गैर भाजपा शासित राज्यों में फासीवादी हमले

रामनवमी के अवसर पर निकलने वाले जुलूसों ने इस वर्ष बंगाल और बिहार में जमकर तांडव किया। हिन्दू फासीवादियों ने इन दोनों ही राज्यों में मुस्लिमों और उनकी सम्पत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया। इन दोनों ही राज्यों में भारी हिंसा की गई और यह हिंसा कहीं से भी दंगे नहीं थे।

दोनों ही राज्यों में मुस्लिमों पर आक्रमण और उनकी सम्पत्तियों का नुकसान ज्यादातर मामलों में एकतरफा था। एक संगठित, अनुशासनबद्ध, एकताबद्ध और अपने उद्देश्य के प्रति सजग समूह की मुस्लिम इलाकों, मस्जिदों के सामने हर तरह की पहले उकसावे वाली कार्यवाहियां और फिर हिंसा भड़कने पर संगठित हमले, इन दोनों ही राज्यों में फासीवादी तत्वों की कार्यवाहियों का एक आम तरीका रहा है। इन राज्यों में होने वाली फासीवादी हिंसा को दंगा कहना फासीवादी ताकतों और उनकी कार्यवाहियों को प्रकारान्तर से जायज ठहराने जैसा है।

ये फासीवादी कार्यवाहियां पहले की हिन्दू साम्प्रदायिकों की कार्यवाहियों की निरंतरता भी है लेकिन कुछ नया भी है। जो नया है वह है दंगाईयों का निर्यात। पहले एक शहर या जिले में गैर स्थानीय लोगों का हमलावरों के रूप में इस्तेमाल होता था जिससे दंगाईयों को फायदे होते थे। पहला पुलिस व स्थानीय लोगों के लिए ऐसे लोगों की पहचान मुश्किल हो जाती थी और दूसरा वे ज्यादा क्रूरता भी कर सकते थे। लेकिन अब भाजपा के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद दंगाईयों का एक राज्य से दूसरे राज्य में इस्तेमाल किया जा रहा है। बंगाल में बिहार व अन्य राज्यों से तो ऐसे ही अन्य हमलों में किसी दूसरे राज्यों के दंगाईयों को इस्तेमाल किया जाता है।

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि केन्द्रीय पुलिस बल और एजेंसियां गृहमंत्री के मातहत हैं और वे पूरी तरह से गृहमंत्री के इशारों पर कार्य कर रही हैं। दिल्ली से लेकर बंगाल और बिहार तक जो एक चीज आम है वह है इन बलों का फासीवादी गिरोहों और दंगाईयों के सामने नतमस्तक होना या इन फासीवादी गिरोहों की प्रकारान्तर से मदद करना। पुलिस बलों को फासीवादी हमलों में कवर के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। सुरक्षाबल अब आम तौर पर भारतीय राज्य के दूरगामी हितों व उसके नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने के बजाय फासीवादी गिरोहों और दंगाईयों की रक्षा करते नजर आ रहे हैं।

सत्ता अपने फासीवादी गिरोहों को न सिर्फ पूरा संरक्षण प्रदान कर रही है वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि यह हिंसा सीधे केन्द्रीय सत्ता के द्वारा संगठित की जा रही है। केन्द्रीय सरकार के मंत्री पहले ऐसे इलाकों में ताबड़तोड़ दौरे करते हैं, भडकाऊ भाषण देते हैं और फिर हिंसा का दौर शुरू हो जाता है। दिल्ली, बंगाल, बिहार कुछ बड़ी बानगी भर हैं।

एक अन्य महत्वपूर्ण पैटर्न यह है कि फासीवादी पार्टी फासीवादी गिरोहों द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियों का इस्तेमाल गैर भाजपाई सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए कर रही है। वे पहले एकतरफा मुस्लिमों पर हर प्रकार की हिंसा कर रहे हैं और फिर इस हिंसा का इस्तेमाल गैर भाजपाई सरकारों को बदनाम करने व उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए कर रहे हैं।

इसने फिर इसे सही साबित किया है कि भाजपा शासित राज्यों में दंगों में सापेक्षिक कमी का कारण भाजपा सरकारों द्वारा किया गया बेहतर प्रशासन नहीं वरन् ये फासीवादी तत्व अपनी ही सरकारों को कमजोर नहीं करना चाहते। सत्ता प्राप्ति के बाद उनका अभीष्ट पूरा हो जाता है। इसके उलट मतलब यह है कि गैर भाजपा शासित राज्यों में ऐसे हिन्दू फासीवादी ही हिंसा व दंगे की शुरूआत करते हैं क्योंकि प्रदेशों में दंगों व हिंसा में बढ़ोत्तरी भाजपा की सत्ता में समानुपातिक वृद्धि की संभावना पैदा करती है।

धार्मिक विग्रहों का इस्तेमाल पूंजीवादी राज्य खुद को बनाये रखने के लिए करता है इसलिए पूंजीवादी राज्य की संस्थायें धर्म के आधार पर होने वाली गोलबंदी व हिंसा को खत्म नहीं करना चाहतीं। यद्यपि धार्मिक गोलबंदी और जलसे पर पूर्ण पाबंदी धर्म के आधार पर की जाने वाली हिंसा को और धर्म आधारित राजनीति के रास्ते को काफी हद तक अवरुद्ध कर सकती है।

इन हिंसाओं में गैर भाजपा दलों का दोष भी कम नहीं है। राज्य में कानून-व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की ज्यादा होती है। किन्तु धर्म की राजनीति के आगे गैर भाजपा दलों का समर्पण भी कम शर्मनाक नहीं है। इन दलों की सरकारें ऐसी हिंसा व दंगों का षड्यंत्र रचने वालों को जेल की दीवारों के अंदर कैद करने में विफल रहती हैं या वे स्वयं ऐसा करना नहीं चाहतीं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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