अमेरिकी चुनाव में ट्रंप की जीत : युद्धों और वैश्विक राजनीति पर प्रभाव

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5 नवंबर को अमेरिकी चुनाव के परिणामों ने कई राजनीतिक प्रेक्षकों को चौंका दिया। लेकिन यह परिणाम आश्चर्यजनक नहीं थे। डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस यहूदी नस्लवादी इजरायली सरकार द्वारा छेड़े गए नरसंहारक युद्ध का खुला समर्थन कर रही थीं और इजराइल को राष्ट्रपति बाइडेन हथियार और गोला-बारूद की निरंतर आपूर्ति करके युद्ध को आगे फैलाने में समर्थन व सहयोग कर रहे थे। जबकि ट्रंप यह दावा कर रहे थे कि वह पश्चिम एशिया और यूक्रेन में युद्ध को समाप्त कर देंगे। जबकि यह जानी हुई बात है कि ट्रंप यहूदी नस्लवादी सरकार के कट्टर समर्थक रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी को पद भार ग्रहण करने के पहले ही पश्चिम एशिया में शांति स्थापित करने की बात कर रहे हैं। 
    
इसी प्रकार, अमेरिका प्रथम का नारा बुलंद करने वाले ट्रंप अमेरिका में आने वाले अप्रवासियों को देश से बाहर निकालने और मैक्सिको सीमा पर रोक लगाने वाली दीवार खड़ी करने की अपनी पुरानी योजना को लागू करने की बात कर रहे हैं। वैसे रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों ही अमेरिका के एकाधिकारी पूंजीपतियों की पार्टियां रही हैं और आज भी हैं। ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी मजदूरों, अश्वेतों और लैटिनों के विरोध में हमेशा रही है जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी का आधार इन वर्गों और तबकों में रहा है। लेकिन काफी लंबे समय से और विशेष तौर पर बाइडेन के राष्ट्रपतित्व काल में अमेरिका अरबों डालर यूक्रेन और इजरायल के युद्ध में झोंक रहा था और अपने देश के मजदूरों-मेहनतकशों की जेब से निकाल कर यह मदद की जा रही थी। इसके चलते मजदूरों-मेहनतकशों की वास्तविक मजदूरी पहले की तुलना में घटती जा रही थी। मुद्रास्फीति ने उनका जीवन मुहाल कर रखा था। लोग आवास की कमी के चलते टेंटों में रहने को मजबूर थे। एक तरफ मजदूरों-मेहनतकशों की गिरती हुई जीवन स्थितियां और दूसरी तरफ, कुछ सौ अरब-खरबपतियों की बेशुमार बढ़ती दौलत ने डेमोक्रेटिक पार्टी के जन आधार को पहले से ज्यादा सीमित कर दिया। बीते चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के मजदूरों-मेहनतकशों के आधार का एक हिस्सा खिसक कर या तो रिपब्लिकन पार्टी की ओर चला गया या यह लोग मत देने के लिए निकले ही नहीं। 
    
चुनाव प्रचार के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी ने यहूदी नस्लवादी इजरायली सरकार द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में किए गए नरसंहार का समर्थन किया और इस नरसंहार के विरोध में और फिलिस्तीन की आजादी के समर्थन में खड़े होने वाले लोगों का दमन किया। उन्हें जेल में डाला और नौकरी से निकाल दिया। डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतृत्व ने इजरायल के आत्मरक्षा करने के अधिकार के नाम पर उसकी नरसंहारक कार्रवाइयों को संयुक्त राष्ट्र संघ के मंचों में जायज ठहरने की कोशिश की। इसका असर चुनाव के दौरान दिखाई पड़ा। एक तरफ ट्रंप दावा कर रहे थे कि वे युद्ध को रोक देंगे और पश्चिम एशिया में शांति की बहाली कर देंगे। यह सर्वविदित है कि अपने पिछले कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिका का इजराइल में दूतावास तेल अवीव से हटकर येरूशलम में कर दिया था। येरूशलम वह शहर है जिसके एक हिस्से पर फिलिस्तीन अपनी राजधानी होने की बात करता है और उस पर अपना अधिकार मानता है। वेस्ट बैंक में यहूदी नस्लवादी इजराइल सरकार दुनिया भर से यहूदियों को लाकर बसाती रही है जिससे कि उस पर भी कब्जा कर सके और उसे इजराइल में विलय करा ले। ट्रंप इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों को उनके घर से उजाड़ने और उनके घरों और खेतों पर कब्जा करके यहूदी बस्तियां बसाने के कार्य का समर्थन करता रहा है। इसी प्रकार इजराइल का अरब देशों के साथ संबंध सामान्य बनाने के लिए ट्रंप अपने राष्ट्रपतित्व काल में अब्राहम समझौता कर चुका था। अपने पिछले कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के साथ पांच देशों के शांतिपूर्ण कामों के लिए परमाणु ऊर्जा पैदा करने के समझौते से एक तरफा तौर पर अपने को अलग कर लिया था और ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे। इससे ईरान अपने तेल और गैस को निर्यात करने में बाधित हुआ था। वह अरब देशों के शासकों पर दबाव डालकर और लालच देकर ईरान को अलग-थलग कर रहा था। खुद ईरान के भीतर तख्ता पलट कराने की कोशिश करता रहा था। ईरान की सेना के कमांडर सुलेमानी की हत्या इराक की राजधानी बगदाद में ट्रंप ने ही कराई थी। 
    
