फ्रांस के मजदूरों का बढ़ता संघर्ष

फ्रांस

फ्रांस

फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने मजदूरों की पेंशन में कटौती के अलावा सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 64 वर्ष कर दी है। यह उन्होंने संसद में पारित किये बगैर किया है। फ्रांसीसी सरकार के इस रवैये के विरुद्ध मजदूर वर्ग में पहले से पनप रहे गुस्से में विस्फोट हो गया है। मजदूर वर्ग के जीवन स्तर में पहले से ही गिरावट आ रही थी। रूस के विरुद्ध युद्ध में यूक्रेन की मदद में फ्रांस अपने संसाधन झोंक रहा था। तेल और गैस की बढ़ती कीमतें मजदूर-मेहनतकश आबादी की कमर तोड़ रही थी। इसके पहले वह कोरोना महामारी के कारण तबाह हो रही थी। ऐसे समय में यह पेंशन सुधार योजना फ्रांस की सरकार ने पेश की थी। इसका पहले से ही विरोध हो रहा था लेकिन जब फ्रांस की सरकार ने इसे संसद में बिना पारित किये लागू किया तो बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और विरोध समूचे फ्रांस में तेज हो गया। इसे संसद से न पारित कराने के पीछे मैक्रों ने यह तर्क दिया कि इसके वित्तीय और अचानक जोखिम बहुत ज्यादा हैं।

इस पेंशन योजना के तहत पेंशन की रकम घटा दी गयी है और सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ा दी गयी है। जब पेंशन की कटौती की योजना की घोषणा की गयी थी उसी समय से सप्ताह में एक दिन की मजदूरों की हड़ताल चल रही थी। यह जनवरी माह से ही समूचे फ्रांस में चल रही थी। लेकिन जैसे ही बगैर संसद से पारित किये इसे लागू किया गया वैसे ही समूचे फ्रांस के औद्योगिक मजदूरों में हड़ताल आंदोलन बिजली की तरह फैल गया।

राजधानी पेरिस में दसियों हजार मजदूरों ने एक मशहूर चौराहे पर कब्जा कर लिया। पुलिस ने जब चौराहे को खाली कराने की कोशिश की तो मजदूरों ने आनन-फानन में अस्थायी बैरीकेड खड़े कर दिये। चौराहे को मजदूरां से तभी खाली कराया जा सका जब व्यापक हथियारबंद दंगा पुलिस द्वारा बार-बार बल प्रयोग किया गया, पानी की बौछारें की गयीं ओर आंसू गैस के गोले फेंके गये। उसी रात को चौराहे से 73 लोगों को गिरफ्तार किया गया।

पेरिस में उस पूरी रात भर मजदूरों की पुलिस से भिडंत होती रही। आधी रात को पुलिस ने घोषणा की कि समूचे पेरिस से 217 लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

एक अनुमान के अनुसार, समूचे फ्रांस में 23 मार्च को करीब 35 लाख लोगों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। एक नेता के अनुसार, मई 68 के बाद यह अब तक की सबसे बड़ी गोलबंदी थी। इसकी व्यापकता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ग्रेट ब्रिटेन के राजा ने फ्रांस की अपनी निर्धारित यात्रा को टाल दिया। इसका कारण सड़कों पर हो रही ‘‘हिंसा’’ के स्तर के प्रति सुरक्षा की चिंता बताया गया। हालांकि इस संघर्ष को फ्रांस से बाहर मीडिया में बहुत कम स्थान दिया गया, फिर भी मैक्रों की सत्ता के विरुद्ध इस लड़़ाई का कुछ प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देखा जा सकता है। इसका पहला प्रभाव ब्रिटेन की शासक पार्टी पर पड़ा। ऋषि सुनक की सरकार ने अपने नियोजित पेंशन सुधार से हाथ खींच लिये हैं। पहले पेंशन उम्र को बढ़ाने का हो हल्ला मचाया जा रहा था लेकिन अब सरकार ने हाथ खींच लिए हैं। ग्रेट ब्रिटेन में ट्विटर में यह व्यापक तौर पर चल रहा है कि फ्रांसीसियों की तरह लड़ो। यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि बर्तानवी मजदूर वर्ग आने वाले संघर्षों में फ्रांसीसी मजदूरों के विरोध प्रदर्शन को समझने-सीखने की कोशिश में लगा है।

