जार्ज सोरोस और संघ-भाजपा

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बीते दिनों भारत की राजनीति में अमेरिकी उद्योगपति जार्ज सोरोस का नाम खूब उछाला गया। संघ-भाजपा ने इस उद्योगपति पर आरोप लगाया कि उसके द्वारा दिये फंड से भारत को अस्थिर करने, मोदी सरकार को बदनाम करने के अभियान संचालित हो रहे हैं और इस अभियान में भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी हिस्सेदार बनी हुयी है। यहां तक कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय तक को इस अभियान में शामिल बता दिया गया। 
    
दरअसल बीते कुछ वर्षों में भारत में मुसलमानों पर राज्य के द्वारा बढ़ते हमले, भारत सरकार द्वारा बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में खुलेआम काम करने, भारत में जनवादी स्पेस के घटते जाने से हर कोई परिचित है। दुनिया भर की तमाम पत्र-पत्रिकायें इस सम्बन्ध में लेख प्रकाशित करती रही हैं। सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउण्डेशन से अनुदान पाने वाली एक परियोजना ने भी इस प्रकार के तथ्य उजागर किये थे। खुद सोरोस ने भी अडाणी प्रकरण पर कुछ टिप्पणियां की थीं। दुनिया के तमाम देशों पर ये शोध संस्थान-पत्रिकायें टिप्पणी करती रहती हैं। 
    
पर संघ-भाजपा ने सोरोस को भारत विरोधी चेहरे के बतौर क्यों चुना? दरअसल फासीवादी संघ-भाजपा फासीवादी प्रचार के हिटलरी तरीके की अनुयायी हैं। गोयबल्स की तरह ये एक झूठ को तब तक दोहराने के पक्षधर हैं जब तक वह लोगों को सच न लगने लगे। मोदी काल में भारत के अनूठे विकास के सम्बन्ध में इनके द्वारा फैलाये झूठों से हर कोई परिचित है। यही हाल लव जिहाद से जुड़े इनके लगातार प्रचारित झूठ का भी है। मोदी की विदेश यात्राओं, मोदी के दुनिया को नेतृत्व देने आदि आदि मामलों में इनके झूठ खत्म होने का नाम नहीं लेते। इन झूठों से मोदी की ‘राष्ट्रवादी नायक’ की छवि गढ़ने में इनकी मशीनरी लगातार लगी रही है। 
    
बीते कुछ माह में ‘राष्ट्र नायक’ की इस छवि को कुछ चोट पहुंची। पहले अडाणी प्रकरण फिर आम चुनाव में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन ने इस ‘नायक’ के जादू के खिसकने को दिखाया। ऐसे में संघी एक नये झूठ के साथ मैदान में आ गये। इस झूठ के लिए एक बड़ा खलनायक तलाशा गया जो कि जार्ज सोरोस सरीखा अरबपति था। इस अरबपति को इसलिए चुना गया ताकि इस पर हमला बोल अपने ‘नायक’ को स्थापित किया जा सके। यह धारणा प्रचारित करने की कोशिश की गयी कि इतना बड़ा आदमी अगर भारत और मोदी के खिलाफ सक्रिय है तो जरूर मोदी में कोई कायदे की बात होगी। लगे हाथ अमेरिकी विदेश मंत्रालय पर भी कुछ आरोप जड़ दिये गये। 
    
सोरोस को खलनायक बनाने के बहाने संघ-भाजपा को दूसरा लाभ आक्रामक तेवर लिए हुए कांग्रेस पर लगाम लगाने के तौर पर भी मिला। कांग्रेस के सारे प्रचार को सोरोस का एजेण्डा घोषित कर उसको भारत विरोधी कहा जा सकता था। इस तरह कांग्रेस के संविधान बदलने से लेकर जाति जनगणना के हल्ले की हवा निकाली जा सकती थी। 
    
सोरोस प्रकरण से धूर्त संघी फासीवादी ताकतों ने दिखा दिया कि धूर्तता-मक्कारी में भारत की राजनीति में कोई उनकी टक्कर का नहीं है। कि गोयबल्स के आधुनिक अनुयायी नयी तकनीक के आज के जमाने में अपने हर कुकर्म को जन कल्याण का काम घोषित कर सकते हैं। कि वे अडाणी की चाकरी करते हुए जनवाद को कुचलते हुए, फर्जी साम्प्रदायिक मुद्दे उछालते हुए, शिक्षा-इलाज महंगा करते हुए यानी हर जनविरोधी करतूत करते हुए जनता को बेवकूफ बना ‘जननायक’ बने रह सकते हैं। 
    
जनता को बेवकूफ मानने वाले हिटलर के ये चेले भूल जाते हैं कि हिटलर को उसके अंजाम तक मेहनतकश जनता ने ही पहुंचाया था और इनका अंजाम भी हिटलर से जुदा नहीं होगा। 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।