
आजकल यौन हिंसा के खिलाफ पूरे देश में आक्रोश फूटा हुआ है। कलकत्ता के एक मेडिकल कॉलेज की छात्रा के साथ हुयी यौन हिंसा और क्रूर ढंग से की गयी हत्या के बाद आक्रोश उस हद तक पहुंचा कि स्वयं उच्चतम न्यायालय को ‘‘स्वतः संज्ञान’’ के नाम पर हरकत में आना पड़ा। वाचाल परन्तु ज्वलंत मुद्दों पर खामोश रहने वाले प्रधानमंत्री को भी कुछ बोलना पड़ा। कल तक कांग्रेसी रहे और अब कट्टर संघी बने असम के मुख्यमंत्री ने अपनी जुबान इस मुद्दे पर खोली तो फिर जहर उगला और बेवजह मुसलमानों को गाली देना और धमकाना शुरू कर दिया। किसी कथित अपराधी के मुस्लिम होने पर भाजपा एण्ड कम्पनी साम्प्रदायिक उन्माद को हवा देने लगती हैं लेकिन वही अपराधी के हिन्दू होने पर ‘‘हिन्दुओं’’ पर खामोश होकर विपक्षी पार्टियों को कोसती है या फिर कहने लगती है कि ‘संवदेनशील मुद्दों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए’। महाराष्ट्र में राजनीति नहीं होनी चाहिए क्योंकि वहां चार साल की बच्ची का यौन उत्पीड़न करने वाला अपराधी हिन्दू है परन्तु असम में, अपराधी के मुस्लिम होने पर हिन्दू फासीवादी राजनीति करते हुए मुख्यमंत्री ही जमीन-आसमान एक करने लगते हैं। ‘राजनीति नहीं होनी चाहिए’ भी एक तरह की राजनीति है।
कलकत्ता की वीभत्स घटना के बाद, एक के बाद एक वीभत्स घटनाएं पूरे देश में आक्रोश की वजह बन गईं। असम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र यानी देश के एक छोर से दूसरे छोर तक दिमाग को सुन्न करने वाली घटनाएं सामने आती गईं। इस हिंसा के निशाने पर अबोध बच्चियों से लेकर जवान औरतें तक थीं। निर्भया काण्ड की तरह क्रूर घटनाएं आये दिन घट रही हैं। पाक्सो से लेकर कई तरह के कठोर कानून और असम की तरह की ‘‘त्वरित न्याय’’ जैसी कार्यवाहियां भी यौन हिंसा से निपटने में नाकाम साबित होती रही हैं। महाराष्ट्र के बदलापुर में प्रदर्शनकारी फांसी के फंदे के साथ प्रदर्शन कर रहे थे। सार्वजनिक स्थल पर बिना किसी देर के, न्याय प्रक्रिया का पालन किये बगैर तुरंत फांसी देने की मांग बता रही है कि जनाक्रोश मध्ययुगीन तालिबानी न्याय की मांग की हद तक चला जा रहा है। ‘‘त्वरित न्याय’’ कभी हो सकता है कि तात्कालिक तौर पर जनाक्रोश को ठण्डा कर दे परन्तु यह यौन हिंसा की समस्या को वास्तविक रूप से हल नहीं कर सकता है। और पिछले समय में यह बार-बार साबित होता रहा है। फिर सवाल उठता है कि हमारे समाज में यौन हिंसा कैसे खत्म होगी। और फिर उन निर्दोषों (जो बाद में बेगुनाह व फंसाये गये, पाये गये) का क्या होगा जिन्हें त्वरित न्याय के नाम पर फांसी पर लटका दिया जायेगा।
सख्त कानून, कठोर सजा, पुलिस का खौफ जैसी चीजें यौन हिंसा के समाधान में इंच भर भी असर नहीं डालती हैं क्योंकि इन सभी तौर-तरीकों में उस जमीन को कभी निशाना नहीं बनाया जाता है जहां से ऐसे क्रूर अपराधी बार-बार जन्म लेते हैं। यह जमीन अपराधियों को बार-बार जन्म देती है परन्तु समाधान के तौर पर अपराधी का खात्मा जमीन का खात्मा नहीं साबित होता है। इस वक्त पूरे देश में फूटे जनाक्रोश में भी इस बात को देखा जा सकता है।
यौन हिंसा हमारे समाज के हर कोने-अंतरे में पसरी हुयी है। समाज से लेकर घर तक यौन हिंसा में लिप्त हैं। समाज में यौन हिंसा का शिकार होने वाले औरतें-बच्चे यहां तक कि अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। नारीवादी जब आक्रोशित होकर यह कहने लगते हैं कि हर पुरुष बलात्कारी नहीं है पर एक संभावित बलात्कारी है तो इसमें अति रंजना के बावजूद सत्य का एक अंश भी है। इसी को किसी अन्य रूप में मां-बहनें किशोरियों को प्रशिक्षित करने के नाम पर कहती हैं कि बाप पर भी इस मामले में भरोसा नहीं करना चाहिए। ये बातें यह दिखलाने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारे समाज में आम महिलाओं, किशोरियों के मन में असुरक्षा की भावना व्यापक रूप में फैली हुयी है और कलकत्ता, बदलापुर जैसी घटनाएं उन के भीतर सामाजिक आतंक का रूप धारण कर लेती हैं। ये बातें भी यही साबित करती हैं कि यौन हिंसा और उसका आतंक उस जमीन की स्वाभाविक उपज है जहां से निरन्तर एक से बढ़कर एक खौफनाक अपराधी जन्म लेते हैं। महज ‘कानून-व्यवस्था’ (ला एण्ड आर्डर) के आधार पर उस जमीन को खत्म नहीं किया जा सकता है जिससे सामाजिक तौर पर यौन हिंसा के अपराधी जन्म लेते हैं।
