बिच्छू घास जो सीधी भी लगती है और उल्टी भी

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पहाड़ों में एक घास होती है जो दोनों ओर लगती है। सीधी भी उल्टी भी। इस घास को छूने या पकड़़ने से बिजली का करेण्ट सा लगता है। खुजली होती है और खुजली आसानी से मिटती नहीं है। बच्चों को सुधारने से लेकर बड़े-बूढ़े अपने दर्द में भी इसका इस्तेमाल करते हैं। नयी नन्हीं-नन्हीं कोपलों की सब्जी भी बनती है। पत्ते तोड़ते वक्त चिमटी चाहिए नहीं तो करेण्ट लगने का खतरा रहता है। 
    
भाजपा के लिए अरविन्द केजरीवाल कुछ-कुछ बिच्छू घास जैसे हो गये हैं। जेल में रखें तो मुसीबत बाहर निकालें तो उससे बड़ी मुसीबत। जब केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दे रहे थे तो ये इस्तीफा-इस्तीफा चिल्ला रहे थे। नैतिकता के ठेकेदार नैतिकता की दुहाई दे रहे थे। अब केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया तो इन्हें और ज्यादा दिक्कत हो गई। 
    
केजरीवाल से दो कदम आगे आतिशी सिंह मार्लेना निकलीं। उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला तो साथ ही एक कुर्सी खाली रख दी। वह कुर्सी में डमी मुख्यमंत्री बनकर बैठी तो उन्होंने एक डमी कुर्सी असली मुख्यमंत्री के लिए रख दी। भाजपा वाले केजरीवाल नामक बिच्छू घास से ही परेशान थे अब आतिशी ने भी हिन्दी फिल्मी गाना ‘छोटा बच्चा जानकर ना कोई आंख दिखाना रे..’ गाना शुरू कर दिया।
    
केजरीवाल जब पिछली बार जेल से बाहर आये थे तो उन्होंने योगी को चंद दिन का मेहमान कहकर भाजपा के भीतर के झगड़े की आग में घी डाल दिया था। झगड़ा सुलटा तो नहीं पर यूपी की विधानसभा की दस सीटों के चक्कर में युद्ध विराम है। इस बार केजरीवाल ने भाजपा और आरएसएस के बीच सुलग रही आग में पांच सवाल पूछकर घी डाल दिया। भागवत ही क्या तो बोले और क्या तो चुप रहे। बेचारे भाजपा वाले केजरीवाल के सवाल पर ऐसे चुप हो गये हैं मानो सांप सूंघ गया हो। 
    
कांग्रेस पार्टी वाले बहुत सयाने हैं। कई बार बिच्छू घास छू चुके हैं इसलिए चुपचाप केजरीवाल का खेल देख रहे हैं। और केजरीवाल जान रहे हैं कि दिल्ली का चुनाव चंद महीने बाद है। दिल्ली हाथ से गई तो फिर कहां वे अपना करतब दिखायेंगे। और कौन उनका करतब देखने में रुचि दिखायेगा। दिल्ली है तो करतब है। 

आलेख

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।