बलात्कार की संस्कृति और संस्कृति का पाखंड

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

बलात्कार के जघन्य और वीभत्स मामले आते ही आज पूंजीवादी दायरों में एक तरह की पूर्व निर्धारित प्रतिक्रिया होती है। एक और हिंदू फासीवादी अपनी सुविधा के हिसाब से फांसी-फांसी चिल्लाने लगते हैं। दूसरी और उदारवादी और वाम-उदारवादी कानून-व्यवस्था के लचर होने का रोना रोने लगते हैं। कुछ थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो पुरुष मानसिकता को कोसने लगते हैं। 
    
यह सारे ही ऐसा करते हुए यह तथ्य आसानी से भुला देते हैं कि बलात्कार के विशाल बहुमत के मामले जान-पहचान के लोगों से संबंधित होते हैं। ऐसे मामलों का ना तो कानून-व्यवस्था से लेना-देना होता है और न ही इनके उजागर होने पर फांसी-फांसी का शोर मचता है। अक्सर ही ऐसे मामलों में पहली प्रतिक्रिया मामले को दबा देने की होती है। 
    
समाज की इसी हकीकत को देखते हुए यह आसानी से समझा जा सकता है कि मलयाली सिनेमा जगत में महिलाओं के यौन उत्पीड़न का मामला सामने आने पर चारों ओर इतनी मासूमियत पर आक्रोश क्यों दिखाई पड़ा। सबने यह ढोंग किया कि वे सब यह जानकर स्तब्ध हैं। इसके उलट सच्चाई यही है कि यह सब न केवल मलयाली सिनेमा में बल्कि पूरे सिनेमा जगत में आम है। और सिनेमा जगत में ही क्यों? माडलिंग, पत्रकारिता से लेकर सभी शोहरत वाली जगह पर यह आम है। इतना ही नहीं, गैर-शोहरत वाली जगहों पर भी यह आम है। यह यूं ही नहीं है कि महिलाओं से फैक्टरियों में रात की पारी में काम कराने का इतना विरोध हो रहा है। 
    
समाज की इस हकीकत को कैसे समझा जाए? एक ओर बलात्कार और यौन उत्पीड़न की समाज में इतने बड़े पैमाने पर मौजूदगी और दूसरी ओर इस पर समाज में खास तरह की प्रतिक्रिया को कैसे समझा जाए? 
    
इसे समझने के लिए एक प्रस्थान बिंदु यह तथ्य हो सकता है कि दो स्वनाम धन्य जीव वैज्ञानिकों ने यह साबित करने के लिए एक किताब लिखी कि बलात्कार की इंसान के जैव विकास में एक सहयोगात्मक भूमिका है। पूंजीवादी समाजों में बलात्कार की इतने बड़े पैमाने पर घटनाओं से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि बाकी समाजों में भी यही होता था। फिर इससे यह निष्कर्ष निकाला कि सभी समाजों में मौजूद होने के कारण इसका कोई जैविक आधार होना चाहिए। और यदि बलात्कार का जैविक आधार है तो इसकी कोई भूमिका भी होनी चाहिए क्योंकि बिना किसी भूमिका के तो कोई चीज मौजूद नहीं हो सकती। 
    
इन जीव वैज्ञानिकों की इस थीसिस को कोई घृणास्पद मान सकता है पर इस तरह की थीसिस का सामने आना ही यह दिखाता है कि आज के पूंजीवादी समाजों में बलात्कार और यौन उत्पीड़न आम है और इस सच्चाई के सामने समर्पण कर इसे जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है। अब यदि कोई घृणास्पद इंसानी व्यवहार उसके जैविक चरित्र में ही हो तो क्या किया जा सकता है? 
    
भले लोगों को यह थीसिस भले ही बहुत ऊल-जलूल लगे पर इसका नरम संस्करण को समाज में पर्याप्त मान्यता प्राप्त है और किन्हीं देशों में तो इस आधार पर सजा का भी प्रावधान है। आखिर बार-बार बलात्कार करने वाले को नपुंसक बना देने की सजा का और क्या मतलब हो सकता है? या जब बलात्कारी को नपुंसक बना देने की मांग होती है तो उसका क्या मतलब होता है? यहां तक कि जब फांसी देने की मांग होती है तो उसका क्या मतलब होता है?
    
