह अपने पिता को जुनून की हद तक चाहता है। पिता पर गुण्डों द्वारा हमला किया जाता है तो यह नायक दुश्मनों से बदला लेता है। वैसे विस्तार से भी फिल्म की कहानी इतनी ही है।
    
फिल्म अपने कारोबार के साथ-साथ अन्य कारणों से भी चर्चा का विषय बनी। फिल्म वीभत्स हिंसा, स्त्री विरोधी संवाद, दुश्मनी का धार्मिक रंग में रंगे दिखाने की वजह से चर्चा का विषय बनी।
    
भारतीय फिल्मों में हिंसा वैसे तो एक आम सी बात रही है। ग्राफिक, तकनीक के विकास के साथ-साथ हिंसाप्रद सीन ज्यादा से ज्यादा वास्तविक बनते चले गये। सिर से गोली के आर-पार जाने का दृश्य हो या तलवार से गला काटना हो, विजुअल इफैक्ट से ज्यादा से ज्यादा वास्तविक बनाये गये। लेकिन अब तक की फिल्मों में फिल्म का खलनायक ही वीभत्स हत्या को इंजाय करता दिखाई देता था। लेकिन इस फिल्म में हीरो ही वीभत्स हत्या करता हुआ दिखाई दिया। जो इसी ढंग से एक शक्तिशाली मर्द की कल्पना प्रस्तुत करता है।
    
पूरी फिल्म जिस वजह से सबसे अधिक आलोचना का शिकार हुई, वह है इसमें कूट-कूट कर भरा गया मर्दवाद। वैसे स्त्री विरोधी संवाद, स्त्रियों का सम्मान गिराने वाली फिल्मों की भारत में कोई कमी नहीं है। यह भारतीय फिल्मों का अहम हिस्सा है। लेकिन एनिमल फिल्म ने इसे एक नये मुकाम पर पहुंचा दिया है।
    
समाज में महिलाओं की बढ़ती सामाजिक भूमिका के कारण कुछ फिल्में जरूर महिला प्रधानता लिए हुए बनीं। जिन फिल्मों में महिलाओं को एक सशक्त किरदार के रूप में दिखाया गया है। जनवाद, बराबरी, अधिकार के लिए संघर्ष करती महिलाएं कई फिल्मों के किरदार में दिखीं। लेकिन यह फिल्में भी पूंजीवादी जनवाद की सीमाओं को नहीं लांघ सकीं और महिलाओं की बराबरी के सीमित क्षेत्रों (यौन स्वतंत्रता, कानूनी बराबरी, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा...) तक ही सीमित रही हैं।
    
एनिमल फिल्म पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। पिता, बेटा, बेटी का पति, दुश्मन पुरुष पर ही फिल्म केन्द्रित रहती है। फिल्म में महिलाएं दिखाई गयी हैं नायक की मां, बहनें, पत्नी, प्रेमिका के रूप में साथ ही दुश्मन की कई पत्नियों के रूप में। फिल्म में सभी महिला किरदारों की छवि सामंती मूल्यों द्वारा तय की गयी छवियां ही हैं। जिसके तहत महिलाएं सेवा करने, आदेश मानने और यौन सुख देने, बच्चे पैदा करने के लिए हैं।        

फिल्म में सबसे खतरनाक एक ‘अल्फा मर्द’ की कल्पना कर उसे स्थापित किया गया है। फिल्म में नायक रणवीर कपूर नायिका रश्मिका को अल्फा मर्द के बारे में बताते हुए कहते हैं-
    
‘स्ट्रांग बंदे! मर्द बंदे जंगलों में घुसकर शिकार करते थे। वह शिकार बाकी सब में बंटता था। महिलाएं खाना बनाती थीं, बच्चों और बाकी सबको खिलाती थीं। वे सिर्फ खाना ही नहीं पकाती थीं बल्कि वह यह भी तय करती थीं कि शिकारियों में से कौन मर्द उसके साथ बच्चे पैदा करेगा। कौन उसके साथ रहेगा। और कौन उसको प्रोटेक्ट करेगा यानि उसकी हिफाजत करेगा? समुदाय ऐसे ही चलता था।’
    
आगे कहता है- ‘इसके उलट होते थे कमजोर मर्द, ये क्या करते? इनके पास स्त्रियां कैसे आतीं? तो इन्होंने कविता करनी शुरू कर दी। ये स्त्रियों को रिझाने के लिए कविताओं में चांद-तारे तोड़कर लाते थे। समाज के लिए जो करते हैं, वे अल्फा मर्द ही करते हैं। कमजोर मर्द कविताएं करते हैं।’
    
नायक नायिका के सामने शादी के प्रस्ताव में उसे कमजोर कविता कहने वाले और अल्फा मर्द में से एक को चुनने के लिए कहता है और नायिका अपनी सगाई तोड़ अल्फा मर्द यानी नायक को चुन लेती है।
    
फिल्म स्थापित करती है कुछ लोग ही समाज में ताकतवर होते हैं वही सर्वगुण सम्पन्न होते हैं। कि ‘ताकतवर मर्द ही समाज में होने चाहिए, कमजोर लोग बेकार और समाज में बोझ की तरह हैं।’ यहां हमें हिटलर की श्रेष्ठ जर्मन नस्ल की झलक मिल जाती है।
    
