वेतन वृद्धि का पाखण्ड

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बीते दिनों देश के सभी प्रमुख अखबारों में खबर छपी कि केन्द्र सरकार ने न्यूनतम मजदूरी में बड़े पैमाने पर वृद्धि कर दी है। कुछ अखबारों ने तो मजदूरों की दिवाली खुशनुमा होने के दावे कर दिये। अखबारों ने दावा किया कि अब मजदूरों को अलग-अलग श्रेणियों में 20,358 रुपये से लेकर 26,910 रुपये मासिक मजदूरी मिलेगी।
    
जिस बात को अखबार चालाकी से छुपा ले गये वह यह थी कि यह मजदूरी देश के समस्त मजदूरों के लिए नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के उद्यमों में काम करने वाले मजदूरों के लिए है। यानी यह महज कुछ मजदूरों पर लागू होगी। दूसरी बात जो अखबार छिपा गये वह यह कि सरकार ने दरअसल मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं की बल्कि उसने हर वर्ष अप्रैल व अक्टूबर में बढ़ने वाले महंगाई भत्ते को बढ़ाने का काम किया है। 
    
यह वृद्धि कितनी है? कृषि के अकुशल व कुशल मजदूरों के मामले में यह महज 3 रु. व 4 रु. रोजाना है। केन्द्रीय उद्यमों के कुशल, अर्धकुशल व अतिकुशल मजदूरों के मामले में यह क्रमशः 5 रु., 6 रु. व 7 रु. रोजाना वृद्धि है। इस नाम मात्र की वृद्धि को अखबारों ने सनसनीखेज बना कर पेश कर दिया। इस वृद्धि के बाद केन्द्रीय उद्यमों में मजदूर अब 20,358 रु. से लेकर 26,910 रु. तक मासिक मजदूरी पायेंगे।
    
इसी तरह दिल्ली की नई नवेली आतिशी सरकार ने भी महंगाई भत्ता बढ़ा मजदूरी बढ़ाने का ढिंढोरा पीटा था। 
    
यहां यह ध्यान देने योग्य है कि केन्द्रीय उद्यमों में सरकार ने 2017 में न्यूनतम मजदूरी संशोधित की थी। कानूनन 5 वर्षों में न्यूनतम मजदूरी में संशोधन अनिवार्य है पर 7 वर्ष बीतने पर भी केन्द्र सरकार नये संशोधन को तैयार नहीं है। 
    
जहां तक देश के बाकी मजदूरों का सवाल है तो नयी श्रम संहिता के तहत सरकार अब नेशनल फ्लोर लेवल मजदूरी घोषित करती है। यानी इससे कम मजदूरी नहीं दी जा सकती। वर्तमान में यह 178 रु. प्रतिदिन घोषित है। इतनी कम मजदूरी पर जब मजदूर यूनियनों ने आपत्ति की तो सरकार ने अर्जुन सतपति के नेतृत्व में एक समिति बनायी जिसने इसे 375 रु. प्रतिदिन करने की सिफारिश की। पर सरकार इस सिफारिश को भी मानने को तैयार नहीं है। 
    
इस तरह सरकार मजदूरी बढ़ाने का झूठा प्रचार कर रही है और पूंजीवादी मीडिया इस काम में सरकार की मदद कर रहा है। 

 

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आलेख

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।