15 अगस्त : आजादी के मायने तलाशने की जरूरत

15 अगस्त को देश एक बार फिर अपना स्वतंत्रता दिवस मनायेगा और फिर इस दिन गाहे-बगाहे यह सवाल उठ खड़ा होगा कि मजदूरों-मेहनतकशों के लिए आजादी का आज क्या मतलब है।
    
क्या आजादी का महज यही मतलब है कि तिरंगे को अपने वाहनों पर सजा दिया जाये और देशी-विदेशी पूंजी द्वारा आजादी के दिन दिये जाने वाले कथित सस्ते ऑफर के चक्कर में मॉल दर मॉल फिरा जाए। आज मोदी के भाषण में प्रचण्ड देशभक्तों के अलावा शायद ही किसी की रुचि है। अब वैसे भी मोदी की कला चुक गयी है। उनके पिटे-पिटाये उबाऊ भाषण खुद उनकी पार्टी के सांसदों के लिए नींद का साधन बन गये हैं। लोगों का मनोरंजन तब ज्यादा होता है जब मोदी के भाषण पर मीम बनते हैं या फिर मसखरे मोदी की नकल उतारते हैं। असल में जो मोदी का सौभाग्य है वही भारत में मजदूरों-मेहनतकशों का दुर्भाग्य है। 
    
हमारे समाज में आजादी का मायना आजाद होने के पहले दिन से शासकों के लिए अलग रहा है और भारत के करोड़ों मजदूरों, किसानों और अन्य शोषित-उत्पीड़ित तबकों के लिए अलग रहा है। भारत के पूंजीपति, भूस्वामी, इनके साथ खड़े साम्राज्यवादी भारत में अधिक और अधिक दौलत कमाना ही नहीं चाहते थे बल्कि ये भी चाहते थे कि भारत की सरकार ऐसा सख्त शासन प्रशासन चलाये कि उनके दौलत कमाने और उसकी हिफाजत की राह में कोई रोड़ा न बने। इनके उलट भारत के सदियों से सताये मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकशों की चाहत थी कि आजाद भारत में उन्हें शोषण-उत्पीड़न-दमन से मुक्ति मिले। देश में गरीबी, निरक्षरता, अभाव, बेरोजगारी, महंगाई, असमानता, भुखमरी, कुपोषण आदि का अंत हो। भारत का हर नागरिक बराबर हो, आजाद हो और आपस में गहरी एकता और भाईचारा हो। परन्तु मजदूरों-मेहनतकशां की इच्छा मृग मरीचिका ही साबित हुई। वर्ष-दर-वर्ष मजदूरों-मेहनतकशां का जीवन गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, असमानता अभाव के घृणित दुष्चक्र में फंसा रह गया। 
    
भारत के शासक दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का जब ख्वाब बेच रहे हैं तब उस वक्त भी भारत में करोड़ों लोग निरक्षर बने हुए हैं। जो शासक पिछले सात-आठ दशक में निरक्षरता की समस्या तक नहीं हल कर सके उनसे भला क्या कोई उम्मीद रखी जानी चाहिए। 
    
असल में हालात तब से और बुरे हो गये हैं जब से भारत की सत्ता में हिन्दू फासीवादी काबिज हुए हैं। इन्होंने भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के खिलाफ तीखा आर्थिक हमला ही नहीं बोला बल्कि गहरा विचारधारात्मक-राजनैतिक हमला बोला हुआ है। कदाचित आर्थिक हमले को छुपाने के लिए विचारधारात्मक-राजनैतिक हमला बोला हुआ है। 
    
भारत के पूंजीपति ही नहीं बल्कि विदेशी पूंजीपति भी मोदी जैसे हिन्दू फासीवादी के राज में खूब फूले-फले हैं। अम्बानी, अडाणी, टाटा, मित्तल जैसों की बढ़ती दौलत का स्वाभाविक परिणाम भारत के मजदूरों, किसानों के दरिद्रीकरण और कंगालीकरण के रूप में सामने आया है। एक ओर सम्पत्ति के अनन्य स्रोत पर बैठे अम्बानी-अडाणी हैं और दूसरी ओर गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई की मार झेलते करोड़ों मजदूर-किसान हैं। एक ओर जीवन में जश्न ही जश्न है (अभी अम्बानी ने अपने बेटे की शादी में 5000 करोड़ रुपये फूंक डाले) और दूसरी ओर कष्ट ही कष्ट, संघर्ष ही संघर्ष हैं। लाखों किसान, खेत मजदूर, नौजवान, गृहणियां पिछले दो-तीन दशकों में आत्महत्या तक कर चुके हैं। परन्तु देश के शासकों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे समाज में, ऐसे हालात में आजादी का जश्न एक के हिस्से आता है तो दूसरे के हिस्से आजादी के नाम पर छल, प्रपंच और उसे मिले जख्म ही आते हैं। 
    
