उ.प्र. : नई फासीवादी डिजिटल मीडिया नीति

उ.प्र की योगी सरकार फासीवादी कदमों के मामले में केन्द्र सरकार को कड़ी टक्कर दे रही है। मोदी-शाह से चार कदम आगे बढ़कर योगी सरकार ने सारे जनवादी अधिकारों को खत्म करने की ठान ली है। ‘बुलडोजर न्याय’ के लिए पहले से बदनाम हो चुकी योगी सरकार ने अब नई डिजिटल मीडिया नीति के जरिये नये तानाशाही पूर्ण कदम उठाये हैं। 
    
नई नीति के तहत सरकार ने सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर सरकार की बड़ाई करने वाले, सरकारी योजनाओं का प्रचार करने वालों को विज्ञापन के नाम पर आर्थिक मदद देने की घोषणा की है। यह मदद अलग-अलग प्लेटफार्मों के लिए 2 से 8 लाख रु. प्रतिमाह की होगी। इसके साथ ही सरकार की नजर में आपत्तिजनक, अश्लील व राष्ट्रविरोधी सामग्री पर इस नीति में सजा का प्रावधान है। यह सजा 3 वर्ष से उम्र कैद तक हो सकती है। इसके साथ ही आपराधिक मानहानि का केस भी चलाया जा सकता है। 
    
यह नई नीति सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर सक्रिय लोगों की अभिव्यक्ति पर नकेल कसने की योगी सरकार की नई कोशिश है। साथ ही पैसे का लालच दिखा उन्हें पालतू बनाने का भी प्रयास है। जाहिर है योगी सरकार की भाषा में राष्ट्रद्रोह का अर्थ सरकार का किसी भी तरह का विरोध होगा। पहले ही बुलडोजर के जरिये अल्पसंख्यकों व विरोधियों को आतंकित करने में योगी काफी नाम कमा चुके हैं। निर्दोष लोगों के मकान-दुकान ढहाने में उ.प्र. सरकार सारे कानून को ठेंगा दिखाती रही है। 
    
अब आने वाले वक्त में नई नीति के तहत सोशल मीडिया पर चाटुकार लोग योगी की तारीफ में वीडियो से लेकर पोस्ट लिखते दिख सकते हैं तो योगी के आलोचक जेल की सलाखों में जाते दिख सकते हैं। योगी लोकसभा चुनाव में भाजपा की उ.प्र. में बुरी गत से सबक सीखने को तैयार नहीं दिखते। तभी तो कभी वे प्रदेश में समस्त नजूल भूमि मुक्त कराने, कभी बांग्लादेश पर भड़काऊ बयान देते नजर आते हैं। 
    
मोदी के बाद दिल्ली की गद्दी पर नजर लगाये योगी का हस्र क्या होगा यह तो आने वाला वक्त बतायेगा। पर एक ‘योगी’ दमन-उत्पीड़न-गुण्डाराज, मनमानेपन, तानाशाही में बड़े से बड़े भोगियों को पीछे छोड़ सकता है, इसे उ.प्र. की जनता समझती जा रही है। इसीलिए आज नहीं तो कल जनता इन्हें पटखनी दे इनके मठ में वापिस भिजवा सकती है। प्रधानमंत्री बनने का इनका स्वप्न आडवाणी सरीखे हस्र का शिकार हो सकता है।  

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।