एक देश एक चुनाव : फासीवादी परियोजना

/ek-des-ek-chunaav-phaaseevaadai-pariyojanaa-1

मोदी सरकार तेजी से एक देश एक चुनाव की ओर कदम बढ़ा रही है। हाल ही में उसने रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिश को स्वीकार लिया। अब उम्मीद लगाई जा रही है कि अगले संसद सत्र में सरकार इस हेतु विधेयक पेश कर देगी।
    
समिति की सिफारिशों में कहा गया है कि समूचे देश में 100 दिन के भीतर दो चरणों में सारे चुनाव निपटा दिए जाने चाहिए। पहले चरण में लोकसभा-विधानसभाओं के चुनाव और दूसरे चरण में नगर निगम-ग्राम पंचायतों के चुनाव। साथ ही समिति का सुझाव है कि अगर लोकसभा-विधानसभा समय से पहले भंग होती हैं तो उसमें 5 वर्ष के बजाय पिछली लोकसभा-विधानसभा की शेष अवधि के लिए चुनाव कराए जाएं ताकि आगे सभी चुनाव एक साथ हो सकें। साथ ही एक ही मतदाता सूची से यह चुनाव होंगे। 
    
उक्त प्रस्ताव को लागू करने के लिए सरकार को संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन के साथ 15 विधानसभाओं से इसके अनुमोदन की जरूरत होगी। संविधान संशोधन के लिए जरूरी तीन चौथाई समर्थन का आंकड़ा मोदी सरकार के पास लोकसभा-राज्यसभा में नहीं है अतः बगैर कुछ बड़े विपक्षी दलों के समर्थन के सरकार इस प्रस्ताव को पास नहीं करा सकती। 
    
सरकार इस प्रस्ताव के समर्थन में विकास योजनाओं के बाधित न होने व कम खर्च व सरकारी मशीनरी की मेहनत कम होने का तर्क देती है। हालांकि मोदी सरकार की असल मंशा कुछ और ही है। 
    
मोदी सरकार केंद्र व राज्यों के चुनाव एक साथ कराकर दरअसल केंद्रीय-राष्ट्रीय मुद्दों को ही प्रचारित कर सारे चुनाव जीतने की मंशा रखती है। जाहिर है एक साथ चुनाव होने पर स्वभाविक तौर पर क्षेत्रीय मुद्दे-क्षेत्रीय पार्टियां पृष्ठभूमि में धकेली जाएंगी व राष्ट्रीय पार्टियां-राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुखता हासिल करेंगे। यह अपने आप में नाम मात्र के बचे भारत के संघात्मक चरित्र को और कमजोर करेगा। साथ ही इस कदम से भविष्य में मतदाताओं से 5 वर्ष के लिए प्रत्याशी चुनने का अधिकार छिन जाएगा। इसके साथ ही अगर कोई विधानसभा अपने तय कार्यकाल से कुछ महीने पहले भंग होती है तो एक साथ चुनाव के तर्क पर वहां राष्ट्रपति शासन (अर्थात केंद्र का शासन) लागू करने की घटनाएं बढ़ जाएंगी। 
    
मोदी सरकार की मंशा यही है कि पूरे देश को एक बार ही अंधराष्ट्रवाद-सांप्रदायिक उन्माद-युद्धोन्माद में धकेल कर वह केंद्र के साथ ज्यादातर विधानसभाओं के चुनाव भी जीत ले। और क्षेत्रीय-विपक्षी पार्टियों को या तो और कमजोर कर दे या केंद्र के आगे समर्पण को मजबूर कर दे। फिर भी किसी तरह जीती विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को राष्ट्रपति शासन की धमकी के जरिए काबू में कर ले या भंग कर अपना ही शासन कायम कर ले। 
    
संघ-भाजपा की हिंदू राष्ट्र कायम करने की परियोजना का यह महत्वपूर्ण हिस्सा है कि वह समूचे विपक्ष को या तो खत्म या आत्मसमर्पण कराना चाहते हैं। वे क्षेत्रीय दलों को जो उसके बीते 10 वर्षों के शासन के बावजूद अपनी ताकत बनाये रखने में सफल रहे हैं, को अपने आगे घुटने टेकने को मजबूर करना चाहते हैं। एक देश एक चुनाव की परियोजना उनके इस लक्ष्य को साधने में मददगार बनेगी ऐसी मोदी सरकार की सोच है। 
    
जहां तक विकास में बाधा, खर्च कम होने व मशीनरी पर बोझ की बातें हैं तो इन तर्कों में कोई दम नहीं है। आज देश में जो तथाकथित विकास हो रहा है वह सारा का सारा पूंजीपतियों का व उन्हीं के हित में विकास है, जनता के खिलाफ विकास है। जनता के हिस्से तो चुनाव के वक्त की जाने वाली कुछ खैरात की घोषणाएं ही आती रही हैं। वो भी चुनाव के पश्चात ज्यादातर भुला दी जाती रही हैं। अब 5 वर्षों में एक बार चुनाव से सरकारें-पार्टियां एक बार लोक लुभावन घोषणाएं कर अगले 5 वर्षों के लिए उन्हें भुलाकर निश्चित हो पूंजीपतियों की सेवा कर सकती हैं। अब उन्हें किन्हीं राज्यों के चुनाव में घोषणा भुलाने पर जनता द्वारा दंड दिए जाने का भय भी नहीं रहेगा। जनता को अब नाम मात्र की राहतों की घोषणाएं भी सुनने को नहीं मिलेंगी। इसीलिए एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग भी सरकार के इस कदम के साथ खड़ा है। और क्षेत्रीय पूंजी व उनकी पार्टियों में इस कदम से बेचैनी बढ़ी है। 
    
सरकारी खर्च व मशीनरी पर बोझ की बात का इसलिए कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि यह खर्च अगर चुनाव में कम भी हो जाएगा तो भी वह जनहित-कल्याण पर खर्च होने के बजाय पूंजीपतियों की सेवा में ही लगेगा और मशीनरी भी उन्हीं की सेवा में जनता पर जुल्म ढायेगी। वैसे खुद समिति के अनुसार शुरुआत में ईवीएम-वी वी पेट से लेकर सरकारी मशीनरी-सेना-पुलिस पर एक साथ चुनाव कराने पर काफी ज्यादा खर्च व बोझ बढ़ेगा। 
    
स्पष्ट है मोदी सरकार की यह परियोजना आम मजदूर मेहनतकशों-विभिन्न राष्ट्रीयताओं के हितों के खिलाफ बड़ी पूंजी के हित साधने वाली फासीवादी परियोजना है। इसीलिए इसका विरोध जरूरी है।

आलेख

/bhaarat-men-punjipati-aur-varn-vyavasthaa

अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

/samooche-pashcim-asia-men-yudha-phailaane-kaa-prayaas

इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।