संघी आर्गेनाइजर द्वारा फैलाया जा रहा जहर

हमारे देश में हिन्दू फासीवादी आंदोलन को खाद-पानी मुहैय्या कराने में पूंजीवादी मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। लगातार हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा चलाना, सरकार विरोधियों को देश विरोधियों के रूप में चिह्नित करना, भाजपा-संघ की प्रचार मशीनरी के रूप में काम करना, आदि के जरिए पूंजीवादी मीडिया ऐसे उन्मादी लोगों को तैयार कर रही है जो मुसलमानों के प्रति नफरत से भरे हुए हैं। वैसे तो तथ्य और वस्तुगतता की चिंता करना तथाकथित निष्पक्ष पूंजीवादी मीडिया ने भी छोड़ दिया है। संघी अखबार आर्गेनाइजर से तो पहले भी तथ्य और वस्तुगतता की उम्मीद नहीं की जाती थी।

आर्गेनाइजर अखबार हमेशा ही झूठ और अर्द्धसत्य के आधार पर अपनी साम्प्रदायिक और फासीवादी राजनीति का प्रचार करता रहा है। ऐसा ही काम इसके एक हालिया लेख में किया गया है जो कि झूठ और नफरत की राजनीति के मामले में नए कीर्तिमान स्थापित करता हुआ लगता है। आर्गेनाइजर अखबार के 14 फरवरी के अंक में छपे लेख ‘‘वाई ग्रोइंग पापुलेशन ऑफ मुस्लिम्स इन इंडिया शुड बी ए मैटर आफ कंसर्न’’ के सलाहउद्दीन शोएब चौधरी अपने को आतंक विरोधी शोधकर्ता बताते हैं। वे अपने आप को मुस्लिम बताते हैं। यह चीज उनके द्वारा फैलाए जा रहे जहर की मारकता को बढ़ा देती है।

यह लेख कई तरह के झूठ और विभ्रम फैलाता है। यह लेख कहता है कि भारतीय मुसलमानों को आसानी से जिहादी मानसिकता की तरफ खींचा जा सकता है। इनका बड़ा हिस्सा अल कायदा, इस्लामिक स्टेट या अन्य जिहादी संगठनों से जुड़ सकता है। यह कहता है कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का यह अनुमान कि वर्ष 2100 तक मुसलमानों की आबादी का अनुपात 17 से 21 प्रतिशत तक स्थिर हो जाएगा, गलत है। बल्कि यह 25 से 30 प्रतिशत हो जाएगा। यह लेख कहता है कि वर्ष 2100 तक मुसलमानों की आबादी 75 से 90 करोड़ हो जाएगी। और अगर इसका एक हिस्सा भी उग्र इस्लाम या जिहादी विचारधारा की तरफ मुड़ गया तो यह सभी के लिए सिरदर्द बन जाएगा। लेखक कहता है कि प्रत्येक पांच मुस्लिमों में से दो मुस्लिम उग्र्रपंथी मानसिकता के होते हैं और लगभग सभी यहूदियों से नफरत करते हैं।

पश्चिम एशिया के देशों में व्याप्त यहूदी विरोधी भावना के बारे में बहुत सारी आधी सही और काफी गलत बातें कहने के बाद यह लेख भारत की तरफ मुड़ता है जहां यह सबसे खतरनाक हो जाता है। यहां यह लेख कहता है कि पिछले कई दशकों से मुस्लिमों में हिन्दुओं के प्रति नफरत खतरनाक स्तर तक बढ़ती जा रही है। यह कहता है कि भारत के बहुसंख्यक मुस्लिम भारत में खिलाफत स्थापित करना चाहते हैं और हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहते हैं। यह लेख कहता है कि जकात के जरिए मुसलमानों से जो पैसा इकट्ठा किया जाता है उसके जरिए धर्मनिरपेक्ष और गैर मुस्लिम मीडिया को खरीदा जाता है। ताकि वे उग्र इस्लाम के उभार और मुसलमानों के अत्याचार के प्रति अपनी जुबान बंद रखें।

वैसे तो इस लेख में जिस तरह से सफेद झूठ लिखा गया है, इससे इस पर हंसा जा सकता था। लेकिन, आज संघ जिस तरह से अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करने लायक ताकत इकट्ठा करता जा रहा है, इससे यह लेख चिंता पैदा करता है। इस लेख में जितनी बातें उग्र इस्लाम के बारे में की गई हैं, सब की सब संघ के ऊपर लागू होती हैं। यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही है जो देश में हिन्दू राष्ट्र कायम करना चाहता है। यह संघ ही है जो पिछले कुछ दशकों में बढ़ते पैमाने पर मुसलमानों के प्रति नफरत फैला रहा है। यह संघ ही है जो सरकारी रिपोर्टों में मुसलमानों की आबादी बढ़ने की रफ्तार घटने की बात कहे जाने के बावजूद मुसलमानों की कई पत्नियां होने और परिवार नियोजन न करने का दुष्प्रचार करता रहता है। जहां तक मीडिया की जुबान बंद होने की बात है तो यह जकात के पैसे की वजह से नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग के मालिकाने और सरकारी विज्ञापनों के लालच की वजह से है। और जुबान मुसलमानों के अत्याचार पर नहीं बंद है बल्कि संघी फासीवादी परियोजना पर बंद है।

आज पूंजीवादी व्यवस्था का संकट पूंजीपति वर्ग के लिए आर्गेनाइजर जैसे अखबार की जरूरत को बढ़ा रहा है। आर्गेनाइजर जैसे अखबार एक तरफ तो मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाकर जनता का ध्यान भटकाते हैं जिससे पूंजीपति वर्ग को अपनी लूट को बढ़ाने में मदद मिलती है। दूसरी तरफ ये अखबार एक उन्मादी मानसिकता तैयार कर रहे हैं जिसके द्वारा मजदूर वर्ग के संभावित विस्फोटों से या व्यवस्था के सड़ने-गलने की वजह से फूटने वाले किन्हीं अन्य विस्फोटों से व्यवस्था को बचाने के लिए फासीवादी निजाम कायम किया जा सके।

मजदूर मेहनतकश जनता की क्रांतिकारी एकता और संघर्ष ही इन फासीवादी हमलों का जवाब हो सकता है।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।