आज जब इजरायली नस्लवादी यहूदी हुकूमत के विरुद्ध लेबनान के हिजबुल्ला, यमन के होथी, गाजा में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन तथा पश्चिमी किनारे में लड़ने वाले कई प्रतिरोध समूह के साथ-साथ इराक और सीरिया में मौजूद प्रतिरोध संगठनों के एकबद्ध हमले हो रहे हैं और ईरान का अलगाव ना होकर खुद इजरायली हुकूमत का इस इलाके में अलगाव बढ़ता जा रहा है, तब ट्रंप कैसे समझौता करा पाएंगे, यह कठिन काम है। यह समझौता तब तक नहीं होगा जब तक इजरायल फिलिस्तीनी राज्य के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर लेता और गाजा पट्टी से अपनी सेनाएं वापस नहीं ले जाता तथा वहां कत्लेआम बंद नहीं कर देता। दूसरा वह जब तक लेबनान पर अपनी बमबारी और जमीनी हमले नहीं रोक देता, तब तक भी कोई समझौता नहीं होगा। 
    
इधर अरब लीग और इस्लामी देशों के संगठन ने रियाद, सऊदी अरब में एक शीर्ष बैठक करके यह प्रस्ताव पारित किया है कि इजराइल गाजापट्टी में नरसंहार और तबाही बंद करे, वहां से अपनी सेना हटाए और पूर्वी येरुशलम राजधानी सहित स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य को स्वीकार करे और संयुक्त राष्ट्र संघ के दो राज्यों के अस्तित्व के प्रस्ताव को स्वीकार करे। इसी प्रकार, इस शीर्ष बैठक में अमेरिका से यह मांग की गई है कि वह इजराइल को हथियारों की आपूर्ति करना बंद करें। जब तक यह नहीं होगा और इसके साथ ही गाजा पट्टी में भूख और बीमारी से मर रहे फिलिस्तीनियों के लिए राहत-कार्य नहीं होते और गाजा पट्टी के पुनर्निर्माण का कार्य नहीं होता तब तक इस इलाके में शांति नहीं होगी। 
    
यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि यहूदी नस्लवादी नेतन्याहू की सरकार खुद अपने देश के भीतर विरोध का सामना कर रही है। उसके यहां लड़ने के लिए अब सैनिक भर्ती होने में आनाकानी कर रहे हैं। हमास द्वारा बनाए गए इजराइली बंधक अभी तक छुड़ाये नहीं जा सके हैं। उसकी अर्थव्यवस्था भी चौपट हो रही है। इजरायली लोग सड़कों पर उतरकर नेतन्याहू का विरोध कर रहे हैं। इजरायली सत्ता के भीतर मतभेद बढ़ रहे हैं। प्रतिरोध संगठनों के हमलों से नेतन्याहू बंकरों में रहने के लिए बाध्य हो गया है। अभी हाल ही में नेतन्याहू के बेटे ने इजरायली घरेलू खुफिया संगठन शिनबेट पर यह आरोप लगाया है कि वह (शिनबेट) नेतन्याहू की हत्या कराने की साजिश कर रहा है। नेतन्याहू घरेलू और दुनिया के पैमाने पर अलगाव का शिकार हो गया है। वह जानता है कि जब तक यह युद्ध चलता रहेगा तभी तक उसकी सत्ता है। इस युद्ध के पहले उसके विरुद्ध इजराइल में बड़े-बड़े प्रदर्शन हो चुके हैं। उसके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। ऐसी हालत में उसके द्वारा युद्ध का विस्तार उसके अस्तित्व की शर्त बन गया है। 
    
