काप-29 : जलवायु परिवर्तन रोकने का ढकोसला

/cop-29-jalavaayu-parivartan-rokane-kaa-dhakosalaa

11-12 नवम्बर तक चलने वाला काप-29 सम्मेलन अजरबैजान के बाकू में शुरू हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में हर वर्ष होने वाले इस सम्मेलन के ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाने व कई राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन में हिस्सा न लेने की घोषणा के चलते किसी खास नतीजे तक पहुंचने की संभावना नहीं है। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उद्देश्य से 1995 से शुरू हुए सम्मेलनों की श्रृंखला का यह 29वां सम्मेलन है। अतः इसे काप-29 कहा जा रहा है।
    
इससे कुछ समय पूर्व कोलंबिया में कॉप-16 सम्मेलन में जैव विविधता संरक्षण के उपायों पर दुनिया भर के देशों ने चर्चा की थी। इस सम्मेलन में एक वैश्विक जैव विविधता कोष निर्माण को लेकर साम्राज्यवादी व गरीब मुल्कों में टकराहट नजर आयी। सम्मेलन ने प्रजातियों के संरक्षण व पारिस्थितिक तंत्र संरक्षण के लिए 2030 तक वैश्विक रूप रेखा बनाने का लक्ष्य लिया। 
    
कॉप-29 का मुख्य एजेण्डा जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करना है। मानवीय गतिविधियों के चलते जहां एक ओर वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है वहीं जलवायु परिवर्तन के अन्य खतरों मौसम चक्र में बदलाव, बाढ़, तूफान आदि आपदाओं से दुनिया पहले से ज्यादा जूझ रही है। 2015 में पेरिस समझौते में 195 देशों ने तय किया था कि इस सदी में वे औसत वैश्विक तापमान को पूर्व औद्योगीकरण के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देंगे व कोशिश करेंगे कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़े। चूंकि अनुमान लगाया गया है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने पर जलवायु परिवर्तन के गम्भीर प्रभाव- सूखा, हीट वेव व तीव्र वर्षा-तूफान आदि बढ़ सकते हैं। 
    
इस तापमान वृद्धि को रोकने के उपायों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन को घटाने व जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में कटौती शामिल है। इस सम्बन्ध में भी कई समझौते हुए हैं। साथ ही एक कोष बना अधिक औद्योगीकृत साम्राज्यवादी देशों की अधिक जिम्मेदारी व गरीब देशों की मदद की बातें भी इन सम्मेलनों में हुई हैं। 
    
पर इन तमाम समझौतों-वायदों के उलट हकीकत यही है कि न तो साम्राज्यवादी देशों के पूंजीपति और न ही गरीब देशों के शासक पूंजीपति इन पर चलने को तैयार हैं। ज्यादातर यही बात सामने आती रही है कि ये सम्मेलन जनता की आंखों में धूल झोंकने के मंच अधिक बन गये हैं। ये शासकों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर चिंता करने के ढोंग के प्रदर्शन का मंच बने हुए हैं। 
    
इस वर्ष का सम्मेलन एक ऐसे देश अजरबैजान में हो रहा है जो खुद 90 प्रतिशत जीवाश्म ईंधनों का निर्यात करता है। 
    
बीते लगभग 200 वर्षों में अराजक पूंजीवादी विकास ने कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस का अभूतपूर्व दर से उपभोग किया है। साम्राज्यवादी मुल्क इस उपभोग के मुख्य दोषी रहे हैं। इससे वैश्विक तापमान पहले ही 200 वर्ष पूर्व से 1.3 डिग्री बढ़ चुका है। और यह वृद्धि लगातार पहले से तेज होती जा रही है। यानी इन सम्मेलनों से कार्बन उत्सर्जन में कोई कमी नहीं आयी है। 
    
पृथ्वी के वातावरण के बढ़ते तापमान के साथ ही तूफान, सूखा, जंगलों में आग, ध्रुवीय भंवर सरीखी आपदायें और तीव्र गर्मी-सर्दी की घटनायें बढ़ रही हैं। इस सबसे हर वर्ष विस्थापन, बीमारी, मौतों के रूप में करोड़ों लोग प्रभावित हो रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक 1.2 अरब लोग जलवायु परिवर्तन के चलते जबरन विस्थापित हो सकते हैं। 
    
पर मुनाफे की हवस में परस्पर संघर्षरत कारपोरेशनों को इस सब की चिंता नहीं है। वे जलवायु संरक्षण के उपायों को अपनाने और अपना मुनाफा घटाने को तैयार नहीं हैं। साम्राज्यवादी सरकारें भी इस दिशा में कोई प्रयास करने को तैयार नहीं हैं। वे केवल गरीब मुल्कों पर दबाव कायम कर उन्हें कार्बन उत्सर्जन घटाने की ओर ठेलती रही हैं। पर खुद कार्बन उत्सर्जन कम करने को तैयार नहीं हैं। 
    
पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में जहां पूंजीपति वर्ग एक-दूसरे से तीखी प्रतियोगिता में लिप्त होता है वहां पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन रोकने आदि के मसले पर किसी कारगर उपाय की ओर बढ़ना असम्भव है। पूंजी के हित या तो ऐसे किसी हल की ओर पहुंचने नहीं देते और अगर कोई हल ढूंढ भी लिया जाता है तो पूंजीपति वर्ग सरकारों को उन पर चलने नहीं देता। 
    
ऐसे में अधिक से अधिक पूंजीवादी दुनिया में यही हो सकता है कि इन समस्याओं पर चिंतन का ढकोसला किया जाए और संयुक्त राष्ट्र के ये सम्मेलन इसी का मंच हैं। अमेरिकी चुनाव में ट्रंप की जीत ने इस सम्मेलन को और अप्रभावकारी बना दिया है क्योंकि ट्रंप बाकी शासकों की तरह जलवायु परिवर्तन रोकने का दिखावा करने के बजाय अमेरिकी पूंजी के हितों में अधिक कार्बन उत्सर्जन की खुलेआम वकालत करता रहा है। पिछले शासन काल में उसने अमेरिका को पेरिस समझौते से अलग कर लिया था। इसी के साथ चीन, अमेरिका, फ्रांस, भारत आदि के मुखियाओं के भी इस सम्मेलन में भाग न लेने से कोई प्रगति होने की उम्मीद नहीं है। 
    
यह सम्मेलन ऐसे वक्त में हो रहा है जब दुनिया दो युद्धों में भारी कार्बन उत्सर्जन झेल रही है। इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी नरसंहार को तो अमेरिकी समर्थन मध्य पूर्व में तेल-गैस पर नियंत्रण को ही लेकर प्रेरित है। ऐसे में कोई भी समझ सकता है कि ढकोसलेबाज शासकों की कॉप-29 में सदिच्छा भरी बातों और असली करतूतों में भारी अंतर है। 
    
मजदूर-मेहनतकश जलवायु परिवर्तन के खतरों के सबसे बड़े शिकार होते रहे हैं। वे ही बाढ़-आपदा में मारे जाते हैं, विस्थापित होते हैं। मजदूर-मेहनतकश ही सत्ता की बागडोर पूंजीपतियों की जगह अपने हाथ में ले कारगर उपाय की ओर बढ़ सकते हैं।  

 

यह भी पढ़ें :-

1. कॉप-28 : जलवायु परिवर्तन रोकने का पाखण्ड

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।