समाज में ऐसे पर्याप्त लोग मिल जाएंगे जो बलात्कार का जैविक आधार तलाशते हैं। ये लोग उपरोक्त जीव वैज्ञानिकों की तरह सचेत नहीं होते पर उनकी सोच भी मूलतः वही होती है। यौन इच्छाओं और यौन क्रिया में स्त्री-पुरुष की भूमिका के मामले में ये लोग जैविक आधार पर भेद करते हैं और फिर वहां से बलात्कार को प्रकारांतर से जायज ठहराने का सिलसिला चल पड़ता है। 
    
यह सारे लोग इंसानी यौन व्यवहार को सामाजिक से पूर्णतः जैविक स्तर पर उतार लाते हैं और फिर इंसान को जानवर घोषित कर देते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि जानवरों में यौन व्यवहार बहुत ज्यादा नियमित और नियंत्रित होता है और वहां बलात्कार जैसी चीज नहीं होती। बलात्कारी इंसानों को जानवर बताकर वे इंसान ही नहीं बल्कि जानवरों पर भी बेजा तोहमत लगा रहे होते हैं।
    
समाज में बलात्कार की बड़े पैमाने पर मौजूदगी को समझने का एक दूसरा प्रस्थान बिंदु समाज की सत्ता संरचना हो सकती है। कई लोग इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि पुरुष अपनी सत्ता या अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए बलात्कार के हथियार का इस्तेमाल करते हैं। घर के भीतर पति द्वारा पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में तो यह बात समझ में आती है पर बाकी जगह इसे इस रूप में समझना मुश्किल है। जब बदला लेने के लिए या सबक सिखाने के लिए परिवार के मर्दों द्वारा, सांप्रदायिक दंगों में दंगाइयों द्वारा या फिर अन्य मामलों में पुलिस और सेना द्वारा बलात्कार किया जाता है तो वहां स्त्री-पुरुष सत्ता संरचना का मामला बहुत दूर की चीज होता है। वहां बलात्कार की शिकार स्त्रियां होती हैं जबकि लक्ष्य परिवार या समुदाय होता है। 
    
कहा जा सकता है कि जब लड़कियां या स्त्रियां स्वतंत्र और स्वच्छंद तरीके से चलती-फिरती, उठती-बैठती हैं, कपड़े पहनती हैं, पढ़ती-लिखती हैं तथा नौकरी-व्यवसाय करती हैं तो बहुत सारे लड़कों-पुरुषों को यह बर्दाश्त नहीं होता। वे उन्हें उनकी औकात दिखाना चाहते हैं। इसीलिए वे छेड़खानी करते हैं, यौन दुर्व्यवहार करते हैं तथा बलात्कार करने तक जा पहुंचते हैं। लेकिन यहां सवाल उठता है कि जो सामंती मानसिकता लड़कों-पुरुषों को लड़कियों-स्त्रियों की स्वतंत्रता-स्वच्छंदता को स्वीकार नहीं करने देती वहीं सामंती मानसिकता उन्हें अपनी प्रतिक्रिया ज्यादा सभ्य तरीके से व्यक्त करने की ओर क्यों नहीं ले जाती? सामंती मानसिकता का तकाजा तो यही है। सामंती मानसिकता और नैतिकता का व्यक्ति दूसरों की स्वच्छंदता का जवाब अपने को लंपट बनाकर कैसे दे सकता है? यदि वह नैतिकता का पुजारी है तो स्वयं लंपट और अपराधी कैसे बन सकता है?
    
दरअसल आज समाज में बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं। भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी समाज में इसमें पुरानी सामंती संस्कृति के तत्व भी घुल-मिल जाते हैं। 
    
पूंजीवादी समाजों में हर चीज माल का रूप धारण कर लेती है। इसमें इंसानी शरीर और इंसानी यौन-व्यवहार भी माल बन जाता है। इंसानी शरीर और इंसानी यौन-व्यवहार पहले के वर्गीय समाजों में भी माल की तरह रहा पर अत्यंत सीमित स्तर पर, ठीक उसी तरह जैसे उन समाजों में बाकी चीजें भी सीमित स्तर पर ही माल होती थीं। पूंजीवादी समाजों में माल सार्विक हो जाता है। 
    
