इतिहास का एक रोचक तथ्य

भारतीय इतिहास का एक बहुत रोचक तथ्य है। 1857 में जब मेरठ में अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह किया तो अंग्रेज अफसरों को मारने के बाद वे सीधे दिल्ली कूच कर गये। रात भर चलकर वे दिल्ली पहुंचे और उनके प्रभाव में दिल्ली के सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया। फिर सबने मिलकर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को अपने विद्रोह का नेता घोषित कर दिया और कहा कि वे उन्हें ही सारे हिन्दुस्तान का बादशाह मानते हैं। लगभग अस्सी साल के बूढ़े और अशक्त बहादुर 
शाह जफर ने, जिनका अंतिम समय लाल किले के अपने महल में शेरो-शायरी में गुजर रहा था, इस अनपेक्षित और अनचाहे नेता पद को स्वीकार कर लिया जिसकी कीमत उन्हें विद्रोह की असफलता के बाद रंगून निर्वासन से चुकानी पड़ी। मुगल वंश के इस आखिरी चिराग को अपने पुरुखों के पास कब्र भी नसीब नहीं हुई। 
    
आखिर विद्रोही सिपाहियों ने, जिनमें ज्यादातर हिन्दू थे, उस बूढ़े जफर को अपना नेता और सारे हिन्दुस्तान का बादशाह क्यों घोषित किया जिसकी सल्तनत महज दिल्ली के लाल किले तक सीमित रह गई थी और वह भी अंग्रेजी शासन की कृपा से। क्यों विद्रोह के वास्तविक नेताओं ने भी, हिन्दू और मुसलमान राजे-रजवाड़े और उनके सिपहसालारों सभी ने, बहादुर शाह जफर को एकमत से अपना नेता मान लिया जबकि यह नेतृत्व बस प्रतीकात्मक ही रहना था? 
    
इसकी वजह बहुत सीधी सी है और तब सारे विद्रोहियों के लिए वह हवा-पानी की तरह सहज बात थी, लेकिन जो आज हिन्दू फासीवादियों के भयंकर कुप्रचार से अचंभे वाली चीज हो गई है। 
    
अकबर के समय से शुरू कर मुगल शासन ने करीब डेढ़ सौ साल तक हिन्दुस्तान को एक सूत्र में बांधा था और स्थाई तथा अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण शासन प्रदान किया था। इतने लम्बे समय में हिन्दू-मुसलमान सारे लोग इस शासन के आदी हो गये थे। मुगल बादशाह सारे हिन्दुस्तान का बादशाह माना जाता था। औरंगजेब के बाद जब मुगल शासन बिखरना भी शुरू हुआ तब भी उसका मान-सम्मान बना रहा। यह किस हद तक था उसे इस बात से समझा जा सकता है कि जब पेशवा नेतृत्व में मराठों ने उत्तर भारत पर कब्जा किया तब भी उन्होंने मुगल शासन का औपचारिक खात्मा नहीं किया। वे मुगल बादशाह को औपचारिक मान्यता देते रहे। यही काम अंग्रेजों ने भी किया। वे जब किसी इलाके पर कब्जा करते थे तो उसकी औपचारिक स्वीकृति मुगल बादशाह से ही लेते थे। मुगल बादशाह का वास्तविक शासन दिल्ली तथा अंत में बस लाल किले तक सिमट गया था पर औपचारिक तौर पर वह सारे हिन्दुस्तान का बादशाह बना रहा। कोई कारण नहीं कि 1857 के विद्रोहियों ने बहादुर शाह जफर को ही अपने विद्रोह का नेता घोषित किया। यह भी अचरज की बात नहीं कि आज भी आजादी के दिन का झंडा लाल किले पर ही फहराया जाता है और संघी प्रधानमंत्री भी वहीं से सारे देश को संबोधित करता है। 
    
इतिहास के ये सामान्य से तथ्य हिन्दू फासीवादियों की भारतीय इतिहास की उस धारणा का खंडन करते हैं जो भारत की या हिन्दुओं की आठ सौ या बारह सौ साल की गुलामी की बात करती है। ये जाहिल लोग सारे मुसलमानी काल को मुगल काल घोषित कर देते हैं और उन्हें जरा भी इल्म नहीं होता कि मुगल वंश भारत में बाबर से शुरू होता है जो फरगाना घाटी से आया था तथा जिसके पूर्वज तुर्क-मंगोल थे (पिता की ओर से तैमूर लंग के तथा मां की ओर से चंगेज खान के वंशज और चंगेज खान मुसलमान नहीं था)। 
    
भारत आने वाले ज्यादातर मुसलमान शासक तुर्क या अफगान थे। हां, अमीर-उमरा में इरानी और अरबी भी थे। इनका भारत जाकर शासन करना उतना ही तब सामान्य था जितना यूरोप में तथा जितना जर्मन कबीलाई सरकारों का रोमन साम्राज्य के इलाकों पर (476 ई. में पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद)। इन कूढ़मग्जों को यह पता नहीं कि आज का तुर्की वह अंतिम क्षेत्र था जिस पर तुर्कों ने कब्जा किया और जिसमें जाकर बसे। 
    
समूचे मध्य काल में राजनीति में धर्म की एक भूमिका रही थी पर वह बिल्कुल वैसी नहीं थी जैसा हिन्दू फासीवादी स्थापित करना चाहते हैं। धर्म के आधार पर आजादी-गुलामी की बात करना इतिहास का मजाक बनाना है, और कुछ नहीं तो बस इस साधारण से तथ्य के कारण कि दुनिया के सारे शासक अपने ही धर्म वालों से ज्यादा लड़े तथा धार्मिक उत्पीड़न भी अपने ही धर्म के भीतर के विधर्मियों का ज्यादा हुआ।  

आलेख

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