‘‘शुक्रिया, दुबारा मत आना !’’

आल इण्डिया द्रविड मुनेत्र कड़गम (ए आई डी एम के) ने ‘शुक्रिया दोबारा मत आना’ कहकर अपना नाता मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा व एनडीए गठबंधन से तोड़ लिया। ए आई डी एम के नेतृत्व द्वारा भाजपा से नाता तोड़ने पर उसके कार्यकर्ताओं ने पटाखे फोड़े और भाजपा के नेताओं ने अपने मुंह सिल लिये। 
    
मोदी के हिन्दू फासीवादी अभियान और कार्यशैली का यह स्वभाविक परिणाम निकलना था। ‘हिन्दी-हिन्दू-हिंदुस्थान’ की राजनीति की सबसे तीव्र प्रतिक्रिया तमिलनाडु में हमेशा से होती रही है। इस बार भी जैसे-जैसे मोदी एण्ड कम्पनी अपना हिन्दू फासीवादी शोर मचा रही थी वैसे-वैसे तमिलनाडु में द्रविड आंदोलन से निकली पार्टियों में तीव्र जवाबी प्रतिक्रिया देखने को आ रही थी। ब्राह्मणवादी पाखण्ड-प्रपंच का वहां प्रबल विरोध होता रहा है। 
    
भाजपा के तमिलनाडु राज्य का अध्यक्ष के. अन्नामलाई उग्र ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व का ब्रांड अम्बेसडर बना हुआ है। वह आये दिन द्रविड़ आंदोलन के प्रमुख नेताओं पेरियार, अन्नादुरई पर हमले कर रहा था। यहां तक कि वह ए आई डी एम के की नेता रही जयललिता पर हमले कर रहा था। भाजपा धीरे-धीरे ए आई डी एम के पार्टी को उसी तरह से हजम करती जा रही थी जिस प्रकार वह अन्य राज्यों में अपनी सहयोगी पार्टियों को कर रही थी। नेताओं का अपमान, खिसकता जनाधार के बीच एक न एक दिन उसे भाजपा को यही कहना था- ‘‘शुक्रिया दोबारा मत आना!’
    
मोदी की फासीवादी कार्यशैली में उनके साथ किसी क्षेत्रीय दल का रहना कठिन से कठिनतर होता गया है। इसी का नतीजा निकला कि एन डी ए के सभी प्रमुख घटक शिवसेना, अकाली दल, जनता दल (यू) उससे अलग हो गये। 
    
अब ए आई डी एम के अपने अस्तित्व व भविष्य की लड़ाई लड़ रही है। जयललिता जैसा कोई करिश्माई नेता उसके पास है नहीं। भाजपा इस मौके का फायदा उठाकर उसे हजम करने के चक्कर में थी। भाजपा की चाल और इशारे भांपकर उसने उससे अपना नाता तोड़ने में ही अपनी भलाई समझी। 
    
मोदी एण्ड कम्पनी की हालत तमिलनाडु में उस चौबे जी की तरह हो गयी जो बनने चले थे छब्बे जी पर रहे गये दुबे जी। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।