विश्वगुरू कहां जा रहे हो

देश के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘भारतीय शिक्षण परंपरा’ के नाम पर भूत विद्या, ज्योतिष, हिन्दू, बौद्ध, जैन केंद्र स्थापित किये जा रहे हैं। यह एक जानी-मानी बात है कि उक्त सभी अतीत में मानव के अज्ञान की पैदाइश थे। जिन्हें धीरे-धीरे इंसान पीछे छोड़ता जा रहा है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तो मानो इसके दुश्मन हैं। इसीलिए जब कोई व्यक्ति किसी बात को बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता है तो उसे अक्सर ‘अक्ल का दुश्मन’ कहा जाता है। संघ-भाजपा समर्थक देश को स्वघोषित तौर पर ‘‘विश्वगुरू’’ कहते हैं। यह अलग बात है कि उनके अलावा इस पर समझदार लोग तो छोड़िए बच्चे भी यकीन नहीं करते।
    
केंद्र सरकार ने शिक्षा मंत्रालय के अधीन ‘भारतीय शिक्षण परंपरा’ नामक संस्था की स्थापना की है। जिसका उद्देश्य प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को पुनः स्थापित करना है। इसके लिए प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रम में बदलाव किए जा रहे हैं। स्वघोषित ‘‘विश्वगुरू“ की समस्या यह है कि ये धृतराष्ट्र की तरह अंधे नहीं हैं। बल्कि इन्होंने किसी ‘वरदान’ की आस में गांधारी की तरह आंख में पट्टी बांध रखी है। वरना तो प्राचीन भारत में गणित से लेकर चिकित्सा शास्त्र तक आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत, वराहमिहिर आदि हैं। लेकिन इन्होंने चुना है भूत विद्या, ज्योतिष, धार्मिक ज्ञान, आदि। 
    
क्या अंदाज लगाना मुश्किल है कि ‘‘विश्वगुरू’’ कहां जा रहे हैं? परेशानी यह है कि ये देश की शिक्षा व्यवस्था सहित पूरे समाज को उस ओर ही घसीटते जा रहे हैं। समाज काफी हद तक इनके दिए घावों से आहत है। समय रहते इन स्वनामधन्य ‘‘विश्वगुरू’’ को रोकना होगा। वरना ये देश को फासीवादी ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ की खाई में फेंककर ही मानेंगे।

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।