इस विरोध प्रदर्शन को डराने-धमकाने के प्रयास में सड़कों पर पुलिस द्वारा की जाने वाली हिंसा में भयंकर बढ़ोत्तरी की गयी। मुख्य शहरों में सड़़कों पर प्रदर्शन करने को गैर कानूनी करार दिया गया। इसके बावजूद समूचे फ्रांस के बड़े और छोटे शहरों में यह विरोध प्रदर्शन बढ़ता गया। यह प्रदर्शन सिर्फ संख्या की दृष्टि से ही व्यापक व प्रभावशाली नहीं था बल्कि इसका अधिकाधिक संघर्षशील चरित्र भी प्रभावशाली था। उदाहरण के लिए, एक तख्ती में यह लिखा था कि ‘‘पानी सौ डिग्री तापमान पर खौलता है लेकिन लोग 49.3 डिग्री में खौल जाते हैं।’’ यहां 49.3 डिग्री से आशय यह है कि फ्रांसीसी संविधान के अनुच्छेद 49 की तीसरी उपधारा के तहत मैक्रों ने संसद से पारित किये बगैर यह पेंशन सुधार कानून लागू किया है। एक दूसरा नारा यह देखा गया कि तुम हमें 64 में रखते हो लेकिन हम तुम्हें मई, 1968 देंगे। यहां 64 से मतलब सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 64 वर्ष करने से है। मई, 1968 में फ्रांस में वहां की सत्ता के विरुद्ध व्यापक विद्रोह हुआ था।

इसके पहले ‘‘येलो वेस्ट’’ आंदोलन के दौरान मैक्रों सरकार की स्थिति काफी कमजोर हो चुकी थी। लेकिन इस आंदोलन ने येलो वेस्ट से भी ज्यादा व्यापक प्रभाव डाला है। येलो वेस्ट आंदोलन के घटक ज्यादातर छोटे शहरों और कस्बों के वे अांदोलनकारी थे जो करों की बढ़ोत्तरी और डीजल व पैट्रोल की कीमतों की बढ़ोत्तरी के विरुद्ध आंदोलन की शुरूवात करने वाले थे। लेकिन पेंशन सुधार की इस नीति के विरुद्ध व्यापक मजदूर वर्ग और नौजवान शामिल हैं।

सड़कों पर प्रदर्शनों के अलावा हवाई अड्डे जाने के रास्ते की मजदूरों ने नाकेबंदी कर दी। उच्च रफ्तार की चलने वाली रेलों की 50 प्रतिशत ही चल पायीं। ल हैव्रे के बंदरगाह को मजदूरों ने बंद कर दिया। 11 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मी हड़ताल पर आ गये। ऊर्जा क्षेत्र के 27 प्रतिशत मजदूर हड़ताल पर आ गये। आइफिल टावर और वर्साई महल जैसे दर्शनीय स्थान बंद कर दिये गये। 23 मार्च की हड़ताल में एयर ट्रैफिक नियंत्रक, माल ढुलाई ड्राइवर और अन्य कई पेशों के मजदूर शामिल थे।

कूड़ा इकट्ठा करने वाले मजदूर 7 मार्च से ही अनिश्चितकालीन हड़ताल पर थे। पैट्रोल या डीजल के स्टेशनों के लगभग 12 प्रतिशत इसकी कमी से जूझ रहे थे जबकि 6 प्रतिशत पूर्णतया सूखे हो गये थे। यह इसलिए हो गया था कि रिफाइनरी और तेल डिपो के मजदूर मार्च महीने के शुरू से ही समय-समय पर हड़ताल पर जा रहे थे। इनको भी जुर्माने और सजा से डराया गया था लेकिन मजदूर डटे रहे थे।

पेरिस की सड़कों पर कूडा-कचरा इकट्ठा हो रहा था। सरकार द्वारा मजदूरों को वापस लाने के जवाबों के बावजूद मजदूर डटे हुए हैं। इन मजदूरों के साथ बिजली और गैस के मजदूरों ने भी एकजुटता प्रदर्शित की।

