हमारा मन तो मुर्गा लड़ान देखने का है

जब हमारे देश में मनोरंजन के साधन कम थे तो एक मनोरंजन का बढ़िया साधन मुर्गों की लड़ाई होती थी। जगह-जगह मुर्गों की लड़ाई देखने के लिए मजमा लग जाता था। कई बार मुर्गों के पंजों में ब्लेड बांध दिये जाते थे और इससे मुर्गे एक-दूसरे को लहूलुहान कर देते थे। जीता मुर्गा तो बेचारा कितना खुश होता होगा। यह तो मुर्गा ही बता सकता है पर वह आदमी बहुत खुश होता जिसका मुर्गा होता था। वह पार्टी भी बहुत खुश होती जो जीते मुर्गे की ओर होती थी। 
    
कौन मुर्गा कितना ताकतवर है और कितनी ऊंची बाग लगाता है इसका मुकाबला तो दूर-दूर से नहीं हो सकता है। पता तो तभी लग सकता है जब वे आमने-सामने अखाड़े में उतरे। 
    
ज्यादा जलेबी न घुमायी जाये तो हुआ यूं कि भारत के एक मशहूर अखबार ‘द हिन्दू’ के पूर्व सम्पादक एन.राम. और दो पूर्व न्यायधीशों मदर लोकुर और ए पी शाह ने मोदी और राहुल को चिट्ठी लिखी कि वे एक गैर-वाणिज्यिक एवं गैर-दलीय मंच पर बहस में भाग लें ताकि एक स्वस्थ एवं जीवंत लोकतंत्र की असली तस्वीर पेश हो सके। 
    
पता नहीं इन महानुभावों को स्वस्थ एवं जीवंत लोकतंत्र की कौन सी असली तस्वीर देखनी है जो इन्हें कश्मीर, नगालैण्ड (जहां चार लाख लोगों ने वोट ही नहीं डाला), मणिपुर आदि में नहीं दिखाई दी है। 
    
वैसे इन महानुभावों के ‘‘मुर्गे’’ बहुत होशियार हैं। वे दूर-दूर से ऊंची आवाज लगायेंगे, अपनी पैनी चोंच दिखायेंगे। एक मुर्गा तो शायद तब भी तैयार हो जाये दूसरा मुर्गा कभी तैयार न होगा। जिस व्यक्ति ने दस साल में एक खुली प्रेस कांफ्रेस न की हो वह भला अपनी फजीहत क्यों अखाड़े में उतरकर करवायेगा। 
    
इन महानुभावों के साथ हमें भी मुर्गा लड़ान देखने का बड़ा मन था पर मुर्गे तैयार हों तब तो मुर्गा लड़ान देखने को मिलेगा। 
    
वैसे मायूस मत होइये वह एक दिन अवश्य आयेगा जब हम अमेरिका के स्वस्थ व जीवित लोकतंत्र की तरह भारत में भी सत्ता के दावेदारों को खुले मंच में देश-विदेश के मुद्दों पर मुर्गा लड़ान माफ कीजिये बहस करते देखेंगे।     

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।