अल-बरूनी ग्यारहवीं सदी में भारत आया था। वह सालों तक भारत में रहा। वह ज्ञान-विज्ञान का पिपासु था। भारत आने का उसका उद्देश्य भी यही था कि वह हिन्दुस्तान के ज्ञान-विज्ञान से परिचित हो। इसके लिए उसने संस्कृत भी सीखी। सालों तक यहां रहने के बाद उसने यहां जो जाना-सीखा उसके आधार पर एक किताब भी लिखी। आज भी इतिहासकारों को तब के भारत के बारे में जानने के लिए उस किताब से काफी सामग्री मिलती है।
उस किताब में अल-बरूनी ने एक रोचक बात का जिक्र किया है। उसने लिखा है कि भारत के खगोलशास्त्रियों को सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण का वास्तविक कारण पता है। इसके बावजूद इसके सबसे बड़े खगोलशास्त्री भी अपनी किताब में सही कारण का वर्णन करने के साथ-साथ राहु-केतु वाली कथा का भी वर्णन करते हैं। अल-बरूनी इसके लिए उनकी आलोचना करता है कि वे वैज्ञानिक सही वैज्ञानिक बात जानते हुए भी पोंगापंथियों के सामने आत्मसमर्पण करते हैं और इस तरह विज्ञान का नुकसान करते हैं।
अल-बरूनी के वर्णन से एक बात स्पष्ट है। भारत में पहले भी विज्ञान और पोंगापंथ के बीच संघर्ष मौजूद था और वैज्ञानिक पोंगापंथियों के सामने आत्मसमर्पण करते थे। वे यह लालच में करते थे या भय के कारण यह स्पष्ट नहीं है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या भाष्कराचार्य और वराहमिहिर जैसे प्रतिष्ठित खगोलशास्त्री आज के भारतीय वैज्ञानिकों की तरह नारियल फोड़ने वाले पोंगापंथी वैज्ञानिक थे? जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि जिसे भारतीय परंपरा कहते हैं, उसमें विज्ञान और पोंगापंथ दोनों मौजूद थे तथा दोनों के बीच संघर्ष भी था।
इतिहास की इन बातों का यहां जिक्र करने का मकसद है। पिछले सालों में लगातार इस तरह की खबरें आती रही हैं कि देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में ज्योतिष विद्या, भूत-प्रेत विद्या इत्यादि का विषय पढ़ाई और शोध के लिए शामिल किया जा रहा है। वैदिक गणित की तो वैसे भी लम्बे समय से चर्चा होती रही है।
जब लोग इन गैर-वैज्ञानिक या पोंगापंथी चीजों को उच्च शिक्षण संस्थानों के विषयों में शामिल करने पर सवाल उठाते हैं तो हिन्दू फासीवादी इसका जवाब देते हैं यह भारतीय परंपरा के अनुरूप है। कि सवाल उठाने वाले भारतीय परंपरा पर सवाल उठा रहे हैं। वे भारतीय संस्कृति के विरोधी हैं, इत्यादि।
यह सही है कि ज्योतिष शास्त्र, भूत विद्या, इत्यादि भारतीय परंपरा में थे। बिलकुल उसी तरह जैसे चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट इत्यादि वैज्ञानिक भारतीय परंपरा में थे। यह भी संभव है कि भाष्कराचार्य और वराहमिहिर की तरह विज्ञान और पोंगापंथ साथ-साथ रहे हों।
अब सवाल यह उठता है कि भारत की विशाल और समृद्ध परंपरा से कौन क्या चुनता है। कौन विज्ञान को चुनता है, कौन पोंगापंथ को? यह इस बात पर निर्भर करता है कि आज कौन विज्ञान को स्वीकार करता है और कौन पोंगापंथ को।
हिन्दू फासीवादियों के लिए इसमें कोई दुविधा नहीं है। उन्होंने पोंगापंथ को चुन रखा है। उन्हें विज्ञान से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तकनीक, वे उसी पश्चिम से आयातित कर लेंगे जिसे वे दिन-रात कोसते हैं। इसीलिए वे लगातार सारे उच्च शिक्षण संस्थानों की दुर्गति कर रहे हैं और उनमें ज्योतिष विद्या और भूत विद्या जैसे विषय भर रहे हैं।
आज अल-बरूनी होता तो वह हिन्दू फासीवादियों को उससे कई गुना हिकारत की नजर देखता जितना उसने तब किया था।
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