मैक्रों की पेंंशन सुधार की योजना के विरुद्ध पिछले दो महीनों से आंदोलन चल रहा था। लेकिन अब इस आंदोलन में छात्र-युवा भी बड़े पैमाने पर शामिल हो रहे हैं। इससे आंदोलन शिक्षण संस्थानों से लेकर सुदूर गांवों तक फैल गया है। पहले तो मैक्रों सरकार ने इसे ताकत के जरिये कुचलने की कोशिश की। ज्यादा से ज्यादा दंगा पुलिस का इस्तेमाल किया गया। नृशंस दमन, पानी की बौछारें, आंसू गैस के गोले दागने और बड़े पैमाने की गिरफ्तारियों ने आंदोलन और प्रतिरोध को कम करने के बजाय और ज्यादा व्यापक कर दिया। इस दमन के साथ मैक्रों की सरकार ने विभिन्न ट्रेड यूनियन फेडरेशनों के नेतृत्व का इस्तेमाल किया। इन नेताओं ने शुरूवात में आंदोलन को आगे बढ़ाने में यह सोचकर भूमिका निभायी कि वे आंदोलन व संघर्ष को अपने द्वारा तय की गयी सीमाओं के भीतर बरकरार रखेंगे। लेकिन जैसे-जैसे पुलिस दमन बढ़ता गया और दमन के प्रतिरोध में मजदूर नये-नये तरीके इस्तेमाल करने लगे, वैसे-वैसे मजदूर वर्ग के ये तथाकथित नेता मजदूरों को ‘‘शांत’’ करने का प्रयास करने लगे। ये मजदूर आंदोलन को तथाकथित ‘‘कानून व व्यवस्था’’ के नाम पर ठंडा करने की कोशिश करने लगे। लेकिन यह काम वे सीधे तरीके से नहीं कर सकते थे, इसलिए ये घुमा फिरा कर इसे कमजोर करने में लग गये। लेकिन जिस तरीके से ‘‘संसदीय जनतंत्र’’ का गला घोंट कर मैक्रों ने पेंशन सुधार योजना लागू की, उसका विरोध तमाम पूंजीवादी पार्टियों सहित ये सभी ट्रेड यूनियन फेडरेशन भी करते थे। सी.जी.टी. और सी.एफ.डी.सी. फेडरेशन इसी दुविधा में फंसे हुए हैं कि एक तरफ मजदूरों का जुझारूपन है और दूसरी तरफ सरकारी दमन है। उन्हें इन दोनों से निपटना है। वे दमनकारी मशीनरी से निपट नहीं सकते। उससे सिर्फ विनती कर सकते हैं। लेकिन दिखावे में उन्हें इसका विरोध करना है। जब वे दिखावे के लिए ही सही, दमनकारी कदमों का विरोध करते हैं तो वे मजदूरों के जुझारूपन को रोकने में कारगर नहीं हो पा रहे हैं।

इतने बड़े और व्यापक मजदूर आंदोलन को तोड़ने के लिए मैक्रों की हुकूमत उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन खुद शासक वर्ग के भीतर भी इससे निपटने के संदर्भ में मतभेद नजर आने लगे हैं। यह इस बात से जाहिर हो जाता है जब मैक्रों की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव आया तो उसकी सहयोगी पार्टी के 19 सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया। खुद मैक्रों की पार्टी में भी असंतोष व्याप्त है। फ्रांस के मालिकों के संगठन ने मैक्रों से मांग की है कि वे ट्रेड यूनियनों के साथ समझौता करने की वार्ता शुरू करें।

मैक्रों ने अभी तक समझौता करने का संकेत देना तो दूर की बात है आंदोलन की आग में घी डालने का ही काम किया है। उन्होंने बार-बार जोर दिया है कि वे पेंशन पर अपना हमला जारी रखेंगे, चाहे इसके परिणाम जो भी निकलें। एक तरफ उन्होंने दो महीने बिता दिये और यूनियनों के विरुद्ध समझौताविहीन रुख अपनाया, समझौता करने से और मांगें मानने से इंकार किया। यदि वे अब पीछे हटकर समझौता करते हैं तो इसे वे सरकार की हार और मजदूरों की जीत समझते हैं। यदि ऐसा हो जाये तो फ्रांस में मजदूरों का संघर्ष करने का हौंसला बढ़ जायेगा और यह समूची व्यवस्था (पूंजीवादी) के लिए बड़ा खतरा हो सकता है।

दूसरी तरफ, मैक्रों की हुकूमत ने जिस तरीके से संसद में बहस किये बगैर इस कानून को लागू किया है, उससे जनतंत्र के रास्ते को छोड़कर तानाशाही के रास्ते को अपनाने की दिशा में इसे समझा जा रहा है। यह मैक्रों की फ्रांसीसी अवाम के प्रति और फ्रांसीसी संसद के प्रति उपेक्षा के रुख को दर्शाता है। इस तरह, न तो वे पीछे हटने की ओर जा सकते हैं और आगे बढ़ने में भी उन्हें खतरा दिखाई पड़ता है।

अन्य पूंजीवादी पार्टियां मैक्रों की हुकूमत की इस डांवाडोल स्थिति को समझ रही हैं। ली पेन की पार्टी मौके के इंतजार में है। वह मैक्रों की थोड़े से बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव के पराजित होने से उत्साहित है। ली पेन की पार्टी घोर मजदूर विरोधी है। इसी प्रकार कुछ सुधारवादी और मजदूर-पार्टियों का दावा करने वाली पार्टियां हैं, वे मजदूर आंदोलन की पीठ पर सवार होकर सत्ता में आना चाहती हैं। ये मजदूर आंदोलन का इस्तेमाल करके पूंजीपति वर्ग की सेवा करना चाहती हैं।

ऐसी स्थिति में, फ्रांसीसी मजदूर वर्ग के सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है। उसे न सिर्फ पूंजीवादी सत्ता से निपटना है, बल्कि अपने नकली रहनुमाओं से भी निपटना है। उनका मौजूदा संघर्ष क्या आगे बढ़कर पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध विकसित होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि वे इन दोनों तरह की शक्तियों के विरुद्ध एक सही मजदूर नेतृत्व खड़ा करने की ओर आगे बढ़ते हैं या नहीं।

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।