आज इंसानी शरीर और इंसानी यौन-व्यवहार का सार्विक माल का स्वरूप हर जगह देखा जा सकता है। इसका चरम है खरीद-बेच वाले यौन व्यवहार (वेश्यावृत्ति) को यौन काम (सेक्स वर्क) घोषित कर देना। यह न केवल इंसानी शरीर और यौन-व्यवहार की खरीद-बेच को कानूनी बनाता है बल्कि यह उसे नैतिक भी बना देता है। अब वेश्यावृत्ति भी किसी दूसरे काम की तरह सम्मानित काम या सम्मानित पेशा बन जाती है। 
    
जब वेश्यावृत्ति एक सम्मानित पेशा हो तो इससे कम की खरीद-बेच में तो और भी कोई दिक्कत नहीं होगी। सिनेमा इत्यादि में शरीर की नुमाइश, विज्ञापनों में शरीर की नुमाइश तथा रिसेप्शन और ‘पब्लिक रिलेशन’ के कामों में शरीर की नुमाइश अत्यंत सामान्य चीज बन जाती है। इतना ही नहीं, ऐसा करने वाले मशहूर हस्तियां बन जाते हैं।
    
यह कोई गूढ़ बात नहीं है कि माल बेचने के लिए विज्ञापन में स्त्री शरीर की नुमाइश असल में उस शरीर को बेचना है। यह वह चारा है जिससे मछली यानी ग्राहक को आकर्षित किया जाता है। इसी तरह फिल्मों को बेचने के लिए उसमें स्त्री शरीर की नुमाइश की जाती है। पूंजीवाद में न केवल इसे गलत नहीं माना जाता बल्कि उसे जरूरी समझा जाता है। 
    
ऐसे सारे मामलों में दोनों पक्षों के लिए साफ होता है कि क्या हो रहा है। जो स्त्री शरीर की नुमाइश कर रहा होता है उसके लिए भी और जो देख रहा होता है उसके लिए भी। जो स्त्री अपने शरीर को नुमाइश के लिए पेश कर रही होती है उसके लिए भी साफ होता है। 
    
इस सबमें भौंड़े या सूक्ष्म तरीके से एक ही चीज की जा रही होती है। वह है पुरुषों को यौन मामले में उत्तेजित करना। उसकी यौन इच्छाओं को भड़काना। और जब यह दिन-रात हर जगह हो रहा हो तो पुरुषों के दिमाग में अचेत तौर पर यह बात बैठ जाना लाजिमी है कि स्त्री शरीर महज यौन उपभोग की चीज है। यह इस हद तक हो जाता है कि स्त्री शरीर उसके मालिक यानी व्यक्तिगत स्त्री से विच्छिन्न हो जाता है। वह स्त्री शरीर मात्र बन जाता है। जिस तरह पूंजीपतियों के लिए कोई भी विशिष्ट माल बस माल होता है जिसकी खरीद-बेच से वे मुनाफा कमाते हैं उसी तरह विशिष्ट स्त्री का शरीर बस शरीर मात्र बन जाता है जो पुरुष के लिए यौन उपभोग की चीज होता है। पुरुष द्वारा स्त्री शरीर को उसी रूप में देखना एकदम स्वाभाविक हो जाता है। जब लंपट या यहां तक कि सभ्य पुरुष भी स्त्री शरीर को माल कहते हैं तो वे बस इसी भाव को शब्द दे रहे होते हैं। 
    
इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 
    
पर पूंजीवाद का समूचा इतिहास, उसकी पैदाइश से लेकर अभी तक का इतिहास तो जोर-जबर्दस्ती का इतिहास ही रहा है। पूंजीवाद के किसी भी समाज में और सारी दुनिया में प्रसार में जितनी भूमिका सामान्य खरीद-बेच की रही है, उससे ज्यादा जोर-जबर्दस्ती की। उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के मूल बाशिन्दों, अफ्रीकी लोगों से लेकर एशिया के पूर्व के गुलाम देशों के लोग इससे अच्छी तरह वाकिफ हैं। आज भी यह जोर-जबर्दस्ती धड़ल्ले से जारी है। यानी खरीद-बेच के अलावा चोरी, डकैती, छीना-झपटी भी पूंजीवाद के लिए उतना ही सहज-स्वाभाविक है। 
    
