हिंडनबर्ग का जिन्न और मोदी सरकार

हिंडनबर्ग का जिन्न

मोदी व अडाणी

हिंडनबर्ग संस्था का जिन्न एक बार फिर मोदी सरकार को सताने लगा है। लगभग डेढ़ साल पहले शार्ट सेलिंग कम्पनी हिंडनबर्ग ने भारत के शीर्ष पूंजीपति अडाणी के ऊपर घोटाले का आरोप लगाते हुए एक रिपोर्ट जारी की थी। तब इस पर काफी हंगामा हुआ था। रिपोर्ट का सार यह था कि अडाणी ग्रुप ने विदेशों में खुद द्वारा खड़ी की गयी फर्जी आफशोर कम्पनियों के जरिये अपने शेयरों में निवेश कराकर अपने शेयरों के भाव बढ़ाये हैं। तब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में सेबी ने इस मामले की जांच शुरू की थी। बाद में सेबी (भारतीय प्रतिभूति नियामक संस्था) ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर जांच बंद करने की अपील की कि विदेशी आफशोर कंपनियों के निवेशकों का पता लगाना कठिन है और यह जांच किसी नतीजे की ओर नहीं ले जायेगी। सुप्रीम कोर्ट ने भी उक्त जांच बंद करने पर सहमति दे दी। इस बात को अडाणी ग्रुप व भाजपा द्वारा अडाणी को जांच में निर्दोष पाये जाने के बतौर प्रचारित किया गया। 
    
इसके पश्चात सेबी द्वारा एक ‘कारण बताओ नोटिस’ भी हिंडनबर्ग कम्पनी को भेजा गया। इस नोटिस का जवाब देते हुए कंपनी ने फिर से अपने दावों को न केवल सही बताया बल्कि दावों के पक्ष में और सबूत भी दिये। इसके कुछ वक्त बाद अगस्त माह की शुरूआत में कंपनी ने नये खुलासे करते हुए बताया कि दरअसल वर्तमान सेबी अध्यक्ष माधवी बुच और उनके पति धवल बुच के पास अडाणी ग्रुप द्वारा इस्तेमाल किये गये दो आफशोर फंडों में हिस्सेदारी थी। व इसी के चलते सेबी ने अडाणी ग्रुप के खिलाफ जांच आगे नहीं बढ़ायी व दावा कर दिया कि आफशोर कम्पनियों के हिस्सेदारों का पता करना मुश्किल है। क्योंकि हिस्सेदार अगर उजागर होते तो खुद माधवी बुच का नाम उसमें होता। इसके अलावा यह भी रिपोर्ट ने उजागर किया कि सेबी सदस्य व सेबी अध्यक्ष रहते हुए माधवी बुच ने कैसे अपने पति की कंपनियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की। 
    
हिंडनबर्ग के इस नये खुलासे के बाद एक बार फिर अडाणी ग्रुप के शेयर डांवाडोल होने लगे। सेबी अध्यक्ष व अडाणी ग्रुप ने एक बार फिर आरोपों का खण्डन किया तो विपक्षी दल माधवी बुच को हटाने व संयुक्त संसदीय समिति से पूरे मामले की जांच की मांग करने लगे। इस तरह शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी खुद ही शक व आरोपों के दायरे में आ गई। 
    
जहां विपक्षी पार्टियां कांग्रेस से लेकर सपा-बसपा इस मसले पर सरकार को घेरने पर उतारू थीं वहीं मोदी सरकार किसी भी कीमत पर अपने चहेते अडाणी को बचाने को तैयार थी। भाजपा प्रवक्ताओं ने कुतर्कों की बारिश कर कांग्रेस व हिंडनबर्ग पर आरोप लगाने शुरू कर दिये। उनके आरोपों का सार यह था कि हिंडनबर्ग संस्था भारत के वित्तीय बाजार को अस्थिर करना चाहती है और कांग्रेस उसका साथ दे रही है। एक प्रवक्ता ने तो यहां तक कह दिया कि जार्ज सोरोस का पैसा हिंडनबर्ग कम्पनी में लगा है और सोरोस भारतीय बाजार को अस्थिर करना चाहता है। कुल मिलाकर पक्ष-विपक्ष की इस उठापटक में सरकार किसी नयी जांच को तैयार नहीं हुई व अडाणी की कम्पनी के शेयर फिर चढ़ने लगे। 
    
यहां जो बात गौर करने की है वह यह कि आज के छुट्टे पूंजीवाद के दौर में बड़ी कंपनियां कैसे एक से बढ़कर एक हेराफेरी कर, सरकार व सेबी को जेब में रख अपने शेयरों के भाव व मुनाफे को बढ़ा सकती हैं। जब इन कम्पनियों का बूम पिचकने लगता है तो छोटे निवेशक तबाह होते हैं व कम्पनी मालिकों को बचाने के लिए सरकारें बेलआउट पैकेज ले आगे आ जाती हैं। स्पष्ट है कि छुट्टे पूंजीवाद के इस दौर में चंद बड़ी एकाधिकारी कंपनियां सारे कानूनों की ऐसी तैसी कर भी फलती-फूलती रहती हैं व छोटे निवेशक तबाही झेलते रहते हैं। ये अंबानी-अडाणी सरीखी भीमकाय कंपनियां ही देश-कानून सबकी मालिक बन बैठती हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।