फिल्म में महिला विरोधी संवाद और दृश्यों की भरमार है। फिल्म में मुस्लिम खलनायक की तीन बीवियां हैं और उनके साथ उसका व्यवहार बहुत वहशी मर्दवादी है। लेकिन नायक में खुद की छवि ढूंढते भारतीय दर्शक अपने नायक में भी घोर मर्दवाद को ही पाते हैं। फिल्म का नायक समझता है कि घर की सारी औरतें अपनी सुरक्षा करने में अक्षम हैं, उनकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी घर के मर्दों की है। पहले पापा (अनिल कपूर) फिर उसकी। अपने से बड़ी बहन को सुरक्षा देने के लिए बन्दूक लेकर कालेज में जाता है और वहां आंतक कायम करता है। बहनों के जीवन साथी चुनने के अधिकार पर फिल्म सवाल खड़ा करती है। बहनों को अपने लिए मर्द चुनने की तमीज नहीं है। वे गलत ही फैसला लेती हैं, फिल्म की स्टोरी भी इसी बात को प्रमाणित करती है। (फिल्म में नायक की बहन का पति नायक के पिता पर हमला करने की साजिश में शामिल होता है, जिसे नायक मार डालता है।)
    
फिल्म का नायक रणवीर कपूर दूसरी नायिका (जो जासूसी के लिए आती है पर नायक के प्रेम में पड़ जाती है) को जूते चाटने को कहता है। पत्नी पर थप्पड मारना, उस पर बन्दूक तानता है। विवाहेतर प्रेम संबंध बनाता है। महिलाओं के पहनावे पर नायक ऐतराज करते हुए दिखाया गया है। महिलायें घर के पुरुषों के पूर्ण नियंत्रण में हैं। यह अल्फा मर्द वैसे तो शक्तिशाली है पर अपने को दुरुस्त करने को हुए हवन में गौमूत्र पीने से उसे परहेज नहीं है।
    
शादी को लेकर ‘अल्फा मर्द’ क्या सोचता है। फिल्म के एक सीन में नायक यह कहता है- ‘शादी में डर होना चाहिए, पकड़ कर रखो, डर गया सब गया’। फिल्म में बीबी तंग आकर नायक को छोड़कर जाती है तो इस ‘अल्फा मर्द’ पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
    
महिला विरोध के साथ-साथ फिल्म हिन्दू-मुसलमान संघर्ष को भी दिखाती है। मुसलमानों के खिलाफ भौंडे प्रचार को ही हवा देती है। मुसलमानों को कई-कई शादियां करते हुए दिखाया गया है। ‘हम पांच हमारे पच्चीस’ जैसे संवाद फिल्म में एक विशेष सोच से डाले गये हैं। नायक के परिवार की कम्पनी का लोगो और नाम स्वास्तिक का है जिसका ध्येय वाक्य शक्ति, प्रगति, विजय है। नायक देश के सबसे बड़े पूंजीपति का पुत्र है। पूंजीपति पर हमले के वक्त मजदूर दुखी हो जाते हैं तो नायक उन्हें भाषण पिलाता है कि हम अगर इतनी बड़ी इमारतें-पुल बना सकते हैं तो पिता के हमलावरों की गर्दन भी मरोड़ सकते है। इस तरह फिल्म मालिक-मजदूर एकता का संदेश भी स्थापित करती है।
    
फिल्म बताती है कई साल पहले पारिवारिक विवाद में एक भाई परिवार छोड़कर दूसरे देश चला जाता है। वहां मुसलमान धर्म अपना लेता है। अब मुसलमान धर्म अपनाये परिवार का यह हिस्सा स्वास्तिक कंपनी में कब्जा करना चाहता है। स्वास्तिक कम्पनी को बचाने के लिए नायक अपने हिन्दू भाईयों की मदद लेता है। दुश्मन मुसलमान को हरा देता है। फिल्म खत्म हो जाती है।
    
एनिमल फिल्म सड़-गल रहे पूंजीवाद और हिन्दू फासीवाद द्वारा क्रूर बनाते समाज की एक प्रतिनिधिक फिल्म है। फिल्म में नायक-खलनायक का भेद ही खत्म कर दिया गया। एक अमीर घर का लड़का जो अपने आत्मिक संकट के कारण पूरी दुनिया ही खत्म कर देना चाहता है। (‘तुझे कुछ हो गया तो सारी दुनिया ही मिटा देंगे’ फिल्म का मुख्य गाना)। इस अमीर सिरफिरे के सामने पुलिस, कानून कहीं कुछ नहीं है। फिल्म के नायक के पास सारी समस्याओं का हल है और वह हल है हिंसा, वीभत्स हिंसा। पुलिस-कानून उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
    
समाज में पैर पसार रहा हिन्दू फासीवाद जो जनवाद के सभी रूपों को खत्म कर देना चाहता है; वह महिलाओं की स्वतंत्रता भी समाप्त कर उसके जीवन को एक सामंती समाज में ढाल देना चाहता है, एनिमल फिल्म इसी सोच की वकालत करते हुए दिखती है। फिल्म हिन्दू-मुसलमान की दुश्मनी और मुसलमानों को हराने के लिए सारे ‘हिन्दू भाईयों’ को एक हो जाने का आह्वान करते हुए दिखती है। यह फिल्म एक उग्र, हिंसक, मर्दवादी नायक की रचना करती है।
    
फिल्म का नायक हिन्दू फासीवाद का आदर्श पुरुष है। जो परिवार के लिए किसी भी हद तक जाता है जो दुश्मनों को घर में घुसकर (फिल्म में विदेश जाकर) मारता है। जो महिलाओं को पैरों की जूती से ज्यादा नहीं समझता। जिसके लिए विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना भी जायज है। जो जुनून की हद तक हिंसक-मर्दवादी है। जो अल्फा मर्द है। 

आलेख

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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

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यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।