कौन किसका बॉस? कौन किसका पीर?

मोदी या भागवत

भाजपा का नया अध्यक्ष कौन होगा इसको लेकर अपने को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा तथा अपने को ‘‘सांस्कृतिक संगठन’’ कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच पर्दे के पीछे संघर्ष चल रहा है। मोदी-शाह एंड कंपनी नड्डा की तरह की अपनी कोई कठपुतली चाहते हैं तो संघ प्रमुख मोहन भागवत ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो संघ का मोहरा हो। 
    
संघ नाम का ‘‘सांस्कृतिक संगठन’’ भाजपा नाम के राजनैतिक संगठन पर अपना प्रभुत्व व पकड़ चाहता है जबकि नड्डा नाम के भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष ने घोषणा की कि अब वे बड़े हो चुके हैं अब उन्हें संघ की जरूरत नहीं है। 
    
नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत लगभग एक ही उम्र के हैं। मोदी व मोहन भागवत एक ही महीने व एक ही साल (सितंबर, 1950) में पैदा हुए हैं। भागवत, मोदी से महज 6 दिन बड़े हैं। दोनों ही संघ की पाठशाला से ही निकले हैं। एक राजनैतिक संगठन का सर्वेसर्वा है तो दूसरा ‘‘सांस्कृतिक संगठन’’ का सर्वेसर्वा है। संघ का अपना आधार है तो मोदी का भी अपना आधार है। दोनों एक-दूसरे के आधार में घुसपैठ रखते हैं। कहीं-कहीं आधार साझा है तो कहीं-कहीं एक-दूसरे से कुछ-कुछ स्वतंत्र भी है। 
    
भाजपा अध्यक्ष को लेकर राजनैतिक व ‘‘सांस्कृतिक संगठन’’ के बीच खींचतान नयी नहीं है। यह भारतीय जनसंघ (भाजपा के पूर्व अवतार) के समय से है। समय-समय पर ऐसे अध्यक्ष या ऐसे नेता भारतीय जनसंघ या भाजपा में होते रहे हैं जिन्हें संघ ने औकात दिखाई है। इनमें सबसे पहला नाम मौली चंद्र शर्मा का है जो जनसंघ के दूसरे अध्यक्ष थे। इनका जैसा हाल एक समय बलराज मधोक का फिर हाल के समय में लालकृष्ण आडवाणी का हुआ। आडवाणी काफी दिन तक अड़े परंतु नरेंद्र मोदी ने संघ के सहयोग से ज्यादा अंबानी-अडाणी जैसों के दम पर उनके तंबू को हमेशा के लिए उखाड़ फेंका। बस हाल के आम चुनाव के पहले मोदी ने आडवाणी के जख्मों पर ‘‘भारत रत्न’’ का मरहम लगाया था। शर्मा, मधोक, आडवाणी जैसे तो जैसे-तैसे संघ के काबू में आ जाते थे पर मोदी एंड कंपनी ऐसे बिगड़ैल अरबी घोड़े साबित हो रहे हैं कि संघ के काबू से बाहर हैं। 
    
कौन किसका बॉस है? कौन किसका पीर है? इसका फैसला आने वाले महीनों में इस बात से तय होगा कि भाजपा अध्यक्ष के पद पर किसकी चलती है। मोदी की या फिर भागवत की। राजनैतिक संगठन की या फिर सांस्कृतिक संगठन की। या फिर कोई इनके समझौते से पैदा हुआ नेता अध्यक्ष बनता है। अभी तो फिलहाल पर्दे के पीछे इसका खेल चल रहा है।

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।