इसके साथ ही उसने हमास और हिजबुल्ला के नेताओं की हत्या कराने के साथ ही ईरान के ऊपर भी हमले किए हैं। इस पर ईरान ने जवाबी कार्यवाही की है। आगे भी ईरान कोई ना कोई कार्यवाही करेगा। ईरान की हुकूमत भी जानती है कि उसके असली शत्रु अमेरिकी साम्राज्यवादी हैं। अमेरिका के फौजी अड्डे इस समूचे इलाके में हैं। 
    
पिछले वर्ष पश्चिम एशिया की दो बड़ी ताकतों- सऊदी अरब और ईरान- के बीच चीन की मध्यस्थता में एक समझौता हो जाने से इनका आपसी विरोध कम हुआ है और संबंध सामान्य होने की ओर गए हैं।
    
ट्रंप के समक्ष युद्ध बंद कराने के वायदे के पूरा करने की ये चुनौतियां हैं। यदि वह इजराइली हुकूमत के वृहत्तर इजरायल के सपनों को पूरा करने की कोशिश करते हैं तो यह युद्ध नहीं रोका जा सकता। यदि वे नेतन्याहू पर दबाव डालकर कोई बीच का रास्ता निकालते हैं तो तात्कालिक युद्ध विराम तो हो सकता है लेकिन युद्ध की जमीन मौजूद रहेगी, और किसी न किसी रूप में संघर्ष जारी रहेगा। 
    
चूंकि ट्रंप इजरायली नस्लवादी यहूदी सत्ता के घोर समर्थक हैं और ईरान के घोर विरोधी हैं, इसलिए यदि वे युद्ध विराम कराना चाहते हैं तो दीर्घकालीन साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने की दृष्टि से उन्हें पीछे हटना पड़ेगा और अपनी पुरानी अवस्थिति में संशोधन करना पड़ेगा।  
    
2024 के अंत में, वह परिस्थिति नहीं है जो ट्रंप के पहले राष्ट्रपतित्व के काल में थी। उस समय पश्चिम एशिया में सापेक्ष तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादी ज्यादा मजबूत थे। हालांकि उनके प्रभाव में कमी आ चुकी थी। अब न तो इस इलाके में ईरान की हुकूमत अलगाव में है और इससे भी बड़ी बात यह है कि अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां रूस और चीन इस इलाके में और ज्यादा सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। ईरान के साथ रूस का सामरिक सहयोग इस दौरान बढ़ा है। सीरिया में वह पहले से ही प्रभावशाली स्थिति में रहा है। चीन का व्यापार और राजनीतिक व कूटनीतिक सहयोग इस क्षेत्र के देशों के साथ और ज्यादा मजबूत हुआ है। यदि इजराइल अमेरिकी साम्राज्यवादियों के सहयोग से ईरान पर हमला करने की कोशिश करता है तो ईरान के साथ रूस और चीन की ताकत का भी इसको सामना करना पड़ेगा। यह स्थिति एक व्यापक युद्ध की ओर ले जा सकती है। ट्रंप को पश्चिम एशिया में इन सब स्थितियों को देखकर आंकलन करके ही कोई कदम उठाना पड़ेगा। 
    