स्त्री शरीर को मात्र उपभोग की चीज बनाकर दिन-रात उससे पुरुषों को ललचाने वाला, उसकी कामुक भावनाओं को भड़काने वाला पूंजीवादी समाज फिर चाहता है कि पुरुष अपनी इच्छाओं की पूर्ति बस खरीद-बेच के जरिए या आपसी सहमति से करें। अन्य सभी क्षेत्रों में लूटमार को आम मानने वाला पूंजीवादी समाज पाखंडी तरीके से सोचता है कि इस मामले में चोरी, डकैती, छीना-झपटी न हो। इस मामले में जोर जबरदस्ती ना हो। इस मामले में पुरुष पूंजीवादी संत बन जाएं।। 
    
पूंजीवादी समाज की इस संस्कृति को ध्यान में रखने पर यह समझा जा सकता है कि बलात्कारी के लिए क्यों स्त्री शरीर की उम्र का, उनके ऊपर के कपड़ों-लत्तों का या फिर उस शरीर के मालिक व्यक्ति से रिश्ते का कोई महत्व नहीं होता। उसकी नजर में बस एक स्त्री शरीर होता है जो उपभोग की चीज है और जिसका उपभोग करने के लिए उसे दिन-रात उकसाया जाता है। दिन-रात उकसाए जाने के कारण वह लगभग हमेशा ही कामुक भावना से सराबोर रहता है। यौन क्रिया उसके लिए बेहद आत्मिक संतुष्टि प्रदान करने वाली और इसीलिए समयातंराल पर की जाने वाली चीज नहीं होती। वह क्षण-क्षण ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाली उपभोक्तावादी चीज हो जाती है। बस डर-भय और अनुपलब्धता ही उसकी सीमा बनती है। यह यूं ही नहीं है कि पूंजीवादी समाजों में ‘एक स्त्री-एक पुरुष’ की नैतिकता पर वास्तव में दिल से खड़े लोगों का इस कदर अभाव होता है। ‘‘अवैध संबंध’’ पूंजीवाद में क्यों आम हो जाते हैं, इसे भी समझा जा सकता है। पूंजीवादी नैतिकता के हामी फिर भी कहेंगे कि खरीद-बेच, ‘‘अवैध संबंध’’ सब जायज हैं, बस आपसी सहमति होनी चाहिए। जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। खासकर ‘‘मी टू’’ के मामले में यह बात सामने आती है। पर क्या कोई बता सकता है कि पूंजीवाद में आम सहमति और जोर-जबर्दस्ती के बीच सीमा रेखा कहां होती है? इस संबंध में ‘तहलका’ पत्रिका के संपादक का बयान काबिले गौर है। अपने ऊपर एक प्रशिक्षु पत्रकार द्वारा बलात्कार का आरोप लगाये जाने पर उसने कहा था कि उसकी ओर से ‘‘ग्रास एरर आव जजमेंट’’ था। यानी उस लड़की को समझने में बड़ी भूल हुई थी। स्पष्टतः ही वह पहले कईयों के साथ यह कर चुका था और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया था। यहां मामला फंस गया। 
    
यह जानी-पहचानी बात है कि पूंजीवाद में सफलता की सीढ़ियां उत्तरोत्तर चढ़ने के लिए लोग खरीद-बेच के उसूल के तहत कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं। शरीर की खरीद-बेच भी इसमें शामिल है। पूंजीवाद के आम उसूल के तहत यह गैर-कानूनी और अनैतिक भी नहीं है। फिर इस पर इतना हंगामा क्यों? इतना नैतिक आक्रोश क्यों? कैथोलिक पादरियों की तरह इतना पाखंड क्यों? हां, जनवादी अधिकार के तहत यहां ‘आपसी सहमति’ होनी चाहिए। पर पूंजीवाद में सम्पत्तिवान और शक्तिशाली लोग कितनी जगह जनवादी उसूलों का सम्मान करते हैं? क्या जनवाद के घोषित उसूलों का उल्लंघन पूंजीवाद की आम सच्चाई नहीं है? 
    
उपरोक्त बातों की रोशनी में स्पष्ट है कि बलात्कार की जघन्य घटनाओं पर या यौन-उत्पीड़न के मामलों पर पूंजीवादी लोगों द्वारा आक्रोश प्रदर्शन या तो पाखंड है या फिर धूर्धता। वे जिस पूंजीवादी संस्कृति के पुजारी हैं, उसमें यही सब होता रहेगा।

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