हिन्दू फासीवादियों ने आजादी और गुलामी के स्थापित मायनों को ही बदल डाला है। विकृत कर डाला है। और इसी तरह उन्होंने आजादी की लड़ाई में मजदूरों-मेहनतकशों की भूमिका को निरर्थक या शून्य बना दिया है। 
    
हिन्दू फासीवादियों ने यह झूठ सरेआम फैलाया कि भारत 1200 साल से गुलाम है। इन्होंने यह झूठ इस मकसद से फैलाया ताकि ये मुसलमानों को गुलाम बनाने वालों के रूप में पेश कर सकें और जबरदस्ती हिन्दुओं को पीड़ित दिखा अपने हिन्दू फासीवादी मंसूबों को पूरा कर सकें। अंग्रेजों ने जो अत्याचार भारत की जनता पर किये, जो लूट उन्होंने भारत में मचायी उस पर ये भ्रम का पर्दा डाल सकें। ऐसा करके ये एक तरफ आज के साम्राज्यवादियों के चरित्र पर पर्दा डाल रहे हैं उन्हें भारत का लुटेरा नहीं बल्कि विकास में योगदान देने वाला साबित कर रहे हैं। और दूसरी तरफ इन्हें अपने गद्दार चेहरे पर भी एक नकाब ओढ़ना था। यह जगजाहिर बात है कि हिन्दू फासीवादी आजादी की लड़ाई के दिनों में अपनी खाकी निक्कर और सफेद कमीज के साथ अंग्रेजों की चाकरी कर रहे थे। आजादी की लड़ाई के दिनों में उसे कमजोर करने के लिए आजकल की तरह ‘हिन्दू-मुसलमान’ कर रहे थे। हिन्दू फासीवादियों के इन काले कारनामों में इनकी धुर विरोधी मुस्लिम लीग साथ दे रही थी। ये दोनों एक तरफ देश भर में दंगे भड़काते और दूसरी तरफ मौका पड़ने पर विभिन्न प्रांतों में मिली-जुली सरकार तक बना डालते। अंग्रेज दोनों को ही पालते और दोनों ही अंग्रेजों के सामने वफादारी से अपनी दुम हिलाते। 
    
इस रूप में देखा जाये तो भारत की आजादी के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में हिन्दू फासीवादी ही उभरे हैं। इनके आये दिन के तालिबानी फरमान लोगों के खाने, रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने, विवाह या प्रेम करने जैसे जनवादी अधिकारों के मामले में आते रहते हैं। हिन्दुओं की आस्था के ठेकेदार बने ये हिन्दू फासीवादी पूरे भारत में संस्कृति, भाषा, इतिहास के नाम पर प्रपंच करते रहते हैं और जहर फैलाते रहते हैं। क्योंकि इन हिन्दू फासीवादियों को देशी-विदेशी एकाधिकारी पूंजी का वरदहस्त मिला हुआ है इसलिए ये अपनी मन की करते फिरते हैं। मालिक का मुंहलगा चाकर मनमानी तो करता ही फिरेगा। ऐसा नहीं है कि इनके आने से पहले हालात खराब नहीं थे परन्तु इनके आने के बाद तो सांस लेना भी दूभर है। 
    
15 अगस्त के दिन भारत के मजदूर-किसान, शोषित-उत्पीड़ित जन, दलित, औरतें, मुसलमान-ईसाई, आदिवासी क्या करें? एक रास्ता चुप्पी लगा जाने का, अपनी खाल बचाने का है। और दूसरा रास्ता सोचने-विचारने और संघर्षों के नये सिलसिले को शुरू करने का है। 
    
15 अगस्त का दिन एक ऐसा दिन बन सकता है जब हम अपनी आजादी की लड़ाई के दिनों को याद करें। शहीदों की कुर्बानियों को याद करें। उन क्रांतिकारियों के सपनों को हकीकत में बदलने का संकल्प लें जो हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम गये। भगतसिंह सरीखे शहीद भारत को एक पूंजीवादी देश नहीं बल्कि एक समाजवादी देश के रूप में देखना चाहते थे। वे ऐसे भारत का सपना देखते थे जहां देशी-विदेशी पूंजी के राज के स्थान पर मजदूरों-किसानों का राज हो। वहां दौलत के दम पर निर्लज्ज होकर नाचने वाले पूंजीपति न हों बल्कि मेहनतकशों का राज हो। शोषण-उत्पीड़न का नामोनिशां न हो। 

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।