ट्रंप के सामने दूसरी बड़ी चुनौती रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने से संबंधित है। उन्होंने इस युद्ध को भी बंद करने का प्रचार अपने चुनाव अभियान में किया है। बाइडेन की नीति यूक्रेन को हथियार-गोला बारूद और आर्थिक मदद देकर तब तक उसे लड़ने के लिए उकसाते रहने की रही है जब तक लड़ाई के मैदान में रूस को पराजित नहीं कर दिया जाता। यूक्रेन के सैनिकों को बलि का बकरा बनाने की नीति अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उसके नाटो सहयोगियों की रही है। इसकी शुरुआत 2022 में नहीं जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था बल्कि 2014 के तख्तापलट के साथ हो चुकी थी, जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों की साजिश और मदद से तत्कालीन रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति को अपदस्थ किया गया था। अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसके नाटो सहयोगियों ने सोचा था कि इस युद्ध में रूस को कमजोर करके पुतिन के विरोध में रूसी जनता को खड़ा कर देंगे। या तो पुतिन का तख्तापलट हो जाएगा या रूस कई टुकड़ों में बंट जाएगा। लेकिन रूसी शासक साम्राज्यवादियों की चालों को समझ गए और उन्होंने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने रूस पर बड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। उसको स्विफ्ट प्रणाली से बाहर कर दिया गया। विभिन्न बैंकों में जमा उसकी रकम को रोक दिया गया। दुनिया के देशों पर भी दबाव डालकर रूस के साथ व्यापारिक रिश्ते खत्म करने की जी तोड़ कोशिश की गई लेकिन सभी योजनाएं असफल सिद्ध हुईं। रूस ने यूक्रेन के पूर्वी रूसी भाषी इलाके को रूस में मिला लिया। रूस से पश्चिमी यूरोप को गैस आपूर्ति बंद हो जाने से वहां की आर्थिक गतिविधियों में बाधायें आईं। पश्चिमी यूरोप के देशों में यूक्रेन युद्ध में शामिल होने का विरोध होने लगा। यह तेज से तेजतर होता गया। खुद नाटो देशों में मतभेद पैदा होने लगे। तुर्की ने प्रतिबंधों को नहीं माना। हंगरी रूस से गैस लेता रहा। आज स्थिति यह हो गई है कि कई नाटो देश किसी भी तरह इस युद्ध का खात्मा चाहते हैं। लेकिन यूरोपीय संघ के नेतृत्व के साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवादी और ब्रिटेन इस युद्ध को जारी रखे हुए हैं। जेलेन्स्की इनके हाथ की कठपुतली बना हुआ है। रूस दोनेत्स्क और लोहान्स्क के बाकी बचे इलाकों पर कब्जा करता जा रहा है। 
    
ऐसी स्थिति में, डोनाल्ड ट्रंप यूक्रेन में युद्ध तभी रोक सकता है जब वह रूस की अधिकांश शर्तों को स्वीकार कर ले। यदि वह ऐसा करता है तो यह भी अमेरिकी साम्राज्यवादियों के पीछे हटने का कदम होगा। यदि ऐसा नहीं होता तो यह युद्ध जारी रह सकता है। 
    
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे। उस समय भी यूरोपीय देशों में परेशानी के स्वर सुनाई पड़े थे। इस बार भी ट्रंप अपनी पुरानी मांग पर कायम रहते हैं कि नहीं, इस पर नाटो की एकता मजबूत होगी या कमजोर होगी, यह निर्भर करेगा।         

इधर ब्रिक्स का विस्तार और उसके लिए अपनी मुद्राओं में व्यापार तथा अंततः ब्रिक्स की एक साझी मुद्रा के निर्माण से डालर के विश्वव्यापी प्रभुत्व को चुनौती मिलने की संभावना बढ़ती जा रही है। शंघाई सहकार संगठन जैसे क्षेत्रीय संगठन बनाकर अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने के कामों का नेतृत्व रूसी और चीनी साम्राज्यवादी कर रहे हैं।
    
अभी नए चुने गए जापानी प्रधानमंत्री ने ‘एशियाई नाटो’ की अवधारणा पेश की है। यह एक तरफ चीन को घेरने की अमेरिकी साम्राज्यवादियों की नीति को मजबूती प्रदान करेगा वहीं दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने यह कहा है कि अभी तक अमेरिका के साथ जापान के सुरक्षा संबंधी संबंध गैरबराबरी के रहे हैं। अब यह खत्म होने चाहिए। बराबर की हिस्सेदारी में अमेरिका को अपने परमाणु हथियार या तो यहां के हिस्सेदार देशों को देने चाहिए या उन्हें विकसित करने की सुविधा देनी चाहिए। इसी प्रकार, गुआम जैसे सैनिक अड्डों में अमेरिका के साथ-साथ जापान के सैनिकों की भी भागीदारी होनी चाहिए।         

इस प्रकार, ट्रंप के मौजूदा राष्ट्रपतित्व काल में नई चुनौतियां पेश हुई हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद को यदि अपने गिरते प्रभाव को बचाना है तो इनसे निपटने के रास्ते निकालने होंगे।
    
लेकिन यह गिरावट जारी रहने वाली है।

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