यौन हिंसा उसी सामाजिक जमीन से पैदा होती है जिस जमीन से समाज में अन्य तरह की हिंसा यानी साम्प्रदायिक, नस्लीय, जातीय, बर्बर युद्ध व राजकीय हिंसा पैदा होती है। यौन हिंसा के सवाल को अलग-थलग रूप में न तो देखा जा सकता और न ही हल किया जा सकता है। यौन हिंसा महज किसी एक स्त्री या बच्ची पर एक व्यक्ति अथवा गैंग द्वारा हमले भर तक का मामला नहीं है। आम तौर पर स्त्रियों और बच्चों को उस वक्त भी हिंसा का शिकार बनाया जाता है जब साम्प्रदायिक-नस्लीय-जातीय दंगे फूटते हैं या फिर राज्य की सेना व पुलिस किसी समुदाय, किसी राष्ट्रीयता का दमन कर रही होती है। भारतीय राज्य के सुरक्षा बलों के काले कारनामों से आजाद भारत का इतिहास भरा पड़ा है। कश्मीर से लेकर मणिपुर तक हजारों-हजार स्त्रियां हैं जो बता सकती हैं सेना-पुलिस ने उनके साथ किस हद तक बर्बरता की है। साम्प्रदायिक-नस्लीय दंगों के समय बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों के साथ करते रहे हैं इसकी सैकड़ों घटनाएं पिछले दो-तीन दशकों में ही गुजरात से लेकर मणिपुर तक घटी हैं। इसलिए जो कोई भी यौन हिंसा के बारे में गहराई से विचार करेगा तो वह पायेगा कि यौन हिंसा का महज व्यक्तिपरक चरित्र व समाधान नहीं है। यह समस्या असल में हमसे पूरे समाज में आमूल चूल परिवर्तन की मांग कर रही है। यानी यौन हिंसा की समस्या का वास्तविक समाधान सामाजिक क्रांति में निहित है। खुले शब्दों में कहा जाए तो यौन हिंसा वर्तमान पूंजीवादी समाज में कभी भी समाप्त नहीं हो सकती है। चाहे प्रधानमंत्री कितने ही उग्र अथवा मार्मिक भाषण दे दें या फिर उच्चतम न्यायालय कितने ही मामलों को स्वतः संज्ञान में ले ले अथवा जो मामले उसके पास बरसों से पड़़े हैं उन्हें वह रातों-रात निपटा दे। गौर से देखें तो प्रधानमंत्री अथवा न्यायाधीश व्यक्तिपरक मामलों में तो भी यदाकदा सक्रिय दिखाई देते हैं परन्तु वे भी अपनी ही व्यवस्था के पहरूओं द्वारा की जाने वाली यौन हिंसा अथवा हिंसा के मामले में चुपचाप मौन साध लेते हैं। मणिपुर में दशकों से चली हिंसा के मामले में समय-समय पर बने प्रधानमंत्री अथवा न्यायाधीशों का मौन अपनी कहानी आप कह देता है। भारत के हालिया इतिहास से परिचित कोई भी व्यक्ति उस घटना को कैसे भूल सकता है जब मणिपुर की आक्रोशित महिलाओं ने ‘भारतीय सेना आओ हमसे बलात्कार करो’ के बैनर के तले इंफाल में नग्न होकर प्रदर्शन किया था।
यौन हिंसा सिर्फ भारतीय समाज की परिघटना नहीं है बल्कि इसका स्वरूप वैश्विक है। कोई भी देश इससे अछूता नहीं है। दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश संयुक्त राज्य अमेरिका हो अथवा फिर दुनिया के सबसे कमजोर देशों में शामिल रवाण्डा या हैती हों। यौन हिंसा अपने व्यापक सामाजिक स्वरूप के साथ दुनिया के हर देश में कम या ज्यादा रूप में मौजूद है। इस तरह से देखें तो यौन हिंसा का समाधान भारत ही नहीं पूरी दुनिया की अलग-अलग किस्म की समाज व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करता है। इस रूप में देखा जाए तो यौन हिंसा के खिलाफ किसी भी संघर्ष अथवा जन आंदोलन में अपराधियों को फांसी पर लटकाने के स्थान पर वर्तमान शोषण-उत्पीड़नकारी पूंजीवादी समाज व्यवस्था को फांसी पर लटकाने की मांग सर्वप्रथम रूप से होनी चाहिए।